Saturday, December 31, 2016

सबसे बड़ा पुण्य

 

सबसे बड़ा पुण्य


🔴 एक राजा बहुत बड़ा प्रजापालक था, हमेशा प्रजा के हित में प्रयत्नशील रहता था. वह इतना कर्मठ था कि अपना सुख, ऐशो-आराम सब छोड़कर सारा समय जन-कल्याण में ही लगा देता था. यहाँ तक कि जो मोक्ष का साधन है अर्थात भगवत-भजन, उसके लिए भी वह समय नहीं निकाल पाता था।

🔵 एक सुबह राजा वन की तरफ भ्रमण करने के लिए जा रहा था कि उसे एक देव के दर्शन हुए. राजा ने देव को प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन किया और देव के हाथों में एक लम्बी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा-

🔴 “महाराज, आपके हाथ में यह क्या है?”

🔵 देव बोले- “राजन! यह हमारा बहीखाता है, जिसमे सभी भजन करने वालों के नाम हैं।”

🔴 राजा ने निराशायुक्त भाव से कहा- “कृपया देखिये तो इस किताब में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?”

🔵 देव महाराज किताब का एक-एक पृष्ठ उलटने लगे, परन्तु राजा का नाम कहीं भी नजर नहीं आया।

🔴 राजा ने देव को चिंतित देखकर कहा- “महाराज ! आप चिंतित ना हों , आपके ढूंढने में कोई भी कमी नहीं है. वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता, और इसीलिए मेरा नाम यहाँ नहीं है।”

🔵 उस दिन राजा के मन में आत्म-ग्लानि-सी उत्पन्न हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे नजर-अंदाज कर दिया और पुनः परोपकार की भावना लिए दूसरों की सेवा करने में लग गए।

🔴 कुछ दिन बाद राजा फिर सुबह वन की तरफ टहलने के लिए निकले तो उन्हें वही देव महाराज के दर्शन हुए, इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी. इस पुस्तक के रंग और आकार में बहुत भेद था, और यह पहली वाली से काफी छोटी भी थी।

🔵 राजा ने फिर उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा- “महाराज ! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है?”

🔴 देव ने कहा- “राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों का नाम लिखा है जो ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय हैं!”

🔵 राजा ने कहा- “कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग? निश्चित ही वे दिन रात भगवत-भजन में लीन रहते होंगे! क्या इस पुस्तक में कोई मेरे राज्य का भी नागरिक है?”

🔴 देव महाराज ने बहीखाता खोला, और ये क्या, पहले पन्ने पर पहला नाम राजा का ही था।

🔵 राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- “महाराज, मेरा नाम इसमें कैसे लिखा हुआ है, मैं तो मंदिर भी कभी-कभार ही जाता हूँ?

🔴 देव ने कहा- “राजन! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जो लोग निष्काम होकर संसार की सेवा करते हैं, जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं. जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानो की सेवा-सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है. ऐ राजन! तू मत पछता कि तू पूजा-पाठ नहीं करता, लोगों की सेवा कर तू असल में भगवान की ही पूजा करता है। परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना से बढ़कर हैं।

🔵 देव ने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा- “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छनं समाः एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कर्म लिप्यते नरे..”

🔴 अर्थात ‘कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की ईच्छा करो तो कर्मबंधन में लिप्त हो जाओगे.’ राजन! भगवान दीनदयालु हैं. उन्हें खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है.. सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो. दीन-दुखियों का हित-साधन करो. अनाथ, विधवा, किसान व निर्धन आज अत्याचारियों से सताए जाते हैं इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा करो और यही परम भक्ति है..”

🔵 राजा को आज देव के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान मिल चुका था और अब राजा भी समझ गया कि परोपकार से बड़ा कुछ भी नहीं और जो परोपकार करते हैं वही भगवान के सबसे प्रिय होते हैं।

🔴 मित्रों, जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने के लिए आगे आते हैं, परमात्मा हर समय उनके कल्याण के लिए यत्न करता है. हमारे पूर्वजों ने कहा भी है- “परोपकाराय पुण्याय भवति” अर्थात दूसरों के लिए जीना, दूसरों की सेवा को ही पूजा समझकर कर्म करना, परोपकार के लिए अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पुण्य है. और जब आप भी ऐसा करेंगे तो स्वतः ही आप वह ईश्वर के प्रिय भक्तों में शामिल हो जाएंगे।

Monday, December 5, 2016

खाने के लिए न जीएँ, जीने के लिए खाएँ


     आयुर्वेद के रचियता महर्षि चरक ने इस ग्रंथ में सभी रोगों की चिकित्सा विधियां, हर प्रकार की औषधियाँ, निरोगी रहने के उपाय आदि का वर्णन किया था। चिकित्सा से संबंधित यह पहला ग्रंथ था, इसलिए प्रचलित भी तेज़ी से हुआ। हर ओर आयुर्वेद के चर्चे हो गए। इसे पढ़-पढ़कर बहुत से लोग आयुर्वेदाचार्य बन गए। लेकिन तब चूंकि संचार के प्रयाप्त माध्यम नहीं थे, अतः चरक को इस बात का पूरी तरह अंदाज़ा नहीं लग पाया था कि लोग किस सीमा तक उनकी बताई पद्धतियों का उपयोग कर लोगों की सेवा कर रहे हैं, उन्हें रोग मुक्त कर रहे हैं।
     एक बार उन्होने सोचा कि यह देखा जाए कि मेरा परिश्रम कितना सार्थक और सफल रहा। इसके लिए उन्होने एक पक्षी का रूप धारण किया और वे उड़कर उस जगह पहुँचे, जहाँ एक साथ कई वैद्य रहते थे। एक वृक्ष पर बैठकर उन्होने पक्षी की आवाज़ में पूछा- "कौररूक?' यानी रोगी कौन नहीं है? एक वैद्य ने यह सुनकर पक्षी की ओर देखा और उसके कहने का आशय समझकर बोला-जो च्यवनप्राश खाता है। दूसरा वैद्य बोला-नहीं, आप गलत कह रहे हो। रोगी वह नहीं है जो चंद्रप्रभा वटी खाता है। तीसरा वैद्य उसे टोकते हुए बोला-नहीं, वही निरोगी और स्वस्थ रह सकता है जो रोज बंग-भस्म खाए। इस पर चौथा बोला-लगता है तुम सबने आयुर्वेद ठीक से नहीं पढ़ा। सारी बीमारियों की जड़ पेट है और जब तक लवण-भास्कर चूर्ण नहीं खाओगे, तब तक पेट ठीक नहीं होगा।
     चरक ने जब ये सब बातें सुनी तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे सोचने लगे कि क्या मैने इस शास्त्र को लोगों के पेट को औषधियों का गोदाम बनाने के लिए लिखा था। मेरा सारा परिश्रम निष्फल हो गया। ये सब मेरी लिखी हुई बातों के वास्तविक अर्थ को जान ही नहीं पाए और ऊपरी तौर पर पढ़कर दुकानदारी चलाने लगे। वे दुःखी होकर दूसरी जगह उड़ गए। इसके बाद वे कई स्थानों पर गए, लेकिन हर जगह अज्ञानता भरी बातों को सुनकर उनकी निराशा और बढ़ती गई। अंत में अत्यंत विषाद भरी अवस्था में वे एक सुनसान जगह पर सूखे वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए थे। वहाँ प्रसिद्ध वैद्य वाग्भट्ट का आश्रम था। पास ही बहती नदी में नहाकर जब वे बाहर आए तो चरक ने उन्हें पहचान कर अंतिम आशा के साथ कहा- "कोररूक?' वाग्भट्ट ने जब यह सुना तो तुरंत बोले- "हितभुक् मितभुक्, ऋत्भुक्।' यानी वह रोगी नहीं है जो ऐसी वस्तुएँ खाए, जो शरीर के लिए अच्छी हों। केवल खाने के लिए न जिए, जीने के लिए खाए। जीभ के स्वाद में फँसकर पेट में कचरा न भरता जाए। चरक यह सुनते ही पेड़ से नीचे उतर आए और अपने असली रूप में आकर वाग्भट्ट से बोले-वैद्यराज! तुम मेरे शास्त्र का सही अर्थ समझे हो।
     दोस्तो! आप भी समझ गए होंगे कि अच्छी सेहत के सही नुस्खे क्या हैं। कितनी सही बात है कि केवल खाने के लिए नहीं जिएँ, बल्कि जीने के लिए खाएँ। लेकिन हम क्या करते हैं। हम खाने के लिए ही जीते हैं। हमारा न तो अपनी जीभ पर वश चलता है, न ही अपने पेट पर। स्वाद के लोभ में फँसे हम अपने पेट में न जाने क्या-क्या भरते जाते हैं। हम सोचते ही नहीं कि क्या हमारे लिए अच्छा है और क्या नहीं। बस अपने पेट को डस्टबिन या कचरा पेटी समझकर भरे जाते हैं उलटा-सुलटा। अब उलटे-सुलटे का असर भी तो वैसा ही होगा। और इसका असर पड़ता है हमारे स्वास्थ्य पर। हमारी सेहत बिगड़ती है। हमें लगते हैं तरह-तरह के रोग। क्योंकि जो जगह आपके स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण है, उसे तो आपने कचरा पेटी ही बना दिया है। अब कचरा पेटी में पड़ा सामान तो सड़ता ही है। जब सड़ेगा तो इसकी सड़ांध तो फैलेगी ही। और वह फैलकर प्रभावित करती है आपके शरीर को जो उसका पूरा संतुलन ही बिगाड़ देती है। जब संतुलन बिगड़ता है तो आप डॉक्टरों के पास भागते हैं। अगर वाग्भट्ट जैसे डॉक्टर मिल गए, तब तो ठीक है वरना किसी दुकानदारी करते नीम हकीम के हत्थे चढ़ गए तो वह आपके पेट को ही औषधियों का गोदाम बना देगा और आपको अच्छा करना तोे दूर, उल्टे आपकी हालत और खराब कर देगा। वैसे अच्छे डॉक्टर भी कहाँ तक टेका लगा लेंगे। वे कचरे को साफ करने के लिए दवाएँ देते हैं। ये दवाएँ भी कहीं न कहीं शरीर पर विपरीत असर डालती हैं और इस तरह केवल जीभ पर नियंत्रण न रखने की वजह से आपकी चकरघिन्नी बन जाती है। इसलिए यदि आप इन परिस्थितियों से बचना चाहते हैं तो "फास्ट फूड' संस्कृति के बढ़ते दौर में आज "विश्व स्वास्थ्य दिवस' पर यह प्रण करें कि आप आज से ही अपनी जीभ पर नियंत्रण शुरु कर देंगे। आप जीने के लिए खाएँगे न कि खाने के लिए जिएँगे। सिर्फ वही चीज़ खाएँगे जो शरीर के लिए उपयोगी हो यानी किसी भी चीज़ को खाने से पहले यह सोचेंगे कि इससे हमारे शरीर को क्या लाभ होगा। यकीन मानिए, फास्ट फूट आपके शरीर के लिए किसी भी तरह से उपयोगी नहीं हो सकते। केवल संतुलित आहार ही आपकी सेहत को ठीक रख सकता है। जब आप संतुलित आहार लेंगे तो आपकी सेहत अच्छी बनी रहेगी। अच्छी सेहत आपके मन को भी अच्छा रखेगी, जिससे आपकी कार्यकुशलता प्रभावित नहीं होगी और तब आप अपने सारे सपने पूरे कर पाएँगे। क्योंकि सपने पूरे करने के लिए आपको स्वस्थ और प्रसन्न चित रहना ज़रूरी है।

Monday, November 28, 2016

हाथ फैलाएं नहीं बल्कि हाथ फहराएँ।


     एक बार मथुरा के गऊघाट पर सैंकड़ों भक्तों के सामने सूरदास अपने लिखे पदों का गायन कर रहे थे। उनकी आवाज़ की मिठास और पदों के शब्दों के जादू से पूरा वातावरण भक्तिमय हो गया था। कृष्णभक्त भक्ति रस में डूबकर आनंद ले रहे थे। उनके सैंकड़ों शिष्य थे जो उन्हें गायक महात्मा कहते थे। अनेक कठिनाइयाँ उठाकर सूरदास ने यह मुकाम हासिल किया था। अँधे होने की वजह से बचपन से ही उनके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जाता था। जब उन्होने पढ़ने की इच्छा व्यक्त की तो उनके पिता ने यह कह कर भगा दिया कि अंधे को क्या पढ़ाऊँगा। इससे वे बेहद निराश हो गए।
      एक बार गाँव से एक साधु मंडली भजन गाती-बजाती निकली। संगीत में उन्हें इतना आनंद आया कि वे बेसुध होकर उसके पीछे-पीछे चल दिए। इसके बाद वे घर नहीं लौटे। एक दिन जब सूरदास अपनी कुटिया में बैठे थे, तभी एक शिष्य ने आकर सूचना दी कि महाप्रभु बल्लभाचार्य वृंदावन जाने वाले हैं। उस समय के सब विद्वानों में महाप्रभु शीर्ष पर थे। इस पर उदास होकर सूरदास बोले कि काश, मेरी महाप्रभु से भेंट हो पाती। इस बीच एक और शिष्य आकर उनसे बोला-महाप्रभु आपसे भेंट करने कुटिया की ओर ही आ रहे हैं। सूरदास बोले-पागल हो गया है क्या? इतना बड़ा विद्वान मुझ जैसे तुच्छ प्राणी से मिलने क्यों आएगा? वे कहीं ओर जा रहे होंगे। तभी महाप्रभु वहाँ पहुंच गए। सूरदास को विश्वास ही नहीं हो रहा था। वे भाव-विभोर होकर गिरते-गिराते उनकी अगवानी के लिए बाहर आए और उनके पैरों में गिर पड़े। आचार्य ने उन्हें उठाकर प्यार से गले लगा लिया और बोले-तुम्हारे गायन की बड़ी प्रशंसा सुनी है। तुम्हारा गायन सुनने की इच्छा हुई तो चला आया।
     सूरदास बोले-क्यों अंधे का दिल रख रहे हो महाप्रभु! थोड़ा-बहुत ऐसे ही गा लेता हूँ। अपाहिज हूँ ना, इससे ज़्यादा और कुछ सीखा ही नहीं। महाप्रभु बोले-तुम अपने आपको असहाय मानना बंद करो। तुम्हें यह घिघियाने की आदत छोड़नी होगी। तुम किसी से कम नहीं हो। अपनी कमियों से ध्यान हटाकर अपने गुणों को पहचानो। तुम कृष्णभक्ति को नए आयाम देने के लिए पैदा हुए हो। महाप्रभु की बातों से सूरदास को तो जैसे रोशनी मिल गई। वे बोले-लेकिन मुझे कृष्ण की लीलाओं का ज्ञान नहीं। महाप्रभु ने कहा- वह मैं तम्हें बताऊँगा। इसके बात उन्होने गुरु-मंत्र देकर सूरदास को अपना शिष्य बना लिया। सूरदास ने इसके बाद कभी अपने आपको असहाय नहीं माना और मन की आँखों से देखकर कृष्ण लीलाओं का वर्णन किया।
     दोस्तो, आप कितने ही कमज़ोर क्यों न हों, अपने आपको कभी लाचार या असहाय न समझे। क्योंकि यदि आपके दिमाग में यह बात बैठ गई कि आप कमज़ोर हैं तो फिर आप कभी कुछ नहीं कर पाएँगे। आप एक लाचार की तरह व्यवहार करेंगे। यह एक ऐसा भाव है जो अच्छे-भले इंसान को भी अपाहिज बना देता है। इसलिए कहा भी गया है कि मन से अपाहिज होने से अच्छा है तन से अपाहिज होना। तन से अपाहिज होने के बाद भी लोग बड़ी-बड़ी सफलताएँ हासिल कर लेते हैं, जैसे कि संत सूरदास ने आँखें न होने के बाद भी कृष्ण लीलाओं का इतना सुंदर चित्रण करके प्राप्त की। लेकिन यदि आप मन से अपाहिज हो गए तो फिर कुछ भी करने के काबिल नहीं रहेंगे।
       इसलिए कभी विवशताओं को अपने ऊपर हावी मत होने दो और न ही उनसे भागो, क्योंकि आप उनसे भाग नहीं सकते। इसलिए बेहतर यह है कि उन पर विजय पाओ। यह बात उस स्थिति में भी लागू होती है, जब आप शारीरिक रूप से अपंग हों। यदि ऐसा है तो भी क्या हुआ। अपंगता नियति हो सकती है, लेकिन इति कभी नहीं।
     इसलिए ऐसी स्थिति में भी अपने आपको कमज़ोर न समझे। क्योंकि ईश्वर यदि आप में कोई कमी रखता है तो ऐसे गुण भी देता है, जो सामान्य लोगों में नहीं होते। ज़रूरत है अपने अंदर छुपे उन गुणों को पहचानने की। जब पहचान लेंगे तो कभी अपने आपको दीन, निर्बल, लाचार और असहाय नहीं समझेंगे। ऐसे अनेक लोग समाज में आपको मिल जाएंगे, जिन्होंने अपनी कमज़ोरी को ही अपना हथियार बनाया। आज वे दूसरों का सहारा लेने की जगह दूसरों के सहारे बने हुए हैं। आपको भी यही करना है। तब आप किसी के सामने हाथ फैलाएँगे नहीं, सफलता पाकर हाथ फहराएंगे।

Thursday, November 17, 2016

आपके डूबने से जग नहीं डूब जाता


    नदी के किनारे एक गाँव था। वहाँ लोग त्योहारों पर आकर स्नान ध्यान करते थे। एक बार सोमवती अमावस्या के दिन वहाँ स्नान करने के लिए काफी भीड़ इकट्ठा हुई। उस दिन नदी का बहाव बहुत तेज था, इसलिए लोग किनारे पर ही स्नान कर रहें थे। इस बीच पास के ही एक गाँव से आया एक युवक नदी में गहराई के ओर जाने लगा। उसे तैरना नहीं आता था। उसे ऐसा करते देख लोगों ने समझाया कि बहाव तेज है, कहीं संतुलन बिगड़ गया तो लेने के देने पड़ सकते हैं। लेकिन वह युवक उत्साही था, उसने किसी की नहीं सुनी और आगे बढ़ता गया। पानी उसके कमर के ऊपर आ चुका था। इस बीच उसने एक कदम और बढ़ाया। वहाँ एक गड्ढा था, जिससे उसका संतुलन बिगड़ गया। उसने सँभलने की कोशिश की, लेकिन उसके पैर ज़मीन पर नहीं टिक पा रहें थे। अपने आप को बचाने के लिए वह हाथ-पैर मारने लगा। जब उसकी हिम्मत जवाब देने लगी, तो वह चिल्लाने लगा- बचाओ! बचाओ! उसकी आवाज सुनकर लोगों ने देखा। इतने में वह फिर चिल्लाया- खड़े- खड़े क्या देख रहें हो। मुझे डूबने से बचाओ, वरना मैं डूबा तो जग डूबा। उसकी बात सुनकर कुछ तैराक नदी में कूदे और उसे सही-सलामत किनारे पर ले  आए।
     तब तक उसके पेट में बहुत पानी भर चुका था। उसे उलटा लिटाकर उसके पेट का पानी निकाला गया। जब वह सामान्य हो गया तो एक आदमी बोला- भाई मेरे, प्रभु की कृपा से तू बच गया, लकिन हमें यह तो बता, कि डूबते समय तू जो कह रहा था कि मै डूबा तो जग डूबा,इसका क्या मतलब है? तेरे डूबने से जग के डूबने का क्या संबंध है? युवक बोला-भैया, बड़ी सामान्य सी बात है यह तो। खुदा न ख्वास्ता, यदि मै डूब जाता तो फिर इस जग का होना न होना मेरे लिए मायने नहीं रखता। मेरे लिए जग होना तभी तक सार्थक है, जब तक मै जिंन्दा हूँ। बाद में हुआ करें जग, मेरी बला से। इसलिए ही मै कह रहा था कि मै डूबा तो जग डूबा। वाह! भई वाह!! यह सोच भी खूब है। उस युवक के नज़रिये से यदि सोचें तो उसकी बात में दम है। जब आप ही नहीं रहें तो फिर जग का रहना आपके लिए किस काम का? आपके लिए तो आपके साथ ही आपकी दुनिया भी खत्म। लेकिन हमारी दृष्टि से यह सोच गलत है। क्योंकि इस सोच में कहीं न कहीं स्वार्थ झलकता है। यानी आपको बाकी लोगों से, बाकी दुनिया से कोई लेना देना नहीं। आपको तो सिर्फ अपने से मतलब है। जब तक जिससे आपका काम चल रहा है, तब तक ही वह आपका है। काम निकल जाने के बाद उससे आपका कोई लेना-देना नहीं।
     इस प्रवृत्ति के लोग आपको बहुत मिल जाएँगे। यही प्रवृत्ति उन लोगों में अधिक जाग्रत रूप नज़र आती है जो किसी विवाद या अन्य कारण से एक संस्था को छोड़कर दूसरी संस्था में चले जाते हैं और मौका मिलने पर अपनी पूर्व संस्था की बुराई करते नहीं चूकते। क्योंकि उनकी दृष्टि में अब उस संस्था से उनका कोई लेना देना नहीं है। वह डूबती है तो डूब जाए। वे सोचते है कि उनकी बातों से उस संस्था को नुकसान होगा। लेकिन वे गलत सोचते हैं, क्योंकि ऐसी बातों से संस्था का तो कुछ नहीं बिगड़ता, बल्कि उनकी छवि जरूर बिगड़ जाती है या यूँ कहें कि डूब जाती है। उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेता। हर कोई यही सोचता है कि खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे।
     यदि आपकी भी सोच ऐसी है तो बेहतर है कि आप इस तरह डूबने से बचें। हम यह नहीं कहते कि आप अपनी पूर्व संस्था के प्रति कोई जवाबदेही रखें, क्योंकि ऐसा संभव नहीं। लेकिन ऐसा भी न करें कि जिस संस्था का उल्लेख आपने अपने बायोडाटा में किया है, उसके बारे में अनर्गल बोलें। दूसरी ओर, कई लोग इस गलतफहमी में जीते हैं कि संस्था उनसे चल रहीं है। वे नहीं रहेंगे तो संस्था भी नहीं रहेगी। यानी वहीं "हम डूबे तो जग डूबा' वाली प्रवृत्ति। ऐसे लोगों को हम कहना चाहेंगे कि संस्था से व्यक्ति होते है, व्यक्ति से संस्था नहीं। ऊँचे से ऊँचा और महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण व्यक्ति भी यदि संस्था छोड़कर चला जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता। हो सकता है इसका कुछ तात्कालिक प्रभाव नजर आए, लेकिन अंतत: कोई दूसरा उसकी जगह ले लेता है और संस्था चलती रहती है। इसलिए आपने ऐसी कोई गलतफहमी पाल रखी है तो उसे दूर कर दें, वरना यह आपको डुबो देगी।

Saturday, November 12, 2016

भगवान भरोसे


     एक बार एक भक्त के सपने में भगवान प्रकट हुए। भगवान ने उसे कहा कि तू सत्य के रास्ते पर चलने वाला है। मैं तेरे आचरण से खुश हूँ और तुझे एक वर देना चाहता हूँ। जो मन में आए, माँग ले। भक्त बड़ा ही सज्जन था। उसने सोचा कि भगवान से धन-दौलत माँगने का क्या लाभ? इसलिए कुछ ऐसा माँगना चाहिए जिससे हमेंशा के लिए ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त हो जाए। ऐसा सोचकर उसने भगवान से कहा-मुझे और कुछ नहीं चाहिए प्रभु! बस जीवन के हर सुख-दुःख में और परीक्षाओं की घड़ी में आप मेरे साथ चलते रहें। इस पर ईश्वर "तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गए।
     इसके बाद उस भक्त की आँख खुल गई। वह सपने की बात भूलकर अपने दैनंदिन कार्यों में लग गया। इस तरह कई वर्ष बीत गए। इस बीच हर व्यक्ति की तरह उसके जीवन में भी अनेक विपरीत परिस्थितियां आई और उसने उनका सामना हिम्मत और पुरुषार्थ से किया।
     एक बार वह बहुत बीमार हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां जब वह अर्धचेतन अवस्था में पड़ा था तो उसके सामने भगवान फिर प्रकट हुए। भगवान को देखते ही उसे वरदान वाली बात याद आ गई और उसने उनसे पूछा, "प्रभु! आप तो मुझे वरदान देकर गायब ही हो गए। मुझे ज़िंदगी में न जाने कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन सभी का सामना मैने अकेले ही किया। आपने मेरा कहीं भी साथ नहीं दिया।
     भक्त की बात सुनकर भगवान मुस्कराए और बोले-नहीं वत्स! मैं अपने कहे अनुसार जीवन के हर कदम पर तुम्हारे साथ था। इसका क्या प्रमाण है? भक्त ने भगवान से पूछा। इस पर भगवान ने उससे कहा-सामने की दीवार पर देखो। तुम्हारे जीवन की सारी कहानी तस्वीरों में दिखाई देगी। भक्त को सामने की दीवार पर दो व्यक्तियों के पदचिन्हों के रूप में अपने जीवन की सारी घटनाएँ दिखार्इं देने लगीं। भगवान ने कहा-पुत्र! इनमें से एक पदचिन्ह तुम्हारे हैं और दूसरे मेरे। देखो, मैं हर समय तुम्हारे साथ ही चल रहा था। उसने देखा कि बीच-बीच में केवल एक ही व्यक्ति के पदचिन्ह दिखाई दे रहे हैं। उसे याद आया कि ये पदचिन्ह उन समयों के हैं, जब वह कठिन दौर से गुज़र रहा था। उसने भगवान से कहा-प्रभु! इन पदचिन्हों को देखिए। जब जब मुझे आपकी सबसे ज़्यादा आवश्यकता थी, तब तब आप मेरे साथ नहीं थे। भक्त की बात सुनकर भगवान बोले-पुत्र! तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो। मैने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा। परीक्षाओं की घड़ियों में तुम्हें जो पदचिन्ह दिखाई दे रहे हैं, वे मेरे हैं। उस समय मैने तुम्हें अपनी गोद में उठाया हुआ था। इस कारण तुम्हारे पैरों के निशान वहाँ नहीं बन पाए। चूँकि तुम उस समय अपने कर्म में इतने डूब गए थे कि तुम्हें यह भान ही नहीं हुआ कि मैने तुम्हें अपनी गोद में उठा रखा है। कर्म तो तुम्हें ही करना था। इसलिए गोद में रहकर भी तुम कर्म करते रहे और तुम्हारे निष्काम कर्मों का फल मैं तुम्हें तुम्हारी सफलता के रूप में देता रहा।
     भगवान भरोसे रहने वालों के लिए यह अच्छी कहानी है। ईश्वर अपने उन्हीं भक्तों का साथ देता है जो खुद का साथ देते हैं यानी अपने कर्म करते हैं। जो कर्म नहीं करते, उनका भगवान भी साथ नहीं दे सकता। यह मानी हुई बात है। यहाँ एक सवाल यह भी उठ सकता है कि भगवान ने भक्त को जब सदा साथ चलने का वर दे दिया था तो फिर वे अपनी बात से कैसे पलट सकते थे? फिर वह भक्त चाहे कर्म करे या न करे। इसका उत्तर यह है कि भगवान ने उसे हमेशा साथ चलने का वर दिया था, साथ देने का नहीं। यदि भक्त कर्म नहीं करता तो वे उसे गोद में नहीं उठाते, सिर्फ उसके साथ चलते, फिर भले ही वह जीवन के संग्राम में असफल ही क्यों न हो जाता।
     इसलिए आप यदि चाहते हैं कि आपको जीवन में सफलता मिले, तो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरी मेहनत और जोश के साथ निष्काम प्रयत्न करें। क्योंकि आपका अधिकार सिर्फ प्रयत्न करने तक ही सीमित है और फल देने का अधिकार उसका है। इसलिए आप सिर्फ अपने अधिकार का प्रयोग करें, ईश्वर भी अपने अधिकार का उपयोग करेगा यानी आपको फल देगा।

Tuesday, November 8, 2016

अनमने मन में नहीं रह सकता अमन


     सम्राट बिंदुसार के निधन के बाद सुसीम सहित अपने अनेक भाइयों का वध कर गद्दी पर बैठे अशोक ने अपने साम्राज्य का विस्तार जारी रखा। उसका साम्राज्य लगभग संपूर्ण भारत और पश्चिमोत्तर में हिन्दुकुश एवं ईरान की सीमा तक पहुँच चुका था। इसके बाद भी उसके मन को शांति नहीं मिली थी, क्योंकि अजेय कलिंग ने उसका आधिपत्य स्वीकार नहीं किया था। अतः उसने कलिंग पर चढ़ाई कर दी। कलिंग के वीर सैनिकों ने बहादुरी से अशोक की सेना का सामना किया, लेकिन विजय अशोक की ही हुई।
     अशोक कलिंग पर विजय पताका लहराने के लिए रवाना हुआ तो मार्ग में वीभत्स दृश्य देख उस मन उद्वेलित हो उठा। युद्ध में भारी जनसंहार हुआ था। वह जिधर भी जाता, उसे चारों ओर लाशों के ढेर दिखाई देते। हर तरफ चीत्कार मची  हुई थी। लाखों निरपराध लोग काल के गाल में समा जाने के कारण गाँव के गाँव खाली हो गए थे। यह सब अशोक से देखा नहीं गया। उसे बेचैनी होने लगी और वहीं से लौट गया। उसने युद्ध मन की शांति के लिए किया था, लेकिन इससे उसका मन और भी अशांत हो गया था। इस बीच उसकी पत्नी विदिशा हिंसा के विरोध में भिक्षुणी भी बन गई। इससे अशोक को और भी झटका लगा।
     एक दिन उसने महल के झरोखे से एक किशोर भिक्षु को जाते देखा। उसने उसे अपने पास बुलाया तो उसे पता चला कि यह तो उसका भतीजा न्याग्रोध कुमार था, जिसके पिता का वह वध कर चुका था। अशोक ने उससे पूछा- "क्या तुम मुझसे घृणा नहीं करते?' भिक्षु बोला- "नहीं, क्या मैं तुमसे इसलिए घृणा करूँ कि तुमने मेरे पिता को मार डाला। इससे क्या होगा? घृणा से किसी का हित नहीं होता। उसे प्रेम से जीतना चाहिए।' अशोक- "इतनी छोटी उम्र में तुमने यह सब कहां से सीखा?' भिक्षु- "भगवान बुद्ध के उपदेशों से। इससे अशांत मन को शांति मिलती है।' इन सब घटनाओं से उसका ह्मदय परिवर्तित हो गया और वह भी शांति के लिए बुद्ध की शरण में चला गया।
     दोस्तोे न्याग्रोध ने अशोक को शांति का सही रास्ता दिखाया। और कलिंग को जीतकर भी हार चुके, मन की शांति खो चुके अशोक को शांति का सही मार्ग मिल गया, जिसे अपनाकर ही अशोक "अशोक महान' बना। यानी अशोक इसलिए महान नहीं कहलाया कि उसने अजेय कलिंग सहित संपूर्ण भारत पर आधिपत्य स्थापित किया था। वह महान तब बना, जब उसने अपनी गलती से सबक लेकर उसे न दोहराने का प्रण किया। उसके मन की यह भ्रांति दूर हो चुकी थी कि शांति स्थापित करने के लिए युद्ध ज़रूरी है, भय का वातावरण ज़रूरी है। वह समझ चुका था कि शांति तो प्रेम और समझदारी से ही स्थापित की जा सकती है। और प्रेम से वही शांति स्थापित कर सकता है जो अपनी इच्छाओं को जीतकर मन में शांति स्थापित कर चुका हो।
      हम सभी को भी यह बात समझ में आनी चाहिए कि यदि हमारे भीतर अशांति है तो उसे बाहर ढूँढना बेकार है। शांति की शुरुआत खुद से होती है। इसलिए यदि आप चाहते हैं कि आपके आसपास शांति हो, आप शांति से रह सकें तो सबसे पहले अपने आपको शांतचित्त बनाना होगा तभी आप दूसरों को भी शांत रहना सिखा सकेंगे। बहुत से लोगों की आदत होती है कि वे शांति की बात तो बहुत करते हैं, दूसरों को शांत रहने की शिक्षा भी देते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा अशांति भी वही फैलाते हैं। ऐसे लोगोंें से हम कहना चाहेंगे कि सिर्फ शांति की बातें करने से काम नहीं चलता। आपको शांति में विश्वास भी होना चाहिए। और सिर्फ शांति में विश्वास होने से भी काम नहीं चलता, आपको इसके लिए प्रयत्न भी करने होंगे। यानी शांति चाहते हो तो खुद को शांत रखना सीखो। दूसरों को अशांत रखकर शांति की कामना करोगे तो इससे और भी ज्यादा अशांति फैलेगी। कहते हैं कि अमन के लिए ज़रूरी है कि आपका मन अनमना न रहे। और अपने मन को आप ही मना सकते हैं कोई दूसरा नहीं।
     इसलिए आज कमर कस लें कि आप अपने आपसे, अपनी अशांति से युद्ध कर उसे जीतेंगे। यकीन मानिए, यदि आप इस युद्ध में जीतकर तनावों से मुक्त हो गए तो फिर आप भी अशोक बन जाएँगे यानी आपके मन में कोई शोक न होगा। और तब आपको भी महान या सफल बनने से कोई रोक नहीं पाएगा।
     अब बस! हमें भी मन की शांति के लिए ध्यान में बैठना है। चलिए, आप भी ध्यान कीजिए। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।

Thursday, November 3, 2016

अपनों के साथ होती हैं खुशियाँ दोगुनी


     देवर्षि नारद जी के मुख से यह सुनने के बाद कि आपकी पुत्री के भाग्य में तो भगवान शिव से विवाह का योग है। पर्वतराज हिमवंत अपनी पुत्री पार्वती को लेकर शिव के पास गए और आग्रह किया कि वे उसे अपनी सेवा का अवसर दें। शिव ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। और पार्वती उनकी सेवा में जुट गर्इं। इस प्रकार बहुत दिन बीत गए।
     एक दिन पार्वती की सेवा से प्रसन्न होकर शिव बोले-तुम्हें मनचाहा पति मिले। ऐसा पति जो तुमसे ही प्रेम करने वाला हो। वे खुश हो गई। इस बीच कामदेव ने मौका देखकर शिव पर तीर छोड़ दिया, जिससे उनके मन में प्रेम का भाव पैदा हो सके। परन्तु हुआ उलटा और शिव ने क्रोधित होकर कामदेव को भस्म कर दिया। इसके बाद वे किसी अज्ञात स्थान पर चले गए। इससे पार्वती शोक में डूब गई। वे मन ही मन उन्हें अपना पति स्वीकार कर चुकी थीं। उन्होने निश्चय किया कि वे कठोर तपस्या से शिव को पाकर ही रहेंगी। सबसे पहले उन्होने अपने माता-पिता को समझा-बुझाकर इस बात के लिए राजी किया। इसके बाद वे तपस्या करने निकल पड़ीं। उन्होने तपस्विनी का वेश धारण कर लिया और हिमालय के एक शिखर पर जाकर तपस्या आरम्भ कर दी। उनका सुकोमल शरीर तप के योग्य नहीं था, लेकिन शिव प्राप्ति के लक्ष्य के आगे यह सब बातें गौण थीं। एक कन्या को यह सब करते देखकर ऋषि-मुनि आश्चर्य में पड़ जाते। धीरे धीरे उन्होने भोजन का त्याग कर दिया और बर्फ जैसे जलकुंड में बैठकर शिव का ध्यान करने लगीं। इस तरह कई वर्ष बीत गए। लेकिन पार्वती की हिम्मत नहीं टूटी।
     एक दिन जब पार्वती पूजा-अर्चना की तैयारी कर रही थीं कि एक ब्राहृचारी वहाँ आया। पार्वती ने उसका सत्कार किया। ब्राहृचारी बोला-देवी, मुझे तुम्हारे कठोर तप के बारे में पता चला। नारी होकर तुमने संसार के लिए उदाहरण प्रस्तुत किया है। लेकिन तुमने इतना कठोर तप किया क्यों? इस पर पार्वती ने इशारे से अपनी सखी से उत्तर देने को कहा। सखी ने तप का कारण बताया। इस पर ब्राहृचारी हँस पड़ा और शिव के रहन-सहन वेशभूषा आदि के बारे में ऊटपटाँग बोलने लगा। शिव की निन्दा सुनकर पार्वती को क्रोध आ गया। वे बोली-तुम निश्चित ही मूर्ख हो, जो महादेव को नहीं पहचान पाए। वे न दिखावा करते हैं और न ही दिखावे से प्रभावित होते हैं। वे भोले हैं। और सबसे बड़ी बात वे जैसे भी हैं, मैं उनसे प्रेम करती हूँ। इसलिए आप उनके बारे में अब एक भी अनुचित शब्द नहीं कहेंगे। इसके बाद वे सहेली से बोलीं- बुरी बात कहना तो पाप है ही, उसे सुनना भी महापाप है। उसके बाद पार्वती ने जैसे ही जाने के लिए कदम बढ़ाया तो ब्राहृचारी ने आगे बढ़कर उनका रास्ता रोक लिया। पार्वती ने जैसे ही गुस्से में उसकी ओर देखा तो पाया कि वहां तो स्वयं शिव खड़े थे, जो ब्राहृचारी के वेश में पार्वती की परीक्षा लेने आए थे। वे बोले-सुकुमारी, तुम्हारी तपस्या और भक्ति ने मुझे जीत लिया। आज मैं तुम्हारा सेवक हूँ। मुझसे विवाह करोगी। यह सुनकर पार्वती लजा गर्इं। वे अपनी सखी से बोलीं- इनसे कहो कि ये मेरे माता-पिता के सामने विवाह का प्रस्ताव रखें। वे ही इस बात का निर्णय कर सकते हैं। शिव बोले-प्रिये, मैं इसमें तनिकभी देरी नहीं लगाऊँगा। इसके बाद उन्होने हिमवंत के पास विवाह प्रस्ताव भिजवाया। हिमवंत भी यही चाहते थे। वे तुरंत तैयार हो गए। सभी ओर प्रसन्नता छा गई। उचित समय पर विधिपूर्वक शिव-पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ, जिसमें स्वजनों के अलावा तीनों लोकों के अतिथि शामिल हुए।
     दोस्तो, यही है खुशियां मनाने का सही तरीका। आप खुशियां तब तक पूरी तरह नहीं मना सकते जब तक कि उनमें आपके अपने प्रियजन व मित्र सम्मिलित न हों। पार्वती ने अपने मनचाहे वर को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की, लेकिन जब तपस्या सफल हो गई तो अपनी खुशियों में उन्होने अपने माता-पिता को शामिल कर उन्हें अपेक्षित सम्मान दिया। हालांकि वे पहले से यही चाहते थे, लेकिन बेटी द्वारा अपनी भावनाओं का ख्याल रखे जाने से उन्हें अधिक खुशी हुई होगी। यदि हर बच्चा यही आचरण अपनाए तो शायद ही किसी माता-पिता को उनकी खुशियों में शामिल होने में परेशानी हो। हम बात कर रहे हैं उन बच्चों की, जो अपनी मर्ज़ी से जीवन साथी का तो चयन करते हैं लेकिन प्रियजनों की भावनाओं का ख्याल नहीं रखते। इसका परिणाम भविष्य में उन्हें नकारात्मक ही मिलता है। इसलिए हमें हमेशा अपने परिजनों की भावनाओं और सम्मान का ध्यान रखना चाहिए। ये छोटी-छोटी बातें हैं लेकिन इन बातों का ध्यान रखने से हम कई बड़े तनावों से बच जाते हैं।

Saturday, October 29, 2016

पहल करने वाले ही रचते हैं इतिहास


     सन् 1857 की सर्दियाँ। कलकत्ता के नज़दीक स्थित बैरकपुर अंग्रेजों की एक महत्वपूर्ण सैनिक छावनी था। 34 वीं इंफेंट्री रेजिमेंट के जवानों में आक्रोश चरम पर था। उन्हें पता चला था कि जिन कारतूसों का प्रयोग वे कर रहे हैं, उनमें चिकनाई के तौर पर गाय और सुअर की चरबी का इस्तेमाल किया जा रहा है। यदि ऐसा है तो यह धर्म भ्रष्ट करने वाली बात है। जवानों का मानना था कि आदमी अपने धर्म और ईमान को बेचकर नौकरी नहीं कर सकता। अंग्रेजों ने यह काम निश्चित ही हिंदू-मुसलमानों की धार्मिक आस्थाओं को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से किया होगा। और कोई भी जवान इस बात पर अंग्रेजों से समझौता करने को तैयार नहीं था।
     लेकिन अंग्रेज़ थे कि उनकी बातों को सुनने को तैयार ही नहीं थे। वे तो नए-नए तर्क देकर उनकी बातों को झुठलाने का प्रयास करते थे। जब जवानों ने कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया तो वहाँ के कमांडिंग ऑफिसर मिचेल ने उन्हें उद्दंडता बर्दाश्त न करने की धमकी दे दी। इससे माहौल ठंडा होने की जगह और बिगड़ गया। उधर निचेल ने अपनी घुड़सवार सेना और तोपखानों को पहले से ही सतर्क कर दिया ताकि किसी भी बगावत से निपटा जा सके। इस बात से जवानों का गुस्सा और बढ़ गया। एक दिन रात को घुड़सवार टुकड़ी व तोपों के पहियों की आवाज़ सुनकर वे जाग गए। सभी जवान घबराए हुए थे। वे शास्त्रागार की तरफ लपके और उन्होने बंदूकों और कारतूसों को अपने कब्ज़े में ले लिया। बाद में मिचेल वहाँ पहुँचा स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कुछ देशी अफसरों ने उसे सलाह दी कि आप फौज व तोपें वापस भेजकर इनका विश्वास जीतें व कल शांत भाव से इनसे बातें करें। सब ठीक हो जाएगा। उसे उपाय पसंद आया। सुबह जवानों को प्यार से समझाया गया कि कुछ लोग आपको गुमराह कर रहे हैं। यदि शक है तो आप कारतूसों को दाँत की बजाय हाथ से छील लें, वरना सभी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाएगा।
     ऑफिसर की बात पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। एक जवान बोला-अगर हमने इनकी बात नहीं मानी तो ये हमें नौकरी से निकाल देंगे। इस पर हमेशा चुप रहने वाला एक जवान मंगल पाँडे तपाक से बोला-यानी हमें कारतूसों का प्रयोग करना ही होगा? उसके प्रश्न को सुनकर सब आश्चर्य से चौंक पड़े। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि हमेशा चुप रहने वाला मंगलपांडे कभी ऐसा प्रश्न भी कर सकता है। कुछ समय बाद यह पता चलने पर कि अंग्रेज जवान उनकी रेजिमेंट में आ रहे हैं, जवानों के होश उड़ गए। उस दिन परेड मैदान पर मंगल पांडे से नहीं रुका गया। वह हाथ में बंदूक लिए बेखौफ आगे बढ़ा और चिल्लाया-मेरे डरपोक साथियों, तुम सिर्फ बातें ही कर सकते हो, करते कुछ नहीं। इसके पहले कि अंग्रेज अफसर हमारा धर्म भ्रष्ट करें, अपने हाथों में हथियार उठाकर हमें उनका प्रतिकार करना चाहिए। उसकी बातों से जवानों में उत्तेजना तो फैली, लेकिन कोई कदम आगे नहीं बढ़ा। वे अभी भी सिर्फ जबानी बातें ही कर रहे थे।
     इधर, मंगल पांडे उन्हें आगे बढ़ने के लिए ललकार रहा था। इतने में लेफ्टिनेंट बॉग वहाँ आया। मंगल पांडे बोला-आगे बढ़ो, मेरा साथ दो। कोई अपनी जगह से नहीं हिला। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और बॉग पर गोली चला दी। परंतु बॉग बच गया और तलवार लेकर उस पर लपका, लेकिन मंगलपांडे ने उसे धराशायी कर दिया। सिपाहियों में हर्ष ध्वनि फैल गई।
     दोस्तो, इसके बाद क्या हुआ, यह इतिहास की पुस्तकों में दर्ज़ है, लेकिन हमारे लिए यही वह हिस्सा है, आप जानते ही हैं कि मंगल पांडे का नाम इतिहास में क्यों दर्ज़ है। इसलिए नहीं कि वह सवतंत्रता संग्राम का बहुत बड़ा सेनानी था, बल्कि इसलिए कि उसकी बंदूक से निकली गोली ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की नीàव रखी। उसने हिम्मत करके पहला कदम बढ़ाया और अंग्रेज़ों का सामना किया। उसके बाद तो फिर सभी उसके पीछे खड़े थे।
     मंगल पांडे ने हमें सिखाया कि सिर्फ जबानी जमा-खर्च से काम नहीं चलता। हमें कुछ करके भी दिखाना चाहिए। बातें तो हम बड़ी-बड़ी कर सकते हैं। इतनी बड़ी कि जो भी उन्हें सुने तो उसे लगे कि यह आदमी इतिहास बदलने की क्षमता रखता है। लेकिन यदि इतिहास सिर्फ बातों से लिखा जा सकता तो कोई भी व्यक्ति रोज नया इतिहास लिख देता। इतिहास लिखा जाता है कर्मों से, साहस से, पहल से। यानि आप किसी भी चीज़ की योजनाएँ तो बहुत बड़ी-बड़ी बना लेते हैं, लेकिन यदि आप में पहल करने की, उस योजना के अनुरूप आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं है तो फिर योजनाएँ क्रियान्वित कैसे होंगी? यह उसी तरह है कि आपको कहीं जाना है और आप सोचें कि बिना कदम बढ़ाए वहाँ पहुँच जाएँगे, तो ऐसा नही होता। यह तो किस्से-कहानियों में ही होता है। हकीकत की दुनियाँ अलग है। यहाँ तो आपको अपना कदम बढ़ाना ही होगा, तभी तो सफलता के रास्ते का सफल आरंभ होगा। अन्यथा खड़े रहें, जहां खड़े हैं और ख्याली पुलाव पकाते रहें। इसलिए यदि आप चाहते हैं कि इतिहास रचें तो कठिनाइयों की न सोचकर कदम बढ़ाएँ, अगुआई करें। कौन जाने एक नया इतिहास आपके ही द्वारा लिखा जाने वाला है।

Tuesday, October 25, 2016

खाने के लिए न जीएँ, जीने के लिए खाएँ


     आयुर्वेद के रचियता महर्षि चरक ने इस ग्रंथ में सभी रोगों की चिकित्सा विधियां, हर प्रकार की औषधियाँ, निरोगी रहने के उपाय आदि का वर्णन किया था। चिकित्सा से संबंधित यह पहला ग्रंथ था, इसलिए प्रचलित भी तेज़ी से हुआ। हर ओर आयुर्वेद के चर्चे हो गए। इसे पढ़-पढ़कर बहुत से लोग आयुर्वेदाचार्य बन गए। लेकिन तब चूंकि संचार के प्रयाप्त माध्यम नहीं थे, अतः चरक को इस बात का पूरी तरह अंदाज़ा नहीं लग पाया था कि लोग किस सीमा तक उनकी बताई पद्धतियों का उपयोग कर लोगों की सेवा कर रहे हैं, उन्हें रोग मुक्त कर रहे हैं।
     एक बार उन्होने सोचा कि यह देखा जाए कि मेरा परिश्रम कितना सार्थक और सफल रहा। इसके लिए उन्होने एक पक्षी का रूप धारण किया और वे उड़कर उस जगह पहुँचे, जहाँ एक साथ कई वैद्य रहते थे। एक वृक्ष पर बैठकर उन्होने पक्षी की आवाज़ में पूछा- "कौररूक?' यानी रोगी कौन नहीं है? एक वैद्य ने यह सुनकर पक्षी की ओर देखा और उसके कहने का आशय समझकर बोला-जो च्यवनप्राश खाता है। दूसरा वैद्य बोला-नहीं, आप गलत कह रहे हो। रोगी वह नहीं है जो चंद्रप्रभा वटी खाता है। तीसरा वैद्य उसे टोकते हुए बोला-नहीं, वही निरोगी और स्वस्थ रह सकता है जो रोज बंग-भस्म खाए। इस पर चौथा बोला-लगता है तुम सबने आयुर्वेद ठीक से नहीं पढ़ा। सारी बीमारियों की जड़ पेट है और जब तक लवण-भास्कर चूर्ण नहीं खाओगे, तब तक पेट ठीक नहीं होगा।
     चरक ने जब ये सब बातें सुनी तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे सोचने लगे कि क्या मैने इस शास्त्र को लोगों के पेट को औषधियों का गोदाम बनाने के लिए लिखा था। मेरा सारा परिश्रम निष्फल हो गया। ये सब मेरी लिखी हुई बातों के वास्तविक अर्थ को जान ही नहीं पाए और ऊपरी तौर पर पढ़कर दुकानदारी चलाने लगे। वे दुःखी होकर दूसरी जगह उड़ गए। इसके बाद वे कई स्थानों पर गए, लेकिन हर जगह अज्ञानता भरी बातों को सुनकर उनकी निराशा और बढ़ती गई। अंत में अत्यंत विषाद भरी अवस्था में वे एक सुनसान जगह पर सूखे वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए थे। वहाँ प्रसिद्ध वैद्य वाग्भट्ट का आश्रम था। पास ही बहती नदी में नहाकर जब वे बाहर आए तो चरक ने उन्हें पहचान कर अंतिम आशा के साथ कहा- "कोररूक?' वाग्भट्ट ने जब यह सुना तो तुरंत बोले- "हितभुक् मितभुक्, ऋत्भुक्।' यानी वह रोगी नहीं है जो ऐसी वस्तुएँ खाए, जो शरीर के लिए अच्छी हों। केवल खाने के लिए न जिए, जीने के लिए खाए। जीभ के स्वाद में फँसकर पेट में कचरा न भरता जाए। चरक यह सुनते ही पेड़ से नीचे उतर आए और अपने असली रूप में आकर वाग्भट्ट से बोले-वैद्यराज! तुम मेरे शास्त्र का सही अर्थ समझे हो।
     दोस्तो! आप भी समझ गए होंगे कि अच्छी सेहत के सही नुस्खे क्या हैं। कितनी सही बात है कि केवल खाने के लिए नहीं जिएँ, बल्कि जीने के लिए खाएँ। लेकिन हम क्या करते हैं। हम खाने के लिए ही जीते हैं। हमारा न तो अपनी जीभ पर वश चलता है, न ही अपने पेट पर। स्वाद के लोभ में फँसे हम अपने पेट में न जाने क्या-क्या भरते जाते हैं। हम सोचते ही नहीं कि क्या हमारे लिए अच्छा है और क्या नहीं। बस अपने पेट को डस्टबिन या कचरा पेटी समझकर भरे जाते हैं उलटा-सुलटा। अब उलटे-सुलटे का असर भी तो वैसा ही होगा। और इसका असर पड़ता है हमारे स्वास्थ्य पर। हमारी सेहत बिगड़ती है। हमें लगते हैं तरह-तरह के रोग। क्योंकि जो जगह आपके स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण है, उसे तो आपने कचरा पेटी ही बना दिया है। अब कचरा पेटी में पड़ा सामान तो सड़ता ही है। जब सड़ेगा तो इसकी सड़ांध तो फैलेगी ही। और वह फैलकर प्रभावित करती है आपके शरीर को जो उसका पूरा संतुलन ही बिगाड़ देती है। जब संतुलन बिगड़ता है तो आप डॉक्टरों के पास भागते हैं। अगर वाग्भट्ट जैसे डॉक्टर मिल गए, तब तो ठीक है वरना किसी दुकानदारी करते नीम हकीम के हत्थे चढ़ गए तो वह आपके पेट को ही औषधियों का गोदाम बना देगा और आपको अच्छा करना तोे दूर, उल्टे आपकी हालत और खराब कर देगा। वैसे अच्छे डॉक्टर भी कहाँ तक टेका लगा लेंगे। वे कचरे को साफ करने के लिए दवाएँ देते हैं। ये दवाएँ भी कहीं न कहीं शरीर पर विपरीत असर डालती हैं और इस तरह केवल जीभ पर नियंत्रण न रखने की वजह से आपकी चकरघिन्नी बन जाती है। इसलिए यदि आप इन परिस्थितियों से बचना चाहते हैं तो "फास्ट फूड' संस्कृति के बढ़ते दौर में आज "विश्व स्वास्थ्य दिवस' पर यह प्रण करें कि आप आज से ही अपनी जीभ पर नियंत्रण शुरु कर देंगे। आप जीने के लिए खाएँगे न कि खाने के लिए जिएँगे। सिर्फ वही चीज़ खाएँगे जो शरीर के लिए उपयोगी हो यानी किसी भी चीज़ को खाने से पहले यह सोचेंगे कि इससे हमारे शरीर को क्या लाभ होगा। यकीन मानिए, फास्ट फूट आपके शरीर के लिए किसी भी तरह से उपयोगी नहीं हो सकते। केवल संतुलित आहार ही आपकी सेहत को ठीक रख सकता है। जब आप संतुलित आहार लेंगे तो आपकी सेहत अच्छी बनी रहेगी। अच्छी सेहत आपके मन को भी अच्छा रखेगी, जिससे आपकी कार्यकुशलता प्रभावित नहीं होगी और तब आप अपने सारे सपने पूरे कर पाएँगे। क्योंकि सपने पूरे करने के लिए आपको स्वस्थ और प्रसन्न चित रहना ज़रूरी है।

Thursday, October 20, 2016

लेन-देन ठीक हो तो लेने के देने न पड़ें


     नेपोलियन बहुत ही कर्मठ सम्राट था। वह खुद भी जमकर मेहनत करता था और दूसरों से भी करवाता था। एक रात सारे काम निपटाने के बाद जब वह खिड़की पर आकर खड़ा हुआ तो उसकी नज़र अपने दफ्तर के कमरे से आ रही रोशनी पर पड़ी। उसने सोचा-कौन इतनी देर तक काम कर रहा है? पता लगाना चाहिए। वह तुरंत दफ्तर पहुँचा। वहाँ जाकर उसने देखा कि उसका एक बड़ा अफसर वहाँ मौज़ूद था। सम्राट को देखकर वह खड़ा हो गया। सम्राट ने पूछा-तुम इतनी देर तक यहाँ क्या कर रहे हो? अफसर बोला-बहुत दिनों से रात में नींद नहीं आ रही थी। इसलिए सोचा कि बेकार में करवटें बदलने से अच्छा है दफ्तर में रुककर काम ही किया जाए। सम्राट बोला-नींद क्यों नहीं आती तुम्हें? क्या परेशानी है? अफसर पहले तो झिझका, लेकिन जोर देने पर बोला-सम्राट! मुझ पर भारी कर्ज़ हो गया है। समय पर चुका न पाने के कारण अब लेनदार परेशान कर रहे है। जिसकी वजह से ही मेरा दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई है। उसकी बात सुनकर नेपोलियन बोला- लेकिन तुम्हारा वेतन तो अच्छा-खासा है, फिर भी कर्ज़दार हो? निश्चित ही तुम फिजूलखर्च होंगे। मैं ऐसे आदमी को नौकरी पर नहीं रख सकता, जो पैसों का सही ढंग से उपयोग करना ही नहीं जानता हो। हो सकता है तुम अपना कर्ज़ चुकाने के लिए राजकीय कोष में भी हेराफेरी कर दो। मैं तुम्हें तत्काल प्रभाव से नौकरी से बर्खास्त करता हूँ।
     यह सुनकर अफसर को तो जैसे साँप सूँघ गया। वह चुपचाप दफ्तर से बाहर निकल गया। उसने बड़ी मुश्किल से रात गुज़ारी। सुबह-सुबह उसके दरवाज़े पर किसी ने आकर दस्तक दी। उसने सोचा कि कोई कर्ज़दार होगा। उसने दरवाज़ा खोला तो सम्राट का एक संदेशवाहक उसके हाथ में एक लिफाफा थमाकर चला गया। बर्खास्तगी का आदेश समझकर उसने लिफाफा खोला, लेकिन उसमें से धनराशि और एक पत्र निकला। पत्र में लिखा था-मैने रात भर तुम्हारे बारे में सोचा और पाया कि तुम्हारी बर्खास्तगी ठीक कदम नहीं, क्योंकि जब तुम मेरे यहाँ नौकरी कर रहे हो तो तुम्हारे परिवार की चिंता करना मेरा कर्तव्य है। इसलिए यह राशि भेज रहा हूँ। इससे अपना कर्ज़ चुका देना और आगे से उतना ही खर्च करना, जितनी तुम्हारी क्षमता है। और हां, दफतर ज़रूर आ जाना।
     कहना न होगा कि इस घटना के बाद वह अफसर हमेशा के लिए अपने सम्राट का मुरीद हो गया, क्योंंकि सम्राट ने अपना कर्तव्य सही तरीके से जो निभाया था। एक मालिक का अपने कर्मचारियों के प्रति वह दृष्टिकोण होना चाहिए, जो नेपोलियन का अपने अफसर के प्रति था। क्योंकि कोई भी व्यक्ति जब पूरी वफादारी, लगन और अपने पन की भावना के साथ किसी संस्था के लिए दिन-रात काम करता है तो उसे भी संस्था से कुछ अपेक्षा रहती है कि वह संस्था भी उसके सुख-दुःख में उसके साथ खड़ी रहे। जब संस्था ऐसा करती है तो कर्मचारी के अंदर भी संस्था के प्रति समर्पण की भावना और अधिक मजबूत होती है। इसका सीधा लाभ संस्था को होता है। इसलिए यदि आप व्यवसायी हैं तो समय-समय पर अपना कर्मचारियों के लिए कुछ-न-कुछ अच्छा करने की सोचें। हम यह नहीं कह रहे कि सहयोग धन से ही करें, प्यार के दो मीठे बोल भी काफी होते हैं, बशर्ते ये बोल दिल से बोले जाएँ। ये तो लेन-देन की बात है। जैसा आप दूसरों को देंगे, वैसा ही आपको भी मिलेगा। इसलिए यदि आपका अपने कर्मचारियों के साथ व्यवहार ठीक है तो फिर निश्चित ही आपको अपने व्यवसाय में कभी तकलीफ नहीं आएगी।

Monday, October 17, 2016

बोलोे मगर बोलने से पहले तोलो


     एक बार शेखचिल्ली की तबीअत खराब हो गई। वह हकीम के पास गया। हकीम ने उसे दवाई देते हुए कहा कि अगले कुछ दिन वह सिर्फ खिचड़ी ही खाए। शेखचिल्ली के लिए यह नया शब्द था। उसने पहले कभी खिचड़ी के बारे में नहीं सुना था। उसने सोचा-कहीं रास्ते में यह शब्द भूल न जाऊँ। इसलिए बेहतर यही है कि रास्ते भर "खिचड़ी' का नाम रटते हुए जाऊँ। ऐसा सोचकर उसने हकीम से बिदा ली और जोर-जोर से "खिचड़ी-खिचड़ी' कहता हुआ चल दिया। रास्ते में काफिले को देखने के चक्र में वह रटना भूल गया। दिमाग पर बुहत जोर डालने के बाद उसे "खाचिड़ी' शब्द याद आया। अब वह "खाचिड़ी-खाचिड़ी' रटता हुआ आगेे बढ़ता गया। थोड़ी ही दूर पर एक किसान अपने खेत में बनी मचान पर बैठा चिड़ियों को उड़ा रहा था। शेखचिल्ली की आवाज़ को सुनकर उसने सोचा कि मैं सवेरे से चिड़ियों को भगा रहा हूँ और यह है कि उन्हे मेरा खेत खाने के लिए कह रहा है। वह गुस्से में मचान से उतरा और उसकी धुनाई करने लगा। शेखचिल्ली ने किसान से नाराज़गी का राज़ पूछा। किसान उसे कारण बताते हुए बोला-यदि तूने अब "खाचिड़ी' की जगह "उड़ चिड़ी' रटना शुरु नहीं किया तो मार-मारकर तेरे अंदर भूसा भर दूँगा। शेखचिल्ली ने डरकर उसकी बात मान ली और "उड़ चिड़ी' रटता हुआ आगे बढ़ गया। आगे एक शिकारी जाल बिछाए बैठा था। "उड़ चिड़ी' कहते सुन उसे लगा कि यह चिड़ियों को चेता रहा है। वह चिढ़कर उसे पीटने लगा। शेखचिल्ली बोला-अरे भाई! मुझे पीट क्यों रहे हो? शिकारी बोला-मैं तुझे नहीं पीटूँगा, यदि तू "उड़ चिड़ी' की जगह "फँस चिड़ी' कहना शुरु कर दे। मरता क्या न करता। वह तैयार हो गया और "फँस चिड़ी' कहता हुआ आगे चल दिया। आगे कुछ चोर चोरी करके आ रहे थे। उन्होने शेखचिल्ली की आवाज़ सुनकर सोचा कि यह ज़रूर कोई जासूस होगा, जो हमें पकड़वाना चाहता है। इससे पहले कि यह हमारा नुकसान करे, हम इसे ही सबक सिखा देते हैं। उन्होने उसे पकड़कर पेड़ से उलटा लटका दिया और डंडों से मारने लगे। जल्दी ही वह बेहोश हो गया। चोर मरा समझकर उसे वहीं छोड़कर भाग गए।
     यह है शब्द की महिमा। मुँह से निकला एक-एक शब्द क्या गुल खिला सकता है यह आपने देख ही लिया। तभी तो कहते हैं कि जो भी बोलो सोच-समझकर बोलो। क्योंकि आपके बोले हुए एक-एक शब्द की कीमत बहुत अधिक होती है। लेकिन अधिकतर लोग इस बात को समझते नहीं। उन्हें तो लगता है कि बोलने में क्या जाता है। कौन-सा अपनी जेब से कुछ देना पड़ेगा, इसलिए जो मन में आए बोल दो। यदि आप ऐसा सोचते हैं तो गलत हैं। क्योंंकि सारा खेल बोलने पर ही टिका है, तभी तो ज़बान से निकला एक शब्द भी भारी नुकसान का कारण बन जाता है। क्योंंकि एक बार मुँह से निकला शब्द फिर कभी वापस नहीं आ सकता। फिर भले ही बाद में आप कितनी ही सफाई क्यों न देते फिरें।
     ज़बान पर काबू न रखने वालों के कॅरियर में कई ऐसे क्षण आते हैं जब वे अपने बॉस के सामने खड़े हुए कह रहे होते हैं कि सर, मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। तब बॉस हो सकता है कि आपको नासमझ मानकर माफ कर दे, लेकिन उसके दिमाग में तो वह बात बैठ ही चुकी होगी। और गाहे-बगाहे वह आपको इसका अहसास भी कराता रहेगा। इसलिए कभी भी ऐसी बात मत कहो जिसके लिए बाद में आपको सफाई देनी पड़ जाए।
     दूसरी ओर आपके द्वारा बोली गई बातों से भी आपकी छवि का निर्माण होता है, आपके चरित्र का पता चलता है। इसलिए अपनी कही बात से मुकरना कोई अच्छी बात नहीं। एक-दो बार चलता है, लेकिन यदि आप वाचाल हैं तो फिर अकसर यही गलती करेंगे और मुकरेंगे। इससे आपके चरित्र पर उलटा असर पड़ता है। वैसे भी हम कोई नेता तो हैं नहीं, जो सुबह कही गई बात से शाम को बड़ी ही बेशर्मी से यह कहकर मुकर जाएँ कि मेरी बात को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। हालाँकि राजनीति में भी ऐसे कई नेता आपको मिल जाएँगे, जो एक बार अपनी ज़बान फिसलने के कारण हाशिए पर डाल दिए गए।
     यहाँ गौर करने लायक एक बात और है कि आप जो बोल रहे हैं और जिस रूप में बोल रहे हैं, ज़रूरी नहीं है कि लोग उस बात को उसी रूप में ग्रहण कर रहे हो। देखो न, शेषचिल्ली को खिचड़ी बोलना था और उसे एक शब्द ने अपने रूप बदल-बदल कर उसकी ही खिचड़ी बनवा दी। यानी कहा जा सकता है कि शब्द के बारे में शब्द से ज़्यादा यह महत्वपूर्ण है कि उसे किस रूप में समझा गया है। आप कह कुछ रहे हों, लोग समझ कुछ रहे हों। और हो कुछ का कुछ रहा हो। तो फिर तो गड़बड़ होनी ही है। इसलिए हम तो कहेंगे कि किसी की कही गई कोई बात यदि आपको समझ में नहीं आ रही है तो आगे रहकर एक बार फिर से पूछ लो। पूछने में किस बात की शर्म। क्र्योंकि न पूछकर बाद में जो स्थिति बनेगी वह ज़्यादा शर्मनाक होगी। साथ ही यदि आप कुछ कह रहे हो तो जिसे कह रह हो इससे भी एक बार पूछ लो कि उसने क्या समझा। इससे अर्थ का अनर्थ नहीं होगा। पूछ लोगे तो आपको भी संतुष्टि रहेगी और काम भी वैसा ही होगा जैसा आप चाहते हैं। इसलिए यदि आप बोलने से पहले शब्दों को तोल लोगे तो उन अनजानी विपरीत परिस्थितियों से बच जाओगे जो कि आपके द्वारा कहे गए शब्दों के माध्यम से उत्पन्न हो सकती हैं।

Thursday, October 13, 2016

कान के कच्चे बनो पर दोनों कानों के!


     बहुत समय पहले दंतिल नाम का एक व्यापारी था। उसकी राजा से घनिष्ठ मित्रता थी। जब दंतिल की कन्या का विवाह हुआ तो उसमें राजा सहित राज्य के सभी गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया गया। राजा अपनी रानी के साथ विवाह स्थल पर पहुँचा। दंतिल ने पूरे सम्मान के साथ उनका स्वागत-सत्कार किया और उन्हें ले जाकर नियत स्थान पर बिठा दिया। राजा के साथ गोरंभ नामक एक मुंहलगा सेवक भी आया था। वह राजा से निकटता के चलते खुद को विशिष्ट अतिथि मान रहा था। वह बिना किसी से पूछे विशिष्ट लोगों के लिए तय जगह पर जाकर बैठ गया। दंतिल की नज़र जब उस पर पड़ी तो वह सकते में आ गया, क्योंकि उसकी इस धृष्टता से अन्य अतिथि नाराज़ हो सकते थे। दंतिल ने उसे समझाया। जब वह नहीं माना तो उसने उसे अपने सेवकों की सहायता से बलपूर्वक वहाँ से उठवा दिया।
     गोरंभ यह अपमान सह नहीं पाया, लेकिन वह कुछ कर भी नहीं सकता था, क्योंकि दंतिल राजा का बहुत ही भरोसेमंद मित्र जो था। वह उससे अपने अपमान का बदला लेने का उपाय सोचने लगा। अगले दिन सुबह वह राजा के शयन कक्ष में झाड़ू लगा रहा था। जब उसे लगा कि राजा अभी उनींदे हैं तो वह बड़बड़ाने लगा कि किसी पर भी अंधविश्वास करना अच्छा नहीं होता। महाराज तो भोले हैं। उन्हें पता ही नहीं कि उन्होने जिस दंतिल पर भरोसा, करके उसे निर्बाध अंतःपुर में आने-जाने की छूट दे रखी है, वही कृतघ्न उनकी रानी के साथ क्या रासलीला रचाता है। इसके आगे कि वह कुछ कहता, राजा हड़बड़ा कर उठ बैठा। वह चिल्लाते हुए बोला-क्या बकता है? जो तू कह रहा है, क्या वह सत्य है? गोरंभ बनावटी चेहरा बनाकर बोला-जी, क्या मैने कुछ कहा। क्षमा चाहूँगा महाराज! कल रातभर मैं जुआ खेलता रहा। अब मुझे नींद के झोंके आ रहे हैं। इसी में कुछ बड़बड़ा रहा होऊँगा। ऐसा कहकर वह तो चला गया, लेकिन राजा के मन में शक का बीज बो गया। राजा सोचने लगा कि सोता आदमी वही बड़बड़ाता है, जो मन में हो। निश्चित ही उसने यह सब देखा होगा, तभी कह रहा है। राजा को उसकी बातों पर इतना विश्वास हो गया कि उसे अपना दोस्त दगाबाज़ लगने लगा। उसने दंतिल से उसका पक्ष जाने बिना ही महल में उसके आने-जाने पर प्रतिबंध लगा दिया।
     दंतिल को जब इस बात का पता चला तो उसे आश्चर्य हुआ। उसे अपने मित्र के बदले हुए व्यवहार का कारण समझ में नहीं आया। उसने सोचा ज़रूर कोई गलतफहमी है, जाकर दूर करना चाहिए। वह राजमहल पहुँचा। वहां द्वारपालों ने उसे रोक दिया। गोरंभ वहीं झाड़ू लगा रहा था। दंतिल को देखकर वह बोला-द्वारपालों यह तुम क्या कर रहे हो। ये राजा के अभिन्न मित्र हैं। ये तो किसी का भी मानमर्दन कर सकते हैं। तुम इन्हें रोको मत। उसकी बात से दंतिल को समझ में आ गया कि वह उससे अपने अपमान का बदला ले रहा है। वह घर पहुँचा और शाम को उसने गोरंभ को बुलाकर पूरे सम्मान के साथ भोजन कराया और अनेक उपहार दिए, साथ ही अपने व्यवहार के लिए खेद प्रकट किया। इससे गोरंभ की सारी नाराज़ी दूर हो गई। वह बोला-श्रेष्ठि! मैं आपको दिखाता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ। अगले दिन सुबह राजा के कक्ष में झाड़ू लगाते समय वह फिर बड़बड़ाने लगा- हमारा राजा भी कैसा मूर्ख है। शौचालय में ककड़ी खाता है। कोई देख ले तो क्या सोचे। उसकी बात सुनकर राजा तुरंत उठ बैठा। वह चिल्लाया-क्या बकता है! ये सरासर झूठ है। इस पर गोरंभ पहले की तरह बहाना बनाकर चला गया। राजा सोचने लगा कि मैने इस मूर्ख की बे-सिर-पैर की बातों में आकर बेकार ही अपने मित्र पर अविश्वास किया। उसने तुरंत दंतिल को बुलाकर अपने आचरण के लिए दुःख प्रकट किया।
     दोस्तों, इसीलिए कहते हैं कि अपने सच्चे मित्र पर अविश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह दोस्ती के लिए ज़हर की तरह होता है। यदि शक है तो सामने वाले से पूछ लो। हो सकता है वह बेबुनियाद हो। यदि राजा पहले ही दंतिल से पूछ लेता तो बात वहीं खत्म हो जाती। लेकिन वह तो कान का कच्चा था। ऐसा कैसे करता? कान के कच्चे लोग अकसर किसी की भी ऊलजुलूल बात पर विश्वास करके फैसले ले लेते हैं और फिर परेशानी में फँस जाते हैं। बाद में ये बातें बहुधा गलत ही साबित होती हैं, क्योंकि हो सकता है किसी ने आपके कान भरे हों। इसलिए कहा गया है कि व्यक्ति को कान का कच्चा नहीं होना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं कि आप कोई बात ही न सुनें। सब सुनें, लेकिन फैसला लेने से पहले सिक्के के दूसरे पहलू को भी तो देख लें। इससे केवल एक पक्ष की बात पर यकीन करके आप गलत निर्णय लेने से बच जाते हैं। यह बात किसी संस्था में निर्णायक पदों पर बैठे लोगों को विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि कई बार वे इसी कारण से गलत फैसले ले लेते हैं।
     दूसरी ओर यदि आपको कान के कच्चे बने रहने में ही फायदा नज़र आता है तो बने रहो कान के कच्चे, लेकिन दोनों कानों के, एक कान के नहीं। यानी घुमा-फिराकर बात वही कि दोनों कानों से दोनों पक्षों की सुनो, तभी आप सही फैसले ले पाएँगे। एक बात और एक विश्वासपात्र सेवक क्या गुल खिला सकता है, यह तो आपने देख ही लिया। अतः सभी को यथोचित सम्मान दो, चाहे वह मालिक हो या सेवक। तभी कोई भी आपकी प्रगति में बाधक नहीं बनेगा।

Sunday, October 9, 2016

उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई?


  1.      विश्व प्रसिद्ध "मोनालिसा' को चित्रित करने वाले इटली के विख्यात चित्रकार लियोनार्दो द विंची को कौन नहीं जानता। एक बार वे अपनी एक और चर्चित पेंटिंग "द लास्ट सपर' या "अंतिम भोज' की तैयारी में लगे थे। इस पेंटिंग में उन्हें ईसा मसीह के जीवन का वह दृश्य चित्रित करना था जिसमें कि वे अपने 12 शिष्यों के साथ अपना अंतिम भोज करते हुए दिखाई दें। इस पेंटिंग के लिए उन्हें ऐसे चेहरों की तलाश थी जिन्हें देखकर लगे कि वे सभी ऐसे ही रहे होंगे।
         उन्होने तलाश शुरु की। सबसे पहले उन्होने यीशु के लिए सैंकड़ों मॉडल का साक्षात्कार लिया। इसके लिए उन्हें ऐसे चेहरे की तलाश थी, जो देखने पर मन में साक्षात ईश्वरत्व का भाव पैदा करता हो, जो बेदाग व अत्यंत मनमोहक हो। बहुत परिश्रम के बाद वे अंततः ऐसा चेहरा ढूँढने में कामयाब हो ही गए। उन्हें 19 वर्षीय पियोत्रा के चेहरे में यीशु-नज़र आए और उन्होने उसे सामने बैठाकर पेंटिंग बनानी शुरु कर दी। इस महत्वपूर्ण पात्र को चित्रित करने में विंची को छह माह लगे। इसके बाद उन्होने मेहनताना देकर उसे विदा कर दिया। अब वे यीशु के शिष्यों को चित्रित करने लगे।
         एक शिष्य को छोड़कर बाकी 11शिष्यों को चित्रित करने में उन्हें छह वर्ष लग गए। अंत में बारी थी "जूडस' की। यानी वो शख्स जिसकी धोखेबाजी से यीशु को सूली पर चढ़ना पड़ा। इस पात्र के लिए विंची को एक क्रूर, निर्दयी, अपराधी, विश्वासघाती, दुष्ट व्यक्ति के चेहरे की तलाश थी। इसके लिए वे जगह-जगह भटके। अंत में रोम की एक जेल में मृत्युदंड की सजा पा चुके एक अपराधी का चेहरा विंची को जूडस को उपयुक्त लगा। उन्होने रोम के सम्राट से उसकी सजा कुछ समय आगे बढ़ाने का निवेदन किया ताकि वे अपनी पेंटिंग पूरी कर सकें। उनके जैसे कलाकार की बात सम्राट टाल न पाए और उन्हें अनुमति मिल गई।
         विंची उस अपराधी को रोज़ घंटों सामने बैठाकर अपनी पेंटिंग पूरी करने लगे। महीनों बाद पेंटिंग पूरी होने पर उन्होने अपराधी की चौकसी में लगे सिपाहियों से कहा-मेरा काम खत्म  हुआ। अब तुम इसे वापस ले जा सकते हो। इस पर जैसे ही सिपाही अपराधी की ओर बढ़े, वह तेज़ी से उठा और विंची के पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगा-"ओ विंची! मुझे इन लोगोंं से बचाओ। पहचानों, मैं कौन हूँ। कहते हैं कलाकार तो एक झलक में आदमी को पहचान लेता है, फिर तुम धोखा कैसे खा सकते हो? उसकी बातें विंची को समझ में नहीं आई। वे उसे झिड़कते हुए बोले- दूर रह, तुम खूनी हो। मैं तुम्हें कैसे जान सकता हूँ। इस पर अपराधी बोला-हे भगवान क्या मेरे कर्मों के साथ मेरा चेहरा भी बदल गया है? ध्यान से देखो विंची, तुम मुझे ज़रूर पहचान लोगे। इसके बाद भी जब विंची उसे नहीं पहचान पाए तो वह बोला- विंची, मैं वही मॉडल हूँ जिसके साथ छह साल पहले तुमने यीशु का चित्र बनाया था। विंची ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। वह फिर बोला- हाँ, मैं वहीं हूँ।
         साथियो, यह एक सत्य घटना है। यह घटना हमें बताती है कि मनुष्य के कर्म ही उसके व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। जब कर्म श्रेष्ठ हों और व्यक्ति सद्गुणों की खान हो तो उसका चेहरा भी दमकता है। लोग ऐसे चेहरों की ओर खिंचे चले आते हैं। लेकिन जब वही सद्कर्म दुष्कर्म में बदलते हैं तो सद्गुणों की जगह अवगुण ले लेते हैं। तब व्यक्ति के व्यक्तित्व व चरित्र में आए बदलाव का असर उसके चेहरे पर भी पड़ता है और वह कांतिहीन नज़र आने लगता है, क्योंकि उसके चेहरे का पानी उतर गया होता है। ऐसे चेहरे को लोग दूर से ही सलाम करते हैं।
         लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसा संभव है कि एक ही व्यक्ति के चेहरे में इतना अंतर आ जाए कि विंची जैसा कलाकार भी उसे न पहचान पाए। और यदि वह संभव है तो कैसे? तो हम कहेंगे कि हाँ, यह बिलकुल संभव है। बड़ी ही सामान्य-सी बात  है कि व्यक्ति के चेहरे पर आभा के होने या न होने का संबंध उस पर चढ़े लज्जा के आवरण से है। जब व्यक्ति अपने चेहरे पर लज्जा का आवरण ओढ़े रहता है तो उसका चेहरा दमकता है और जब यह आवरण उतर जाता है यानी जब व्यक्ति लज्जा खो देता है तो उसका चेहरा निश्चित ही बदल जाता है। कहते भी हैं कि जब मनुष्य लज्जा त्याग देता है तो वह अपनी सुंदरता का सबसे बड़ा आक्रषण खो देता है। इसके बाद व्यक्ति बेशर्म हो जाता है क्योंकि जब शर्म ही चली जाएगी तो फिर शेष क्या रह जाता है। इसके बाद तो फिर व्यक्ति अपने कर्मों से निरंतर पतन की गर्त में गिरता चला जाता है। फिर न तो उसे अपनी परवाह होती है और न समाज की। ऐसे निर्लज्ज लोगों का कोई कुछ नहीं कर पाता। कहते हैं न कि उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई?
         इसलिये यदि हम चाहते हैं कि हमारा भी चेहरा हमेशा कांतिवान व आकर्षक बना रहे तो हमें अपने चेहरे व व्यक्तित्व दोनों से ही लज्जा का आवरण नहीं उतरने देना चाहिए। यही हमारे चेहरे का वास्तविक एवं सर्वोत्तम आभूषण होता है। जब आपके चेहरे पर यह आभूषण होगा तो लोग आपकी ओर खिंचे चले आएंगे यानी आप लोगों के प्रिय बने रहेंगे। जब लोगों के प्रिय रहेगें तो फिर सफल भी बनेगे ही।

Tuesday, October 4, 2016

हार मत मानो, निरंतर प्रयास करते रहो


     एक बार दो राजाओं में युद्ध छिड़ गया। आक्रमणकारी राजा की सेना का मुकाबला दूसरे राजा ने पूरे साहस के साथ किया, लेकिन दुश्मन की बड़ी सेना के सामने उसकी सेना के पाँव जल्दी उखड़ गए। पराजित राजा जैसे-तैसे अपनी जान बचाकर जंगल में भाग गया। चलते-चलते जब वह थककर चूर हो गया तो एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। निराशा ने उसे इस कदर घेर रखा था कि उम्मीद की कोई भी किरण दिखाई नहीं देती थी।
     वह सोच रहा था कि इतनी बड़ी सेना का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार उसके मन में तरह-तरह के नकारात्मक विचार उठ रहे थे कि अचानक उसकी नज़र सामने के टीले पर पड़ी। उसने देखा कि एक छोटी-सी चींटी अपने से कई गुना बड़े आकार का दाना लेकर टीले पर चढ़ने का प्रयास कर रही है और असफल होकर हर बार नीचे गिर रही है। उसने देखा कि लगातार प्रयास करते-करते चींटी अंततः टीले पर चढ़ने में सफल हो ही गई और उसने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया। चींटी के इस आचरण से राजा को आत्मग्लानि हुई। वह सोचने लगा कि मुझसे तो यह चींटी ही श्रेष्ठ है जिसने लगातार प्रयास कर अंततः सफलता हासिल कर ही ली। मुझे भी हिम्मत न हारते हुए ऐसा ही करना चाहिए। चींटी की सीख ने राजा में नई स्फूर्ति भर दी। उसने गुपचुप तरीके से राज्य के देशभक्त शूरवीरों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने बहुत बड़ी सेना तैयार कर ली। राजा ने अपनी सेना के प्रशिक्षण के लिए उन सैनिकों को चुना जो दुश्मन की सेना का मुकाबला कर चुके थे। राजा का मानना था कि उसके ये सैनिक भले ही पराजित हो गए हों, लेकिन इस दौरान वे दुश्मन की युद्धकलाओं से परिचित हो चुके थे। इसलिए वे दुश्मन का सामना करने के तरीके नए सैनिकों को सिखा सकते थे।
     इसके बाद एक दिन उचित समय देखकर राजा ने दुश्मन पर हमला कर दिया। विपक्षी सेना के सारे दाँव खाली जाने लगे, क्योंकि राजा की सेना पहले से ही प्रशिक्षित थी। शीघ्र ही विरोधी सेना भाग खड़ी हुई और राजा ने अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। इसके बाद राजा जब अपने सिंहासन पर बैठा होगा ते उसे उस चींटी की याद ज़रूर आई होगी जो उसके लिए किसी गुरु से कम न थी जिसके दिए "गुरुमंत्र' के सहारे ही वह पुनः अपना राज्य प्राप्त कर पाया।
     वैसे इस तरह की घटनाओं का सामना जीवन में किसी न किसी रूप में हर व्यक्ति को करना होता है। अकसर हम अपने प्रतिद्वंदी के "आकार' को देखकर ही हिम्मत खो देते हैं यानी बिना प्रयास किए ही मन ही मन हार मान लेते हैं। जबकि हमें हर स्थिति का डटकर मुकाबला करना चाहिए। यदि प्रतिद्वंद्विता में हम एक बार असफल हो ही जाएँ तो भी निराश होने की ज़रूरत नहीं। सिर्फ उस चींटी को याद कर लें जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्न करती रहती है। आप चाहें तो उसे अपने आसपास ही कहीं देख सकते हैं। निरंतर प्रयास का यह जज़्बा हम सभी में होना ही चाहिए। तो किसी भी स्थिति में हार मत मानों, निरंतर प्रयास करते रहो। एक दिन जीत आपकी ही होगी।

Saturday, October 1, 2016

सफलता के लिए ज़रूरी है संघर्ष


     व्यावहारिक ज्ञान की कक्षा में एक शिक्षक अपने छात्रों को समझा रहे थे कि जीवन में संघर्ष करना बहुत ज़रूरी है क्योंकि बिना संघर्ष के सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। इसलिए हमें कभी संघर्ष करने से पीछे नहीं हटना चाहिए। साथ ही यह प्रयास करें कि संघर्ष के दौरान किसी की मदद न लेनी पड़े। क्योंकि मदद लेने वाला हमेशा दूसरों पर आश्रित हो जाता है। और आश्रित व्यक्ति का अपना कोई वजूद नहीं होता। अतः हम अपने प्रयत्नों से ही सफलता हासिल करना सीखें। इस पर एक छात्र बोला-सर, आप कह रहे हैं कि सफलता के लिए किसी का सहारा मत लो। लेकिन इसमें मुझे तो कोई बुराई नज़र नहीं आती। आखिर सफलता तो सफलता है। शिक्षक बोले-नहीं, ऐसा नहीं है। संघर्ष क्यों ज़रूरी है, यह मैं तुम्हें कल समझाऊँगा।
     अगले दिन शिक्षक अपने साथ तितली के दो कोकून लेकर आए। वे बोले-बच्चों, कुछ समय बाद इन दोनों कोकून में से तितलियाँ बाहर निकलेंगी। तब हम जानेंगे कि जीवन में संघर्ष का कितना महत्व है। छात्र उत्सुकता से कोकूनों पर नज़र गड़ाकर बैठ गए। कुछ समय बाद एक कोकून में हलचल शुरू हुई। तितली उसमें से निकलने के लिए छटपटाने लगी। वह पूरी शक्ति कोकून को तोड़ने का प्रयास कर रही थी। इतने में शिक्षक ने प्रश्न करने वाले छात्र से कहा कि तुम इसकी बाहर निकलने में सहायता नहीं करोगे? छात्र तो यही सोच रहा था, उसने तुरंत कोकून को हलके से तोड़ दिया। तितली बिना किसी संघर्ष के बाहर आ गई। और उड़ने की कोशिश करने लगी। लेकिन उसके पंख उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। अंततः अनेक प्रयत्नों के बाद भी वह उड़ नहीं पाई। इस बीच दूसरे कोकून में भी हलचल शुरू हो चुकी थी। छात्र ने जैसे ही उसे तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो शिक्षक ने उसे रोक दया। और तितली ने बाहर आने के लिए काफी संघर्ष किया और वह सफल हो गई। उसके बाद उसने अपने पँख फड़फड़ाए और तुरंत ही खिड़की से बाहर निकलकर एक फूल पर जा बैठी।
     यही है जीवन में संघर्ष करने का फायदा। प्रकृति का नियम है कि कोकून से बाहर आने के दौरान किए गए संघर्ष से ही तितली के पँखों को मजबूती मिलती है और वह उड़ने के काबिल हो पाती है। यदि आप यह संघर्ष उससे छीन लोगे तो उसे एक तरह से अपाहिज ही बना दोगे। फिर वह फूल तक नहीं जा पाएगी। यानी एक बार संघर्ष के दौरान सहायता लेने की आदत पड़ गई तो फिर आप कुछ कर ही नहीं सकते और हमेशा आपको सहारे की ज़रूरत पड़ती रहेगी, अन्यथा आप कुछ नहीं कर पाएँगे और खत्म हो जाएँगे। यही उस तितली के साथ हुआ। शायद इसीलिए कहते हैं कि संघर्षों के बाद मिली सफलता ही अधिक टिकाऊ होती है। इसलिए आगे से संघर्ष के दौरान अपनों की सहायता करने से पहले सोच लें कि कहीं ऐसा कर आप उसे अपाहिज तो नहीं बना रहे हैं।
     प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जब एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ मची हो तो यह बात और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। फिर हम आपकी बात करें या आपकी संस्था की। दोनों ही स्थितियों में संघर्ष ज़रूरी है। देखा गया है कि वे ही लोग जीवन में अधिक सफल होते हैं, जो संघर्षों के दौर से गुज़रे होते हैं। क्योंकि संघर्षों के दौरान उन्होने जीवन के हर रंग को देखा होता है, भोगा होता है। संघर्ष उन्हें न केवल कठिनाइयों से पार पाने में सहायता करता है बल्कि उन्हें ज़मीन से भी जोड़े रखने में सहायता करता है।
     यानी जिसने जगह-जगह की खाक छानी हो, जी-तोड़ मेहनत की हो, उसे सफल होने में कोई नहीं रोक सकता। क्योंकि उसने संघर्ष के दौरान अपने काम में आने वाली कठिनाइयों से निपटने में निपुणता जो हासलि कर ली होती है।

Saturday, September 24, 2016

दुरपयोग न करें पद व सुविधाओं का


     चंद्रगुप्त के मगध के सिंहासन पर बैठने के बाद चाणक्य महामंत्री बनकर राजकाज में उनका हाथ बँटाने लगे। वे राजनीति व अर्थशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। एक बार चीन का राजदूत चंद्रगुप्त से मिलने आया। वह बहुत ही शाही प्रवृत्ति का अहंकारी व्यक्ति था
और पूरे राजसी ठाठबाट से रहने का आदी था। उसने चाणक्य से भेंट का समय माँगा। चाणक्य चूंकि बहुत ही व्यस्त रहते थे, इसलिए उन्होने रात्रि में मिलनेे का समय दिया।
     राजदूत नियत समय पर चाणक्य से मिलने पहुँचा। वहाँ जाकर उसने देखा कि जिस व्यक्ति से वह भेंट करने आया है, वह तो एक साधारण-सी-कुटिया में रहता है। उसे बहुत आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगा कहीं वह गलत आदमी से मिलने तो नहीं आ गया। ऐसा सोचता हुआ वह कुटिया के अंदर पहुंचा। वहां एक दीए की लौ के सामने बैठे चाणक्य कुछ पढ़ रहे थे। राजदूत की हैरानी और बढ़ गई। वह सोच रहा था कि महान सम्राट चंद्रगुप्त का महामंत्री चाणक्य छोटे-से दीए की लौ में अपनी आँखें फोड़ रहा है। इससे तो मैं अच्छा हूँ। एक राजदूत होकर भी सभी राजसी सविधाएं मुझे प्राप्त हैं।
     इस बीच चाणक्य की दृष्टि राजदूत पर पड़ी। उन्होने उठकर उसका अभिवादन किया और आसन ग्रहण करने को कहा। इसके पहले कि उन दोनों के बीच वार्तालाप प्रारंंभ हो, चाणक्य ने एक दूसरा दीया जलाया और पहले वाले दीए को बुझा दिया। राजदूत की समझ में यह बात नहीं आई। इसके पहले कि वह कुछ पूछता, उनके बीच औपचारिक बातें शुरू हो गई। उसने दोनों देशों के आपसी संबंधों और राजनीति पर बहुत-सी बातें चाणक्य से की। अंत में जब उनकी बातें खत्म हो गर्इं तो चाणक्य ने पहले वाला दीया फिर से जला दिया और जो जल रहा था, उसे बुझा दिया। अब तो राजदूत से रहा नहीं गया। उसने चाणक्य से दीया जलाने-बुझाने का रहस्य पूछा।
     चाणक्य ने कहा-कोई विशेष बात नहीं। जब आप यहाँ आए थे, तब मैं स्वाध्याय कर रहा था। उस समय जो दीया जल रहा था, वह मेरा व्यक्तिगत था। यानी अपने काम के लिए मैं अपने दीए का उपयोग कर रहा था। जब मैं आपसे बातचीत करने लगा तो मैने अपना दीया बुझाकर दूसरा दीया जला दिया। यह काम राजकीय था, इसलिए राजकीय दीया जलाना ज़रूरी था। जब मैं स्वाध्याय कर रहा था, तब मैं चाणक्य था और जब आपसे चर्चा कर रहा था, तब महामंत्री चाणक्य था। मैं महामंत्री और आम आदमी के बीच का अंतर और उनके उत्तरदायित्व अच्छी तरह समझता हूँ। चाणक्य की बात सुनकर चीन का राजदूत पानी-पानी हो गया। उसका सारा अहंकार जाता रहा। वह चाणक्य से बोला-महात्मन्! आपके जैसे महापुरुष से मिलकर मैं धन्य हो गया। आज आपने मुझे राजनीति का सबसे बड़ा पाठ सिखा दिया। राजनेता को अपने पद और सुविधाओं का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।
     चीनी राजदूत तो चाणक्य से राजनीति की शिक्षा लेकर अपने देश लौट गया, लेकिन विडम्बना यह है कि उसके देश के अधिकांश राजनेता आज तक राजनीति का यह पाठ नहीं सीख पाए। सवाल यह उठता है कि क्या यह बात सिर्फ राजनेताओं तक ही सीमित है? नहीं, बिलकुल नहीं। यह हम सभी पर लागू होती है। हममे से कितने लोग ऐसे हैं, जो अपनी संस्था द्वारा दी जा रही सुविधाओं का दुरुपयोग नहीं करते। निश्चित ही बहुत कम हैं। मुफत की सुविधाओं का तो हम बिना सोचे-विचारे उपभोग करते हैं, उन्हें बर्बाद करते हैं। इस प्रकार जाने-अनजाने में संस्था की संपत्ति को नुकसान पहुँचाते हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि ये सुविधाएँ उन्हें इसलिए दी जाती हैं ताकि इनके अभाव के कारण उनका कार्य प्रभावित न हो। जब आप इनका दुरुपयोग करेंगे तो इसका तात्कालिक असर आप पर भले ही न पड़े, लेकिन इसके दूरगामी परिणामों से आप बच नहीं सकते। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि प्रबंधन की नज़र में आपका चारित्रिक ग्राफ गिरता है। इसकी जगह जो लोग इन बातों को ध्यान में रखकर व्यवहार करते हैं, प्रबंधन की नज़र में वे ऊपर चढ़ते हैं और तरक्की पाते है। इस प्रसंग में चाणक्य ने हर स्थिति में एक ही दीये से काम चलाया। क्यों? क्योंकि जहाँ एक दीये के प्रकाश से काम चल सकता है, वहाँ अतिरिक्त दीये जलाकर ऊर्जा का दुरुपयोग करने का क्या लाभ।

Wednesday, September 21, 2016

शिष्य की गढ़त


     स्वामी रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को हमेशा एक माँ की तरह ही स्नेह से रखते थे। वे अपने शिष्यों के साथ खेलते, हँसी-ठिठोली करते, भोजन करते और अपने स्वभावानुसार बहुत ही सहज तरीके से उन्हें व्यावहारिक व आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा भी देते। उनके शिष्य भी अपने गुरु के प्रति पूरी तरह समर्पित थे।
     एक बार उनका निरंजन नामक शिष्य नाव में बैठकर गंगा पार कर रहा था। नाव में और भी लोग सवार थे। अचानक दो व्यक्ति रामकृष्ण के बारे में बातें करने लगे। एक बोला-तुमने रामकृष्ण को देखा है? वह पागलों की तरह व्यवहार करता है। इस पर दूसरा व्यक्ति बोला-नहीं, देखा तो नहीं, लेकिन सुना ज़रूर है। सुनते हैं कि एक पहलवान से ज्यादा खुराक है उसकी। उन दोनों से अपने गुरु की निंदा सुनकर निरंजन को क्रोध आ गया। वह उन्हें टोकते हुए बोला- हे महाशय! सुनो, उनके बारे में अब एक शब्द भी उलटा मत बोलना। मैं उनका शिष्य हूँ, मैं जानता हूँ वे क्या हैं। वे पहुँचे हुए महात्मा हैं।
     इस पर एक व्यक्ति बोला-तुम भी पागल हो जो उस पागल की बातें मानते हो। उसकी बात सुनकर निरंजन का क्रोध और बढ़ गया। वह चेतावनी देते हुए बोला-यदि तुमने मेरे गुरु के विरुद्ध अब एक शब्द भी बोला तो मैं तुम्हें उठाकर नदी में फेंक दूँगा। बात बढ़ती देख अन्य यात्रियों ने बीच-बचाव करके जैसे-तैसे मामला शांत किया। जब निरंजन अपने गुरु के पास पहुँचा तो उसने नाव वाली घटना उन्हें बताई। उसकी बात सुनकर रामकृष्ण बोले- तुम्हें इतनी-सी बात पर इतना अधिक नाराज़ होने की क्या आवश्यकता थी? क्या उनके कहने का मुझ पर कोई असर हुआ? तुम्हें कभी भी दूसरों के द्वारा कही गई अनर्गल बातों को सुनकर अपना आपा नहीं खोना चाहिए। हमेशा हर स्थिति में अपना संतुलन बनाकर रखना चाहिए। निरंजन ने गुरु की बात को अपने मन में उतार लिया और बात आई-गई हो गई।
     इस घटना के कुछ समय बाद स्वामी जी का जोगिन नामक एक और शिष्य कहीं खड़ा था कि अचानक उसके पास ही खड़े दो व्यक्ति रामकृष्ण का उपहास उड़ाने लगे, लेकिन जोगिन ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। वह चुपचाप खड़ा उनकी बातें सुनता रहा। वैसे भी वह बहुत ही शांत व शर्मीला प्रकृति का युवक था। बाद में जब रामकृष्ण को इस बात का पता चला तो उन्होने जोगिन को बुलाकर समझाया-पुत्र! जब वे लोग तुम्हारे गुरु का, अनादर कर रहे थे तो तुमने मेरे पक्ष में एक शब्द भी नही कहा। क्या तुम्हारे मन में मेरे लिए इतनी ही श्रद्धा व सम्मान है? जोगिन को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसे भविष्य में इसे न दोहराने का विश्वास दिलाया।
     जब यह घटना निरंजन को पता चली तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। उसे समझ में ही नहीं आया कि गुरु ने उसे कुछ और कहा और जोगिन को कुछ और! यह बात उसने अपने गुरुभाई नरेन को बताई तो उसने उसे समझाया अरे! तुम्हें इतनी-सी बात समझ में नहीं आई। जानते नहीं, वे हम सभी का व्यक्तित्व सुधार रहे हैं। तुम्हारा स्वभाव बहुत ही तेज़ है। तुम ज़रा सी बात पर गर्म हो जाते हो, तो वे चाहते हैं कि तुम शांत रहना सीखो। उधर जोगिन एकदम दब्बू व डरपोक है।  उसकी हिम्मत ही नहीं होती किसी के सामने मुँह खोलने की। इसलिए गुरु जी चाहते हैं कि उसके व्यवहार में थोड़ी दृढ़ता आए, जिससे कि उसकी कायरता दूर हो। निरंजन को नरेन की बात समझ में आ गई। कैसे न आती समझ में, जब समझाने वाला अपने गुरु का प्रिय शिष्य नरेन हो, जिसे बाद में दुनियाँ ने स्वामी विवेकानंद के रुप में जाना।
     ऐसे होते हैं सच्चे गुरु, जो अपने शिष्यों के व्यक्तित्व की छोटी-छोटी कमियों पर भी बड़ी बारीकी से ध्यान देते हैं। और न केवल ध्यान देते हैं, बल्कि बड़ी ही सहजता से उन्हें दूर कर उनके व्यक्तित्व में निखार लाते हैं। जहाँ तक रामकृष्ण जी की बात है, तो उन्हें बचपन से ही मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने का बड़ा शौक था। वे मिट्टी को बड़ी ही कोमलता से ढालकर ऐसी मूर्ति गढ़ते थे कि लगता था कि साक्षात् देव खड़े हों। उन्होने अपने शिष्यों को भी इसी कोमलता के साथ गढ़कर सामान्य पुरुष से महापुरुष के रूप में परिवर्तित कर दिया। इसीलिए शायद गुरु की तुलना कुम्हार से की गई है जो अपने कुंभ रूपी शिष्य को कोमलता के साथ पीट-पीटकर मनचाहे आकार में ढाल देता है। यही स्वामी रामकृष्ण ने भी किया। स्वामी जी का जीवन व्यवहारिकता का एक आदर्श उदाहरण है। वे हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि ज्ञान विकसित होकर विवेक में परवर्तित होना चाहिए, तभी उसके माध्यम से जीवन में आनंद की प्राप्ति संभव है।

Friday, September 16, 2016

विचारों का प्रभाव


     बहुत समय पूर्व एक गाँव में एक सीधी-सादी वृद्धा रहती थी। उसकी इकलौती बेटी का विवाह पास के ही एक गाँव में हुआ था। एक बार उसकी इच्छा अपनी बेटी से मिलने की हुई। उसने अपना सामान एक पोटली में बाँधा, जिसमें उसने बेटी के लिए अपने हाथ से बनाए पापड़, अचार आदि भी रख लिए और सिर पर रखकर बेटी से मिलने पैदल चल पड़ी।
     पोटली का बोझ और तपती धूप के कारण वह जल्दी ही थक गई। वह मन ही मन सोचने लगी-काश! उसकी सहायता के लिए कोई राहगीर मिल जाए। वह सोच ही रही थी कि उसे तेज़ी से आता हुआ एक घुड़सवार दिखाई दिया। उसे देखते ही वृद्धा हाथ हिलाते हुए पुकारने लगी-"अरे ओ बेटा! ओ घोड़े वाले। ज़रा सुन तो बेटा। इस वृद्धा की सहायता कर। उसकी आवाज़ सुनकर घोड़े वाला रुक गया। उसने पूछा-क्या है बुढ़िया। क्यों शोर मचा रही है? कौन सी आफत आ गई है तेरे ऊपर, जो सहायता के लिए मुझे पुकार रही है। उसकी बात सुनकर वह बोली-नाराज़ न हो बेटा। मैं पास वाले गाँव में जा रही हूँ। चलते-चलते और पोटली के वजन से थक गई हूँ। तू यदि उसी तरफ जा रहा हो तो मुझे भी अपने घोड़े पर बैठाकर ले चल। इस पर युवक बोला-अरे, मैं तुझे कहाँ बैठाऊँगा अपने घोड़े पर। जगह ही कहाँ है? देखती नहीं इस पर कितना समान लदा है। तब वह बोली-कोई बात नहीं बेटा, तो फिर तू मेरी पोटली ही अपने घोड़े पर रख ले जा। मैं पीछे-पीछे आ रही हूँ। वहाँ आकर इसे ले लूंगी।
     वृद्धा की बात सुनकर वह घुड़सवार बोला-क्या बात करती है बुढ़िया। तू पैदल है और मैं घोड़े पर। मैं तो वहाँ फटाफट पहुँच जाऊंगा और तू पीछे-पीछे न जाने कब पहुँचेगी मैं कब तक तेरा इंतज़ार करूँगा? ऐसा कहकर वह उसे झिड़कते हुए आगे बढ़ गया। वह कुछ ही दूर पर पहुँचा होगा कि उसके मन में विचार आया-कितना मूर्ख हूँ मैं। वह मुझे अपनी पोटली दे रही है और मैं उसे मना कर रहा हूँ। हो सकता है पोटली में कोई कीमती सामान हो। कहीं ऐसा न हो कि हाथ आई लक्ष्मी वापस चली जाए। ऐसा करता हूँ कि मैं जाकर उससे पोटली लेकर रफूचक्कर हो जाता हूँ। वह कौन-सी मुझे जानती है, जो बाद में ढूँढ लेगी। वैसे भी उसे गाँव तक पहुँचते-पहुँचते बहुत समय लग जाएगा। तब तक तो मैं न जाने कहाँ का कहाँ पहुँच जाऊँगा।
     ऐसा विचार आते ही वह घुड़सवार वापस आया और वृद्धा से बोला-अम्मा! लाओ, आप यह पोटली मुझे दे दो। मैं इसे ले जाकर गाँव की चौपाल पर बैठ जाता हूँ, आप वहाँ आकर मुझसे ले लेना। उसकी मीठी-मीठी बात सुनकर वृद्धा तुरंत बोली-न बेटा न। अब तो तू चला जा। यह पोटली अब मैं तुझे नहीं दूँगी। इस पर वह आश्चर्य से बोला-अरे, क्या हुआ अम्मा। अभी तो आप मुझे इसे ले जाने को कह रही थीं और जब मैं मान गया हूँ तो मना कर रही हो। क्या बात है। यह उलटी बात आपके मन में कैसे आई?
     वृद्धा मुस्कराकर बोली-वैसे ही बेटा जैसे तेरे मन में आई कि जाकर बुढ़िया से पोटली ले आ। अब जो तेरे भीतर है, वह मेरे भी भीतर है। तुझे उसने कहा, बुढ़िया से पोटली ले ले और भाग जा। वैसे ही मुझे उसने कहा-प्रेम से बोल रहा है, ज़रूर दगाबाज़ी करेगा। पोटली दे देगी तो भाग जाएगा। इसलिए अब तो यह पोटली मैं तुझे नहीं दूँगी। जा चला जा। इसके बाद वह घुड़सवार शर्मिंदा होकर वहाँ से चला गया।
     देखा आपने, एक व्यक्ति के  मन में उठा नकारात्मक विचार दूसरे व्यक्ति के विचारों को किस तरह प्रभावित करता है। उस घुड़सवार के मन में गलत बात आते ही जब वह वृद्धा के पास पहुँचा तो उसके भी मन में उलटे विचार ही उठे। यहाँ मुद्दा यह नहीं है कि उसके मन में जो विचार आया वो कितना सही या चतुराई भरा था। उसने सही सोचा ना। यानी हमारे सोचने के तरीके का प्रभाव हमारे आसपास के लोगों पर भी पड़ता है। इसलिए कह सकते हैं कि यदि हमारी सोच नेगेटिव है तो हमारे आसपास के लोगों की भी सोच नेगेटिव होने लगती है। भारतीय दर्शन में इसे समझाते हुए कहा गया है कि मन में नकारात्मक विचार उठने के साथ ही मस्तिष्क से ऋणात्मक धाराएँ बहने लगती हैं, जो आपके चारों ओर के वातावरण को नकारात्मक बनाती है। ये आपको तो प्रभावित करती ही है, साथ ही आपके संपर्क में आने वाले व्यक्ति को भी अपनी चपेट में ले लेती हैं। इन्हीं के प्रभाव से व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है।
     सोचिए कितनी खतरनाक हैं ये धाराएं। इसलिए हमें अपने मन में आने वाले नकारात्मक विचारों पर अंकुश लगाकर ऐसी धाराओं को बहने से रोकना होगा।

Monday, September 12, 2016

डोलते ही रहते हैं डाँवाडोल इंसान


     एक बार एक गुरु अपने शिष्यों के साथ जंगल में जड़ी-बूटियाँ खोज रहे थे। जब बहुत समय हो गया तो उन सभी को प्यास लगने लगी। वे जड़ी-बूटियों की खोज छोड़कर पानी की तलाश में लग गए। तलाशते-तलाशते वे जंगल के बाहर आ गए। वहाँ उन्हें एक खेत दिखाई दिया जिसमें कई गड्ढ़े थे। एक  शिष्य बोला-गुरु जी! उधर देखिए। उस खेत में कई कुएं हैं। उनमें अवश्य ही पानी होगा। चलिए, वहाँ चलकर अपनी प्यास बुझाएँ। वे सभी उस खेत की ओर चल पड़े।
     खेत के नज़दीक पहुँचकर उन्होने देखा कि वे कुएँ नहीं सिर्फ कुछ ही गहरे गड्ढ़े थे और उनमें पानी भी नहीं था। सभी उदास हो गए। तभी गुरुजी को एक बात सूझी। उन्होने अपने शिष्यों से पूछा-क्या आपमें से कोई इन गड्ढो का राज़ बता सकता है? क्यों एक ही खेत में कदम-कदम पर इतने सारे गड्ढे खोदे गए हैं। साथ ही इस खेत के मालिक का स्वभाव कैसा होगा? सभी शिष्य सोचने लगे। एक शिष्य बोला-गुरु जी! यह खेत नीश्चित ही किसी शिकारी का होगा। वह बहुत ही चतुर है। उसने यहाँ इतने सारे गड्ढे इसलिए किए हैं ताकि जब भी कोई जानवर इस तरफ आए तो वह किसी न किसी गड्ढे में गिर पड़े और वह उसे पकड़ ले। गुरु जी ने कहा-नहीं ऐसा नहीं है। कुछ और सोचो। इस पर एक और शिष्य बोला-गुरु जी मुझे लगता है कि खेत का मालिक बहुत ही समझदार है। उसने आगामी बारिश का पानी संचित करने के लिए ही ये गड्ढे खोदे होंगे, तकि इस पानी का उपयोग वह साल भर कर सके। इस पर गुरु जी बोले-नहीं, यह बात भी नहीं है। कोई और राज़ बताओ। सभी शिष्य सोचने लगे। जब कुछ समझ में नहीं आया तो उन्होने गुरु जी से ही इसका राज़ बताने का आग्रह किया। गुरु जी बोले-सामान्य-सी बात है। इस खेत का मालिक अस्थिर प्रकृति का इंसान है। जब उसे  पानी की आवश्यकता हुई तो उसने कुआँ खोदना शुरु कर दिया। दस-बारह हाथ खोदने के बाद जब वहाँ पानी नहीं निकलता तो वह धैर्य खो देता और दूसरा गड्ढा खोदने लगता । इस प्रकार उसने कदम-कदम पर गड्ढे खोद दिए और कहीं से भी पानी नहीं निकला। यदि वह अपने स्वभाव की अस्थिरता पर काबू रखकर एक ही गड्ढे को गहरा करता जाता तो उसे कम परिश्रम में ही पानी मिल जाता। इसलिए तुम सबको भी इस घटना से सीख लेनी चाहिए कि जब भी काम हाथ में लो, उसे पूरा करके ही दम लो। भले ही तुम्हें कितनी ही कठिनाइयों का सामना क्यों न करना पड़े। इसके बाद वे सभी पानी की खोज में आगे चल पड़े।
     वे तो आगे निकल गए लेकिन आज की कहानी से हम भी एक गुरु मंत्र खोजने में सफल हो गए कि दुविधाजनक स्थिति कभी भी सुविधाजनक नहीं हो सकती। यह पीड़ादायक होती है। यह व्यक्ति की राह का काँटा होती है जो उसे किसी एक निर्णय पर पहुँचने से रोकती है। अस्थिर मानसिकता का शिकार व्यक्ति जीवन में कभी तय ही नहीं कर पाता कि उसे करना क्या है। ऐसे लोेगों का कोई लक्ष्य नही होता। और लक्ष्यहीन व्यक्ति की संसार में क्या गति होती है, यह तो आप भी जानते हैं। यदि नहीं जानते तो जान लें, कि उसकी दुर्गति होती  है। ऐसे लोग हर काम को जल्दबाज़ी में करने के आदी होते हैं। यानी इन्हें किसी भी काम के परिणाम या रिजल्ट शीघ्र चाहिए। यदि देरी होती है तो ये उस काम को बंद कर दूसरा काम शुरु कर देते हें। लेकिन जो नया काम शुरु करते हैं, उसमें भी इनकी स्थिति डाँवाडोल ही रहती है कि इसमें भी सफलता मिलेगी या नहीं। और इस तरह वे डोलते ही रहते हैं यानी किस भी मुकाम तक नहीं पहुँच पाते।
     बार-बार व्यवसाय या नौकरी बदलने वाले लोगों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ये लोग यह नहीं समझ पाते कि किसी व्यवसाय को शुरु करने के बाद उसे स्थापित होने में समय लगता है। फिर बिना कठिनाइयों के सफलता कैसे संभव है। हाँ कठिनाइयाँ आर्इं, इनका अस्थिर दिमाग असफलता की आशंका से ग्रसित हो जाता है, जिसके फलस्वरूप ये परेशानियों का सामना करने के बजाय अपना रास्ता ही बदल देते हैं। यानी उस व्यवसाय को बंद कर दूसरा शुरु कर देते हैं। ऐसे लोग कैरियर में भी हर समय दुविधा में रहते हैं। क्या करें, क्या न करें, इस बारे में लोगों से रायशुमारी करते रहते हैं लेकिन कोई फैसला नहीं ले पाते। ऐसा होता क्यों है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अस्थिर प्रकृति के लोगों का अपने विचारो पर नियंत्रण नहीं होता। निरंतर बदलते विचार उन्हें किसी एक बात पर स्थिर नहीं रहने देते, जिससे वे अकसर परेशानी में पड़ जाते हैं। ऐसे लोगों को हम कहना चाहेंगे कि वे अपने विचारों में दृढ़ता लाएँ। वैसे भी अस्थिरता को हर तरह से बुरा माना गया है, फिर चाहे वह अस्थिर प्रकृति हो, स्मरण शक्ति हो, आचरण हो, मानसिकता हो या फिर अस्थिर उद्देश्य लक्ष्य ही क्यों न हो।
     इसलिए आज से ही कोशिश करें कि मनमें जब भी ऐसे विचार उठें जो आपके मन को विचलित कर रास्ता बदलने को प्रेरित करें तो दृढ़ता से उनका सामना करें। खुद रास्ता बदलने की जगह उनका रास्ता बदल दें यानी उनकी ओर ध्यान ही न दें। जब ऐसा करोगे तो वे कुछ समय बाद स्वतः ही पानी के बुलबुले की तरह समाप्त हो जाएँगे। अस्थिरता या दुविधा की स्थिति का सामना करने की यही सर्वश्रेष्ठ विद्या  है।

Friday, September 9, 2016

त्रिशंकु


वैदिक युग में एक प्रतापी राजा हुआ त्रिशंकु। उसकी सदाचारिता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। एक बार उसके मन में एक महत्वाकाँक्षा जागी कि मैं सशरीर स्वर्ग जाऊँ। इसके लिए वह अपने गुरु ब्राहृर्षि वशिष्ठ जी के पास पहुँचा। उसकी बात सुनकर वशिष्ठ बोले-राजन्! तुम्हारी यह कामना कभी पूरी नहीं हो सकती। त्रिशंकु ने उन्हें बहुत मनाया, लेकिन वे नहीं माने। त्रिशंकु ने भी जिद पकड़ ली थी। वह गुरु-पुत्रों के पास पहुँचा और उन्हें सारी बात बताने के बाद बोला-आप सभी से मेरी बिनती है कि गुरु बनकर मेरी इच्छा पूरी करें। उसकी बात सुनकर गुरु-पुत्र बोले-महाराज! जब हमारे पिता आपकी बात को अस्वीकार कर चुके हैं तो फिर आपको हमारे पास नहीं आना चाहिए था। अब हम कुछ नहीं कर सकते। जब गुरु-पुत्र नहीं माने तो त्रिशंकु बोला-फिर तो मुझे किसी और ऋषि की सहायता लेना होगी। उसकी बात सुनकर गुरु-पुत्रों को क्रोध आ गया और उन्होने उसे शाप देकर चांडाल बना दिया। चांडाल बनने के बाद भी उसकी जिद्द खत्म नहीं हुई। वह सहायता के लिए विश्वामित्र के पास पहुँचा और उन्हे सारी जानकारी देते हुए बोला- अब तो मैं आपकी शरण में हूँ ऋषिवर। वशिष्ठ जी के लिए भले ही ऐसा करना संभव न हो लेकिन आप निश्चित ही अपने तपोबल से मेरी इच्छा पूरी कर सकते हैं।
     दरअसल उसने विश्वामित्र की कमजोरी पकड़ ली थी, क्योंकि उस समय उनकी वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्विता थी। इसलिए जब भी कोई ऐसी बात होती, जिससे वे स्वयं को वशिष्ठ से श्रेष्ठ साबित कर सकें, वे ज़रूर करते थे। उन्होने त्रिशंकु से कहा कि हम तेरी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे। इसके लिए उन्होने एक यज्ञ किया। यज्ञ के अंत में उन्होने देवताओं का आह्वान किया कि वे त्रिशंकु को स्वर्ग में स्थान दें। जब देवता नहीं माने तो विश्वामित्र को क्रोध आ गया। उन्होने आकाश की ओर देखा और बोले-त्रिशंकु! तुम जिस दशा में हो, उसी में स्वर्ग जाओ। उनका वाक्य पूरा होते ही त्रिशंकु स्वर्ग की ओर जाने लगा। जैसे ही वह स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा, इंद्र ने उसे रोककर कहा-अधम राजा! गुरु पुत्रों से शापित होने के बाद तुझे स्वर्ग में स्थान नहीं मिल सकता। तू पाताल में जा। और त्रिशंकु नीचे गिरने लगा। उसने विश्वामित्र के पुकारा-मुझे बचाओ! विश्वामित्र भी हार मानने वाले नहीं थे। वे बोले-तू जहाँ है, वहीं ठहर जा। मैं तेरे लिए नए स्वर्ग की सृष्टि करता हूँ। उन्होंने नए ग्रह और नक्षत्र पैदा कर दिए। जब वे नए स्वर्ग की रचना कर रहे थे, तो सभी देवता उनके पास पहुँचे। इंद्र ने त्रिशंकु को स्वर्ग में प्रवेश न देने का कारण बताया। विश्वामित्र को बात समझ में आ गई। लेकिन उन्होने अपनी रचनाओं को बने रहने देने की बात कही। इस पर दवताओं ने "तथास्तु' कहा और ग्रह-नक्षत्रों से घिरा त्रिशंकु वहीं उलटा लटका रह गया।
     त्रिशंकु आज भी उलटा लटका हुआ है। ऐसा लगता है जैसे वह लोगों को सीख दे रहा हो कि अति महत्वाकांक्षी होने का परिणाम क्या होता है। एक सदाचारी राजा को उसकी एक महत्वाकाँक्षा ने कहाँ पहुँचा दिया। हम यह नहीं कहेंगे कि आप महत्वाकांक्षी न बनें क्योंकि महत्वाकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं। लेकिन यह सोच लें कि हम अपनी इच्छापूर्ति किसी की भावनाओं व मज़बूरियों का फायदा उठाकर या उन्हें दबाकर तो नहीं कर रहे। हमसे किसी का निरादर तो नहीं हो रहा। ऐसा होने पर हमारी गति भी त्रिशंकु की तरह ही होगी। महत्वाकांक्षी या यशस्वी होने की इच्छा होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन इसकी अति घातक है। अति सफलता के चक्कर में लोग हाथ आई छोटी छोटी सफलताओं को छोड़ देते हैं और फिर वे न घर के रहते हैं, न घाट के। वैसे भी त्रिशंकु जैसी कामनाएँ जीवन के सारे सुख-चैन खत्म कर देती हैं।
     यह कहानी हमें अपनी महत्वकांक्षा पूरी करने के लिए त्रिशंकु की तरह गलत तरीका न अपनाने की सीख भी देती है। जब गुरु नहीं माने तो गुरु पुत्र ही सही, गुरु-पुत्र नहीं माने तो उनके प्रतिद्वंद्वी ही सही। हमें तो अपना काम निकालना है। यह था त्रिशंकु का तरीका। वर्तमान में भी किसी आफिस में, जहां सत्ता के कई केन्द्र होते हैं, यह तरीका अपनाते हुए आपको कई "त्रिशंकु' मिल जाएँगे। हम उन्हें त्रिशंकु इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि वे भी अपना काम करवाने के लिए एक अधिकारी द्वारा मना करने पर दूसरे के पास फिर तीसरे के पास पहुँच जाते हैं। हो सकता है वे एकाध बार इसमें सफल हो जाएं। लेकिन अंततः नुकसान उन्ही का होता है। जैसे विश्वामित्र और इंद्र के एक होने पर त्रिशंकु आसमान में लटका रह गया। इसलिए ऐसी कोशिश न करें। दूसरी ओर विश्वामित्र की भूमिका में बैठे लोगों को गुरु-पुत्रों से सीख लेनी चाहिए कि यदि एक जगह से मना हो गई तो वह बात वहीं खत्म हो जाना चाहिए। यदि बात बहुत ज़रूरी है तो बिना कर्मचारी को बताए उस सहयोगी से अलग से बात कर लें, जो उसकी बात को अस्वीकार कर चुका है। इससे उस कर्मचारी की इधर-उधर भटकने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगेगी।

Saturday, September 3, 2016

छोटा न समझें किसी भी काम को


     एक बार भगवान अपने एक निर्धन भक्त से प्रसन्न होकर उसकी सहायता करने उसके घर साधु के वेश में पधारे। उनका यह भक्त जाति से चर्मकार था और निर्धन होने के बाद भी बहुत दयालु और दानी प्रवृत्ति का था। वह जब भी किसी साधु-संत को नंगे पाँव देखता तो अपने द्वारा गाँठी गई जूतियाँ या चप्पलें बिना दाम लिए उन्हें पहना देता। जब कभी भी वह किसी असहाय या भिखारी को देखता तो घर में जो कुछ मिलता, उसे दान कर देता। उसके इस आचरण की वजह से घर में अकसर फाका पड़ता था। उसकी इन्हीं आदतों से परेशान होकर उसके माँ-बाप ने उसकी शादी करके उसे अलग कर दिया, ताकि वह गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को समझे और अपनी आदतें सुधारे। लेकिन इसका उस पर कोई असर नहीं हुआ और वह पहले की ही तरह लोगों की सेवा करता रहा। भक्त की पत्नी भी उसे पूरा सहयोग देती थी।
     ऐसे भक्त से प्रसन्न होकर ही भगवान उसके घर आए थे, ताकि वे उसे कुछ देकर उसकी निर्धनता दूर कर दें तथा भक्त और अधिक ज़रूरतमंदों की सेवा कर सके। भक्त ने द्वार पर साधु को आया देख अपने सामथ्र्य के अनुसार उनका स्वागत सत्कार किया। वापस जाते समय साधू भक्त को  पारस पत्थर देते हुए बोले- इसकी सहायता से तुम्हें अथाह धन संपत्ति मिल जायेगी और तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे। तुम इसे सँभालकर रखना। इस पर भक्त बोला- फिर तो आप यह पत्थर मुझे न दें। यह मेरे किसी काम का नहीं। वैसे भी मुझे कोई कष्ट नहीं है। जूतियाँ गाँठकर मिलने वाले धन से मेरा काम चल जाता है। मेरे पास राम नाम की संपत्ति भी है, जिसके खोने का भी डर नहीं। यह सुनकर साधु वेशधारी भगवान लौट गए।
     इसके बाद भक्त की सहायता करने की कोई कोशिशों में असफल रहने पर भगवान एक दिन उसके सपने में आए और बोले-प्रिय भक्त! हमें पता है कि तुम लोभी नहीं हो। तुम कर्म में विश्वास करते हो। जब तुम अपना कर्म कर रहे हो तो हमें भी अपना कर्म करने दो। इसलिए जो कुछ हम दें, उसे सहर्ष स्वीकार करो। भक्त ने ईश्वर की बात मान ली और उनके द्वारा की गई सहायता और उनकी आज्ञा से एक मंदिर बनवाया और वहाँ भगवान की मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा करने लगा।
    एक चर्मकार द्वारा भगवान की पूजा किया जाना पंडितों को सहन नहीं हुआ। उन्होने राजा से इसकी शिकायत कर दी। राजा ने भक्त को बुलाकर जब उससे पूछा तो वह बोला-मुझे तो स्वयं भगवान ने ऐसा करने को कहा था। वैसे भी भगवान को भक्ति प्यारी होती है, जाति नहीं। उनकी नज़र में कोई छोटा-बड़ा नहीं, सब बराबर हैं।
     राजा बोला-क्या तुम यह साबित करके दिखा सकते हो? भक्त बोला-क्यों नहीं। मेरे मंदिर में विराजित भगवान की मूर्ति उठकर जिस किसी के भी समीप आ जाए, वही सच्चे अर्थों में उनकी पूजा का अधिकारी है। राजा तैयार हो गया। पहले पंडितों ने प्रयास किए लेकिन मूर्ति उनमें से किसी के पास नहीं आई। जब भक्त की बारी आई तो उसने एक पद पढ़ा-"देवाधिदेव आयो तुम शरना, कृपा कीजिए जान अपना जना।' इस पद के पूरा होते ही मूर्ति भक्त की गोद में आ गई। यह देख सभी को आश्चर्य हुआ। राजा और रानी ने उसे तुरंत अपना गुरु बना लिया।
     इस भक्त का नाम था रविदास। जी हाँ, वही जिन्हें हम संत रविदास जी या संत रैदास जी के नाम से भी जानते हैं। जिनकी महिमा सुनकर संत पीपा जी, श्री गुरुनानकदेव जी, श्री कबीर साहिब जी, और मीरांबाई जी भी उनसे मिलने गए थे। यहाँ तक कि दिल्ली का शासक सिकंदर लोदी भी उनसे मिलने आया था। उनके द्वारा रचित पदों में से 39 को "श्री गुरुग्रन्थ साहिब' में भी शामिल किया गया है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इन सबके बाद भी संत रविदास जीवन भर चमड़ा कमाने और जूते गाँठने का काम करते रहे, क्योंकि वे किसी भी काम को छोटा नहीं मानते थे। जिस काम से किसी के परिवार का भरण-पोषण होता हो, वह छोटा कैसे हो सकता है।

Wednesday, August 31, 2016

आभार मानने में कैसा भार?


     महान विचारक शेख सादी साहिब एक दिन मस्जिद में नमाज़ पढ़ने गए हुए थे। जब वे मस्जिद पहुँचे तो उन्होने देखा कि एक दौलतमंद अमीर भी वहाँ नमाज़ पढ़ने के लिए आया हुआ है। उस अमीर ने अपने पैरों में रत्नजड़ित जूतियाँ पहनी हुई थी। शेख सादी को उसके बारे में जानने की इच्छा हुई। उन्हें वहाँ आए लोगों से पता चला कि वह अमीर साल में एक बार नमाज़ पढ़ने के लिए आता है। अमीर के बारे में यह जानकर शेख सादी ने आसमान की ओर देखा और मन ही मन कहा-वाह रे अल्लाह! तेरा यह कैसा न्याय है? मैं पाँचों वक्त की नमाज़ पढ़ता हूँ और रोज़ तेरी चौखट पर आता हूँ। इसके बाद भी मेरे पास ऐसी फटी-पुरानी जूतियाँ! और वो अमीर साल में एक बार तुझे याद करता है और उसके पास रत्नजड़ित जूतियाँ! यह तो अन्याय है। शेख सादी जब मन ही मन अल्लाह से शिकायत कर रहे थे तभी एक अपाहिज वहाँ आया। उसके दोनों पैर नहीं थे। उसे देखकर शेख सादी को याद आया कि वह भी रोज़ उन्हीं की तरह मस्जिद आता है और नमाज भी अदा करता है। उसे देखते ही शेख सादी को अपनी गलती का अहसास हुआ और वे तुरंत आसमान की ओर देखकर अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हुए बोले- अल्लाह! तेरी इनायतों का शुक्रिया। तूने मूझे दो सही-सलामत पाँव तो बख्शे हैं। मैं तेरे न्याय पर बेकार ही शक कर रहा था।
     यह तो थे शेख सादी जिन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होने तुरंत शुक्रिया अदा कर उसे सुधार लिया। लेकिन उनका क्या जो रोज़ ऐसी गलती करते हैं और पता लगने पर भी उसे सुधारने का प्रयास नहीं करते। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे मतलबी होते हैं। एक मतलबी इंसान सिर्फ उन्हीं चीज़ों के बारे में सोचता रहता है जो उसके पास नहीं है। उसे इस बात का भान ही नहीं रहता कि ऐसा करते समय वह हर उस चीज़ की उपेक्षा कर रहा है जो उसके पास है। यह बात वस्तुओं के साथ ही रिश्तों पर भी लागू की जा सकती है। यानी कि जो हमारे पास है, उसकी जगह जो नहीं है, उसकी चिंता में हम दुबले हो रहे हैं। और दुबले हों भी क्यों न, जब हम न जाने कितने ऐसे आभारों का भार लेकर घूम रहे हैं। जिन्हें हमने उन तक पहुँचाया ही नहीं होता जो उनके हकदार थे। यानी जब हमारा काम निकल गया तो हम "मतलबी यार किसके, खाया-पिया और खिसके' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए बिना आभार दिए ही वापिस आ गए। अब इन भारों को लेकर घूमोगे तो उसके भार से दुबले तो होंगे ही ना। वैसे भी आभार व्यक्त करने में कैसा भार। जब हम दूसरों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं तो जीवन में आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक परिवर्तन होते हैं। कृतज्ञता का भाव हमारे अंदर सह्मदयता की भावना को जाग्रत करता है, जिसके माध्यम से हम किसी व्यक्ति द्वारा निःस्वार्थ भाव से की गई सहायता के लिए उसका आभार मानते हैं। इसे हम व्यक्त करते हैं सिर्फ एक शब्द "धन्यवाद' के द्वारा। इसे आजमाने के लिए चलिए कि प्रयोग करके देखते हैं। जब भी आपको थोड़ी- सी फुरसत मिले, आप अपने जीवन के अच्छे व यादगार अनुभवों की एक सूची बनाएँ। इस सूची को ऐसी जगह रखें जहाँ से वह रोज पढ़ने में आए। इसके बाद एक महीने तक उन अच्छे अनुभवों के लिए ईश्वर व उन लोगों के प्रति मन ही मन आभार व्यक्त करें, जिन्होंने उन पलों को यादगार बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो। हाँ, शर्त यही है कि आभार दिल से व्यक्त किया जाना चाहिए। एक महीने बाद निश्चित ही आप जीवन में सकारात्मक परिवर्तनों का अनुभव करेंगे।
     यदि आप ऐसा करते हैं तो इससे आपको एक लाभ और होगा। जब आप ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करेंगे तो निश्चित इससे वह प्रसन्न होगा, क्योंकि कृतज्ञ और प्रसन्न मन से की गई प्रार्थना ही ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय है। वह प्रसन्न होकर आपकी और भी मनोकामनाओं को पूरा करेगा।
     आप कहेंगे कि इस बात पर विश्वास नहीं होता। तो विश्वास करने के लिए याद करें उस पल को, जब आपने किसी व्यक्ति द्वारा की गई किसी भी भलाई या सहायता पर उसे धन्यवाद दिया होगा, तो उसके चेहरे पर क्या भाव था? निश्चित ही प्रसन्नता का रहा होगा और प्रसन्न होकर उसने भविष्य में भी आपकी उसी प्रकार सहायता करने की इच्छा व्यक्त की होगी। दूसरों के क्यों, खुद के बारे में ही सोचें। जब आप किसी की दिल से मदद करते हैं और वह उसके लिए आपके प्रति आभार व्यक्त करता है तो आपको कैसा लगता है? निश्चित ही अच्छा लगता है और आप आगे भी उसकी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। और यदि वही व्यक्ति आपके द्वारा की गई भलाई के लिए आपका आभार न माने तो क्या होता है? आपको पता है कि ऐसा होने पर आपके दिल पर क्या गुजरती है। जब हम लोग ऐसा सोच और कर सकते हैं तो सोचिए कि ईश्वर क्यों नहीं करेगा इसलिए हमें हर उस व्यक्ति का, जिसने हमारी किसी भी रूप में सहायता की है, आभार अवश्य मानना चाहिए। उसे दिल से धन्यवाद अवश्य देना चाहिए। ऐसा करके हम कृतज्ञता की भावना में समाहित जादूई शक्ति के द्वारा लोगों को अपना बनाते चले जाएंगे, साथ ही बिना किसी रूकावट के प्रगति भी करते जाएंगे।

Sunday, August 28, 2016

सलाह दो उन्हें जो परवाह करें


     बहुत समय पहले की बात है। एक पर्वत पर बहुत से बंदर रहते थे। एक बार शाम के समय पर्वत पर शीतलहर चलने लगी। इससे वहाँ का तापमान अचानक गिर गया। ठंड से दाँत किटकिटाते बंदर इससे बचने का उपाय खोजने लगे। कुछ बंदर उपाय की खोज में इधर-उधर निकल गए। इस बीच वहाँ रह गए बंदरों में से एक की नज़र उड़ते हुए जुगनू पर पड़ी। वह चिल्लाया-देखो, आग की चिंगारी। मैं भागकर उसे पकड़ता हूं, तुम सब जल्दी से घास-फूस इकट्ठा करो। हम आग जलाकर तापेंगे।
     ऐसा कहकर वह जुगनू की तरफ लपका और उसे पकड़ लिया। वह उसे घास-फूस के ढेर पर रखकर फूंक मारने लगा ताकि आग जल जाए। कुछ कोशिशों के बाद जब वह सफल नहीं हुआ तो बाकी बंदर भी फूँक मारने लगे, लेकिन जुगनू से आग कैसे लगती। एक बंदर बोला-लगता है घास-फूस, पत्तियाँ अभी पूरी तरह सूखी नहीं है, इसीलिए यह आग नहीं पकड़ रहीं। हमें और भी चिंगारियों की आवश्यकता है। कहाँ से लाएँ? वे यह सब बात कर ही रहे थे कि एक बंदर भागता हुआ आया और बोला-देखो मेरे पास अंगारे हैं, मैं इन्हें सँभालकर लाया हूँ। इससे निश्चित ही आग जल जाएगी।
     दरअसल वह सूर्ख लाल रंग के जंगली फलों को अंगारे समझकर गीली पत्तियों में दबाकर ले आया था। सभी बंदर उन फलों को देखकर खुश हो गए और उन्हें भी जुगनू के साथ घास-फूस पर रखकर आग जलाने के लिए फूँक मारने लगे। बंदर जिस पेड़ के नीचे बैठकर यह सब कर रहे थे, उस पेड़ पर एक चिड़िया रहती थी। वह बहुत देर से बंदरों की मूर्खता को देख रही थी। जब उससे रहा नहीं गया तो वह बंदरों को समझाते हुए बोली- यह क्या कर रहे हो? जिसे आप सब चिंगारी और अंगारे समझ रहे हैं, वे दरअसल जुगनू और जंगली फल हैं। इनसे आग नहीं सुलगेगी। बेकार में प्रयत्न करने से अच्छा है कि सामने की गुफा में चले जाओ। ठंड से बच जाओगे।
     लेकिन बंदरों ने उसकी एक न सुनी। अब तो वे और भी जोर-जोर से फूँक मारने लगे। लेकिन चिड़िया ने भी बंदरों को समझाना नहीं छोड़ा। वह बोली-मेरी सुनते क्यों नहीं? ज़रा अक्ल से काम लो। लेकिन बंदर समझने को तैयार नहीं थे। जब चिड़िया ने बोलना बंद नहीं किया तो एक बूढ़े बंदर ने झपट्टा मारकर उसे पकड़ लिया और बोला-बहुत समझदार समझती है अपने आपको। अब तू बताएगी कि हमें क्या करना चाहिए। बड़ी देर से कान खा रही है हमारे। चल भाग यहाँ से। ऐसा कहकर उसने चिड़िया को जोर से ज़मीन पर दे मारा। चिड़िया के प्राण-पखेरू उड़ गए। लेकिन बंदर उसकी परवाह किए बिना दोबारा फूँक मारने में जुट गए।
     यह है मूर्खों को ज्ञान बाँटने का नतीजा! जो आपकी बात को समझने को तैयार ही नहीं, आप उसके पीछे लगेंगे तो यही होगा। मूर्ख को समझाना भी एक मूर्खता ही है। जब आप यह मूर्खता करोगे तो परिणाम भी भुगतोगे ही।
     अब आप कहेंगे कि किसी को जानते-बूझते तो गर्त में गिरते नहीं देखा जा सकता। इंसानियत के नाते कुछ तो फर्ज़ बनता है। तो भई, इंसानियत के नाते समझाओ, सलाह दो। लेकिन ऐसा कितनी बार करोगे? एक या दो बार, बस। इससे ज्यादा तो नहीं। क्योंकि जो आपकी सलाह पर ध्यान देगा, उसे एक या दो बार में ही आपकी बात समझ में आ जाएगी। लेकिन जो समझने को तैयार ही नहीं, उसे क्या समझाना। भैंस के आगे बीन बजाने से कोई लाभ नहीं  होता। इसीलिए कहा गया है 'सीख वाको दीजिए, जाको सीख सुहाय।'
     अकसर देखने में आता है कि जिनको परामर्श की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है, वे ही अधिकतर इन्हें सबसे कम पसंद करते हैं। ऐसे लोग परामर्श का स्वागत नहीं, तिरस्कार करते हैं। ऐसा करने वालों को इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके आचरण से सलाह देने वाले की भावनाओं को ठेस पहुँच सकती है। इसलिए हम यह नहीं कहेंगे कि सलाह न दें। सलाह अवश्य दें, लेकिन ऐसे लोगों को, जिनको आपकी सलाह की परवाह हो। वरना आप सलाह देते रहेंगे, सामने वाला मानेगा नहीं और आप दिल से लगा लेंगे। यानी गए तो थे दूसरे को समझाने, लेकिन "आ बैल मुझे मार कर बैठ।'
     दूसरी ओर सीख न मानने वालों की बात करें तो ज़रूरी नहीं कि वे मूर्ख ही हों। कई बार तो बुद्धिमान लोग भी सही सलाह मानने से इनकार कर देते हैं। उनका अहं उन्हें रोकता है। ऐसे लोग इस गुमान में रहते हैं कि उन्हें दुनियां में सब कुछ आता है, कोई उन्हें क्या समझाएगा? कौन-सा ऐसा काम है जो वे नहीं कर सकते? कोई उन्हें क्या सिखायेगा? कई बार तो उन्हें अपने अहं का पता तक नहीं चलता। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब कुछ लोग जानते-बूझते और अपनी विद्वता की झूठी शान के चलते ऐसा  करते हैं। सिर्फ सलाह की बात नहीं ये लोग तो किसी भी नई बात को स्वीकारने और सीखने के लिए भी तैयार नहीं होते। ऐसे लोग अपनी प्रगति को अपने हाथों से रोकते हैं। यकीन मानिए, ये लोग जल्द ही असफलता के अँधेरों में खो जाते हैं। इसलिए उन्हें यदि वे मानें तो, हमारा एक परामर्श है कि लोगों की सही सलाह की परवाह करो, तभी सफलता की सीढियों पर निर्बाध चढ़ते रह सकते हो, अन्यथा तो आप जानते ही हैं।

Tuesday, August 23, 2016

कमज़ोर पर न चलाएँ जोर


     एक बार जंगल में एक शेर अपना शिकार खा रहा था। कि अचानक उसके मुँह में एक हड्डी फँस गई। शेर ने उसे निकालने की बहुत कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हुआ। अब उसे चिंता सताने लगी। वह सोचने लगा कि यदि हड्डी नहीं निकली तो वह खाएगा कैसे? वह और भी ज़ोर से प्रयास करने लगा, परंतु हड्डी को न निकलना था और न ही वह निकली। इस तरह कई दिन बीत गए। वह कुछ भी खा नहीं पा रहा था। इससे शेर बहुत कमज़ोर हो गया और उसे लगने लगा था कि अब वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। कमज़ोरी के कारण वह एक पेड़ के नीचे बेजान-सा पड़ गया। उसी पेड़ पर एक कठफोड़वा रहता था। वह कई दिनों से शेर को देख रहा था। उसे यह पहेली समझ में नहीं आ रही थी कि शेर मुँह खोले क्यों लेटा रहता है और शिकार भी नहीं करता।
     एक दिन कठफोड़वे ने शेर से पूछ ही लिया-आखिर बात क्या है? आप इस तरह क्योंं लेटे रहते हैं? शेर ने उसकी बात का जवाब देने की बजाय उसे इशारे से अपने पास बुलाया और मुँह में फँसी हड्डी दिखाई। हड्डी को देखते ही कठफोड़वे को वस्तुस्थिति समझ में आ गई। वह शेर से बोला-अच्छा! तो यह बात है। आप यदि चाहें तो मैं आपके मुँह से यह हड्डी निकाल सकता हूँ। लेकिन इसके लिए आपको मुझसे एक वादा करना होगा कि अपना शिकार खाने से पहले कुछ हिस्सा मुझे देंगे। यदि आप तैयार हैं तो कहें।
     मरता क्या न करता। शेर ने सिर हिलाकर तुरंत हामी भर दी। कठफोड़वा उड़कर शेर के मुँह में जा बैठा और कई कोशिशों के बाद वह हड्डी निकालने में कामयाब हो गया। जैसे ही हड्डी निकली, वह तुरंत उड़कर पेड़ पर जा बैठा और शेर से बोला-मैने अपना काम कर दिया है, अब आप अपना वादा याद रखना। शेर उसकी बात को अनसुना कर शिकार करने निकल पड़ा।
    कुछ घंटों बाद शेर के हाथ एक शिकार लगा। वह अपना वादा भूलकर उसे खाने लगा। इतने में कठफोड़वा उड़ता हुआ वहीं से निकला। उसकी नज़र शेर पर पड़ी। वह उसके पास आया और बोला-हे मित्र! ठहरो! क्या आप अपना दिया हुआ वादा भूल गए। कहाँ है मेरा हिस्सा? शेर ने कठफोड़वे की बात सुनकर उसकी ओर देखा और अनजान सा बनकर बोला-तुम कौन हो? मैं तुम्हें नहीं जानता। मैं तुम्हें अपने शिकार का हिस्सा क्यों दूँ?
     उसकी बात सुनकर कठफोड़वे को झटका लगा। वह शेर को याद दिलाने की कोशिश करने लगा। उसकी बात सुनकर शेर ने उसे हिकारत भरी नज़र से देखा और हँसते हुए बोला-तुम जानते हो मैं एक ताकतवर मांसाहारी जानवर हूँ। जब तुम मेरे मुँह में थे, तब मैं तुम्हें आसानी से खा सकता था, लेकिन मैने ऐसा नहीं किया। तुम्हें मेरा अहसान मानना चाहिए। अब चलो भागों यहाँ से, वरना---।
     कठफोड़वा बेचारा क्या करता। वह उदास होकर वहां से उड़कर एक पेड़ पर जा बैठा। वह सोच रहा था कि मैं कमज़ोर हूँ इसलिए यह मेरा फायदा उठाकर अपना वादा भूल गया, लेकिन मैं भी कम नहीं हूँ। मैं इसे सबक सिखाकर ही रहूँगा। कुछ समय बाद जब शेर अपना शिकार खाने के बाद आँख बंद कर सुस्ताने लगा तो कठफोड़वा उड़कर उसके पास गया। उसने अपनी लंबी नुकीली चोंच मारकर शेर की एक आँख फोड़ दी। शेर दर्द से कराह उठा। वह बोला-तुम इतने कठोर कैसे हो सकते हो? तुमने मेरी आँख फोड़ दी। वह बोला महोदय! आप जानते ही हैं कि मेरी चोंच बहुत नुकीली है। मैं आसानी से आपकी दूसरी आँख भी फोड़कर आपको अँधा कर सकता था, लेकिन मैने ऐसा नहीं किया। आपको मेरा अहसान मानना चहिए। अब चलो भागो यहाँ से, वरना---।
     यह होता है किसी को भी अपने से कमज़ोर समझने का परिणाम। ताकत के मद में फँसे हम कमज़ोर पर अपना ज़ोर दिखाते चले जाते हैं और सोचते हैं कि वह हमारा क्या बिगाड़ लेगा? हम भूल जाते हैं कि समय पड़ने पर एक छोटी-सी चींटी भी हाथी को मार सकती है। इसी तरह जिस दिन कमज़ोर का जोर चलता है तो ताकतवर का भी वही होता है जो शेर का हुआ।
     यहाँ कमज़ोरी या ताकत का आशय सिर्फ शारीरिक क्षमता से नहीं है। कोई भी कमज़ोर या ताकतवर किन्हीं भी अर्थों में हो सकता है, जैसे कि व्यावसायिक, प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि स्तरों पर। यदि हम दफ्तर की बात करें तो हम देखते हैं कि कुछ अधिकारी अपने सहकर्मियों की कमज़ोरी का फायदा उठाते हैं। अपना काम निकलवाने के लिए वे उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देते हैं और समय आने पर शेर की तरह पलट जाते हैं। यहाँ हम ऐसे अधिकारियों से कहना चाहेंगे कि आपका तरीका गलत है। इससे आप उनकी नज़रों में गिर जाते हैं। हो सकता है कोई कर्मचारी आपके सामने कुछ कह न पाए, लेकिन उसके मन में यह बात बैठ जाती है। जब कभी ऐसा अवसर आता है कि आपको उसके समर्थन की आवश्यकता होती है तो वह आपका साथ नहीं देता और आपको अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ता है।
     इसलिए हमें किसी भी व्यक्ति को कमज़ोर नहीं समझना चाहिए और न ही किसी की मज़बूरी का फायदा उठाना चाहिए। साथ ही अपनी कही हुई बात या वादे को अवश्य पूरा करना चाहिए। ऐसा करके आप अपने सहकर्मियों के प्रिय बन जाते हैं। दूसरी ओर मौका आने पर वे अपनी पूरी क्षमता से आपका साथ देने के लिए भी तैयार रहते हैं।

Friday, August 19, 2016

संस्था की छवि से है आपकी छवि


     स्वामी रामतीर्थ के जीवन का एक प्रसंग है। एक बार स्वामी जी जापान की यात्रा पर थे। वहाँ विभिन्न शहरों में उनके कई कार्यक्रम थे। एक बार वे किसी कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए ट्रेन में जा रहे थे। इस लंबी यात्रा के दौरान स्वामी जी की इच्छा फल खाने की हुई। जब गाड़ी अगले स्टेशन पर रूकी तो वहाँ अच्छे फल नहीं मिले। इस पर स्वामी जी ने स्वाभाविक-सी प्रतिक्रिया कर दी कि कि "लगता है कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।' उनकी यह बात एक सहयात्री जापानी युवक ने सुन ली, लेकिन उसने कहा कुछ नहीं। जब अगला स्टेशन आया तो वह फुर्ती से उतरा और कहीं से एक पैकेट में ताज़े-ताज़े मीठे फल ले आया।
     स्वामी जी ने उसे धन्यवाद दिया और कीमत लेने का आग्रह किया। लेकिन उस युवक ने मना कर दिया। जब स्वामी जी ने कीमत लेने पर ज्यादा ज़ोर दिया तो वह बोला कि मुझे कीमत नहीं चाहिए। यदि आप देना ही चाहते हैं तो बस कीमत के रूप में इतना आश्वासन दे दें, कि जब भी आप अपने देश जाएँ, तो वहां किसी से यह मत कहिएगा कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते। इससे हमारे देश की छवि खराब हो सकती है। उसकी भावना से स्वामी जी गद्गद् हो गए। बाद में स्वामी जी ने इस घटना का उल्लेख तो किया लेकिन दूसरे संदर्भों में।
     इसे कहते हैं अपने देश के प्रति सच्चा लगाव। यही लगाव है जिसकी बदौलत
आज जापान जैसा एक छोटा-सा देश आर्थिक क्षेत्र में विश्व की एक शक्ति है। हमारे यहाँ भी इस तरह की भावना के लोग हैं, लेकिन केवल मुट्ठी भर। सोचें कि यदि यह भावना अधिकतर लोगों में आ जाए तो यह देश कहाँ पहुंच सकता है।
     लेकिन अधिकतर हमारे यहाँ जापान से उल्टा होता है। जैसे कि यदि यही घटना किसी विदेशी संत के साथ भारत में घटी होती तो कोई युवक उन्हें अच्छे फल तो नहीं देता, बल्कि यहाँ और क्या क्या अच्छा नहीं मिलता है, इस बात की जानकारी ज़रूर दे देता। चलो, देश की बात छोड़ो। कितने ही लोग आपको ऐसे मिल जाएँगे जो आपके सामने अपनी कंपनी या संस्था की ही निंदा करने लगें जहाँ से उनका कैरियर जुड़ा हुआ है। निंदा करते समय उन्हें इतना भी ध्यान नहीं रहता है कि ऐसा करके वे न केवल अपनी संस्था की छवि को नुकसान पहुँचा रहे हैं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से वे अपनी छवि को भी बिगाड़ते हैं क्योंकि संस्था की छवि से आपकी छवि भी जुड़ी होती है। यानी वे इस लोकोक्ति को चरितार्थ कर रहे होते हैं कि "जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं।' यदि कोई कहता है कि "मेरी कंपनी बहुत ही घटिया है, वहां का प्रबंधन लोगों का बिल्कुल ध्यान नहीं रखता।' इस पर सुनने वाले के मन में पहला विचार यही आएगा यदि कंपनी घटिया है तो वह दूसरी कंपनी में क्यों नहीं चला जाता? कहीं न कहीं खुद में भी कोई कमी होगी तभी वहां टिका हुआ है।