Sunday, January 31, 2016

तैयार हैं न अपने नये अवतार के लिए?


     एक समय पृथ्वी पर हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। चारों ओर हाहाकार मचा था। लोग डर के मारे सब कुछ सहते रहते थे। उसी समय की बात है। एक बार हैहयराज सहरुाबाहु-अर्जुन अपनी सेना के साथ महर्षि जमदाग्नि के आश्रम से गुज़र रहा था। महर्षि ने उसे आतिथ्य के लिए आमंत्रित किया। महर्षि के पास एक कामधेनु गाय थी जिसने पलक झपकते ही सभी अतिथियों के लिए छप्पनभोग की व्यवस्था कर दी। कामधेनु के चमत्कार से राजा के मन में लालच आ गया। वह सोचने लगा कि ऐसी अद्भुत गाय तो मेरे महल में होनी चाहिए। उसने महर्षि से कामधेनु को अपने साथ ले जाने की इच्छा प्रकट की जिसे उन्होने बड़ी ही विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। इस पर वह अत्याचारी राजा अपनी ताकत के बल पर कामधेनु को उसके बछड़े सहित बलपूर्वक हड़पकर ले गया।
     जिस समय यह सब घटना घटी, उस समय महर्षि के पुत्र परशुराम जी आश्रम से बाहर गए हुए थे। वापस लौटने पर जब उन्हें इस घटना के बारे में पता चला तो क्रोध से उनकी आँखें लाल हो गर्इं। वे बोले- उस दुष्ट राजा की हिम्मत कैसे हुई यहाँ से कामधेनु ले जाने की? वो क्या समझता है, हम आश्रमवासी उसके अत्याचार को चुपचाप सह लेंगे, मैं इसका विरोध करूँगा और प्रण करता हूँ कि अपनी कामधेनु को वापस लेकर ही लौटूँगा। गुस्से में तमतमाते हुए वे सहरुाबाहु अर्जुन के महल पहुँचे और उसे कामधेनु वापिस करने के लिए ललकारा।
      सहरुाबाहु ने उनकी बात का उत्तर देने के बजाय अपने सैनिकों को परशुराम को मार डालने का आदेश दे दिया। तब परशुराम ने न केवल उन सैनिकों बल्कि बाद में पूरी सेना को नष्ट कर दिया। अंत में सहरुाबाहु स्वयं उनसे युद्ध करने आया, लेकिन परशुराम के युद्ध कौशल का वह ज्यादा देर तक सामना नहीं कर पाया और मारा गया। परशुराम युद्ध में विजयी रहे और कामधेनु व बछड़े को छुड़ाकर खुशी-खुशी आश्रम ले आए। इस प्रकार परशुराम ने एक शक्तिशाली राजा के अत्याचार के सामने घुटने टेकने के बजाय उसका प्रतिकार किया और विजय हासिल की। उन्होने अपने हक की लड़ाई लड़ी। आखिर जो वस्तु आपकी है, उसे कोई कितना ही ताकतवर क्यों न हो, कैसे छीन सकता है? उस पर कैसे अपना अधिकार जमा सकता है? क्या आप विरोध नहीं करेंगे? निश्चित करेंगे। और यदि नहीं करते हैं तो यह आपकी कमज़ोरी है, कायरता है और आपका अपराध भी। क्योंकि यदि हम अन्याय करने वाले को अपराधी मानते हैं तो सहने वाला भी बराबर का अपराधी होता है। इसलिए अन्याय का विरोध करो। आप विरोध नहीं करेंगे तो सामने वाले की तो हिम्मत ही बढ़ती चली जाएगी। यदि इसे रोकना है तो कहीं न कहीं तो पहल करनी ही होगी। ईश्वर ने जितने भी अवतार लिए हैं, वे सब किसी न किसी अत्याचार या अन्याय के विरोध में ही लिए हैं।
     इसलिए हम चाहेंगे कि यदि आप किसी व्यक्ति के अन्याय को सह रहे हैं तो आज हिम्मत कर उसका विरोध करें। विरोध करने से हमारा तात्पर्य यह नहीं कि परशुराम की तरह विरोध करें। क्योंकि वर्तमान में ऐसा करना व्यावहारिक धरातल पर उचित नहीं है। सोचो तो कई तरीके हो सकते हैं। जो आपकी परिस्थिति के अनुसार उपयोगी हो सकते हैं। विरोध करने का सबसे सही तरीका तो यह है कि सामने वाले को समझाएँ। यदि समझाने से काम नहीं चलता है तो कानून का सहारा लें, लेकिन घुट-घुटकर नहीं जिएँ। कुछ ऐसा कर दिखाएँ कि आपके जानने वाले कहें कि आज आपका नया अवतार हुआ है।
     आज से आप अपने अवगुणों का दान करें। अधिक नहीं तो कम से कम एक अवगुण अवश्य दान करें जिससे कि आपको सद्गुणों के रूप में उसका निरंतर फल प्राप्त होता रहे। इससे भी आप अपने आपको बदला हआ महसूस करेंगे यानी आपका नया अवतार होगा। तो तैयार हैं न आप अपने नए अवतार के लिए?

Saturday, January 30, 2016

ऐसा हो अंत जो अनंत तक रहे याद


     श्रावस्ती नगर की कृशा गौतमी के एक वर्षीय बच्चे की मृत्यु हो चुकी थी, लेकिन वह इसे मानने को तैयार नहीं थी। सभी ने उसे बहुत समझाया कि तेरा बेटा मर चुका है, लेकिन वह नहीं मानी। वह बच्चे को लेकर यह कहते हुए घर से निकल गई कि कोई न कोई इसे जीवित कर ही देगा। उसने कई बैद्यों के दरवाज़े खटखटाए, लेकिन हर जगह उसे निराशा ही मिली। अंत में एक व्यक्ति उसे महात्मा बुद्ध के पास ले गया। वह बोली-प्रभु, कृपया मेरे पुत्र को जीवित कर इस दुखियारी पर उपकार करें। इस पर बुद्ध बोले-तुम्हारे पुत्र को जीवित करने के लिए मुझे चुटकी भर सरसों चाहिए। तुम किसी ऐसे घर से सरसों लेकर आओ, जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुई हो।
     वह अपने बच्चे को छाती से लगाए सरसों लेने निकल पड़ी। बहुत भटकने के बाद भी उसे ऐसा कोई घर नहीं मिला, जहाँ किसी की मौत न हुई हो। धीरे-धीरे उसे यह बात समझ में आने लगी कि जो मर जाता है, उसका कोई इलाज नहीं हो सकता। वह व्यर्थ की खोज में लगी है। वह निराश-हताश होकर बुद्ध के पास पहुँची। बुद्ध ने उससे पूछा-क्या तुम्हें कहीं से सरसों मिली? उसने सिर हिलाकर मना कर दिया। बुद्ध बोले-केवल तुम ही ऐसी नहीं हो जिसका बेटा इस दुनियाँ से विदा हो गया। सभी इस दुःख से गुज़रे हैं। इसलिए बेहतर यही होगा कि तुम होनी को स्वीकार करो। बात कृशा की समझ में आ गई और बालक का अंतिम संस्कार कराने के बाद वह भिक्षुणी बन गई।
     दोस्तो, कहते हैं जिसका आरम्भ होता है, उसका अंत भी निश्चित है। ऐसे ही जो पैदा हुआ है, उसकी मृत्यु भी तय है। किसी फ्रांसीसी दार्शनिक ने कहा भी है कि हम अपने जन्म के दिन से जीना शुरू करते हैं तो मरना भी। यानी व्यक्ति के जन्म के साथ ही उसकी मृत्यु भी जन्म लेती है। और जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, वह भी बड़ी होती जाती है और एक तय समय के बाद वह उसे सताने लगती है। तब ऐसे में कुछ लोग उससे भयग्रस्त होकर निष्क्रिय हो जाते हैं और कुछ लोग उस मृत्यु को ही भयभीत कर देते है। मृत्यु को भय लगता है हँसी से। जो व्यक्ति हँसी-खुशी जीवन को जीना जानता है, तनावों को आपने पास फटकने भी नहीं देता उसे मृत्यु का भय नहीं रहता और वह भरपूर जीवन जीता है।
     हम देखते हैं कि बहुत से लोग मरकर भी अमर हो जाते हैं क्योंकि मौत उन्हें नहीं मार पाती बल्कि वे मौत को मार देते हैं यानी हँसते-हँसाते, खुशियाँ लूटते-लुटाते दुनियाँ से विदा हो जाते हैं। इसलिए कभी भी कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ क्यों न आएँ, भय के साये में न जिएँ। जब अंत निश्चित है तो क्यों न ऐसा अंत हो जो अनंत समय तक लोगों को याद रहे, उन्हें प्रेरणा देता रहे। अंत उसी का अच्छा है, जिसकी कमी लोगों को खले, न कि उसकी उपस्थिति। इसलिए बेहतर यही है कि ऐसा कुछ कर गुज़रो, कि गुज़रकर भी न गुज़र पाओ। इसलिए केवल शुरूआत ही अच्छी नहीं होनी चाहिए, अंत भी अच्छा होना ज़रूरी है। यह बात जीवन के हर क्षेत्र में लागू होती है, चाहे वह व्यक्तिगत हो या व्यावसायिक।
     दूसरी ओर, जीवन में आना-जाना लगा रहता है। आज कोई हमें छोड़कर जा रहा है तो कल कोई नया नई उम्मींदें लेकर हमारे पास आएगा भी। इसलिए कभी उम्मींद मत छोड़ो क्योंकि यही हमें जीने के लिए प्रेरित करती है

Friday, January 29, 2016

अच्छी टीम है साथ तो सफलता आपके हाथ


     एक बार अकबर भेष बदलकर आगरा की गलियों में घूम रहे थे। एक जगह बहुरूपियों का तमाशा देख रही भीड़ को देखकर वे रूक गए। एक बहुरूपिया बोल रहा था- मेहरबान, कद्रदान। दुनियाँ के सबसे बड़े बहुरूपिए आज आपके बीच में तमाशा दिखा रहे हैं। तमाशे की शुरूआत में मिलिए इस बैल से। तभी वहाँ एक बहुरूपिया बैल का भेष बनाकर आ गया। दूसरा बहुरूपिया उसे घास खिलाने लगा। उसे बैल की तरह घास खाते देख बादशाह सहित सभी लोग वाह-वाह कर उठे।
     तभी अकबर की नज़र एक युवक पर पड़ी, जो वहाँ तटस्थ भाव से खड़ा था। उसे देखकर उन्हें हैरानी हुई कि जब तमाशा देख रहे सभी लोग खुश हैं तो यह क्यों नहीं। इस बीच बैल का तमाशा खत्म हो गया। इतने में उस युवक ने बैल बने बहुरूपिए की पिछली टाँग को निशाना बनाकर एक पत्थर फेंका। पत्थर बैल की टाँग से टकराया। उसने टाँग को झटकारा। इसे देखकर वह युवक जोर-जोर से तालियाँ बजाकर उसके हुनर की तारीफ करने लगा। युवक को ऐसा करते देख अकबर उसके नज़दीक पहुँचकर बोले-"सुनो बरखुरदार! युवक- जी कहिए। अकबर- हम जानना चाहते हैं कि आपने तमाशा खत्म होने के इतनी देर बाद क्योें तालियाँ बजार्इं। युवक- वो इसलिए कि वह बहुरूपिया अपने हुनर का माहिर था। उसने जिसका रूप धरा था, उसके छोटे-छोटे हाव-भाव की भी हूबहू नकल करना वास्तव में तारीफ की बात है। यह वही कर सकता है जो अपने काम को डूबकर करता है। मेरे पत्थर मारने पर उस बहुरूपिये ने पैर वैसे ही झटकारा, जैसे कोई बैल झटकारता। अकबर-तो आपने उसे परखकर ही उसकी तारीफ की। भई, तुम तो बड़े अक्लमंद हो। क्या नाम है तुम्हारा? युवक- बीरबल। अकबर-बहुत अच्छा नाम है। क्या आप हमारे साथ काम करना पसंद करेंगे। युवक- जी, जहाँपनाह। एक शहंशाह के हुक्म को मैं कैसे टाल सकता हूँ। अकबर चौंककर बोले-क्या! लेकिन तुमने हमें पहचाना कैसे? युवक- हुज़ूर, आपने भेष ज़रूर बदला है, लेकिन जबान नहीं बदली। आपके बोलने का शाहीअंदाज़ मुझसे छिप नहीं सका।
     दोस्तो, यह थी अकबर की बीरबल से पहली मुलाकात। इस मुलाकात में उन्होने बीरबल की बुद्धिमत्ता को बातों ही बातों में परख लिया, पहचान लिया और उन्हें अपने दरबार में शामिल कर लिया। अकबर लोगों में छुपी प्रतिभा को पहचानने में माहिर थे और उसकी कद्र भी करते थे। इस कारण अपने-अपने क्षेत्र के हीरे यानी दिग्गज लोग उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे, जिन्हें एक जौहरी की तरह परखकर उन्होने अपने दरबार में शामिल कर लिया था। और इन्हीं दिग्गज़ों की बदौलत अकबर बने भारत के एक सफलतम सम्राट। अकबर जैसा ही पारखी हर उस व्यवसायी, अधिकारी को होना चाहिए जिसके ऊपर संस्था की प्रगति की ज़िम्मेदारी है और जो अपनी संस्था की दिन दुगनी रात चौगुनी प्रगति चाहता है। इसके लिए उसे अपनी टीम का चयन देखभाल कर करना चाहिए, क्योंकि एक अच्छी टीम ही उसके सपने को साकार कर सकती है। इसके लिए ज़रूरी है कि टीम का हर सदस्य अपने काम में अव्वल हो, माहिर हो। जो ज़िम्मेदारी आप जिसे सौंपना चाहते हैं, उसे उसकी पूरी समझ हो, उसमें निभाने का पूरा माद्दा हो। इसलिए कभी भी किसी भी व्यक्ति का चयन करते समय इन बातों का ध्यान रखें। ज़रूरी नहीं है कि ऐसा व्यक्ति इंटरव्यू के माध्यम से ही मिले। यदि आपको तलाश है तो कोई न कोई व्यक्ति आपको अचानक कहीं मिल ही जाएगा, जैसे कि अकबर को बीरबल मिल गए। इस प्रसंग से यह भी सीखा जा सकता है कि किसी भी व्यक्ति से एकदम प्रभावित होकर उसके प्रशंसक न बनें। पहले यह देख लें कि क्या वह वाकई में उतना योग्य है, जितना आप समझ रहे हैं या फिर उसकी योग्यता वहीं तक सीमित है, जिसका वह प्रदर्शन कर रहा था। बाकी तो डब्बा गोल है। बीरबल ने तभी ताली बजाई, जब वे बहुरूपिए की कला का अपने तरीके से आंकलन करके संतुष्ट हो गए। दूसरी ओर, उस बहुरूपिए की तरह जो भी काम करें, डूबकर करें, खो जाएँ उसमें। तभी आप अपने हुनर के उस्ताद कहलाएँगे, तभी आपको सही पारखियों की दाद मिलेगी। इसके लिए आपको अपनी भूमिका के प्रति हर वक्त सतर्क रहना होगा। तभी आप उसे ठीक से निभा पाएँगे और तभी लोग आपकी सफलता पर बजाएँगे तालियाँ।

Thursday, January 28, 2016

बिना आवाज़ किए पड़ती है उसकी लाठी


     एक बार फ्लेमिंग नामक एक गरीब किसान सुबह-सुबह काम पर जा रहा था, तभी उसे उसके घर के पास ही स्थित दलदल से किसी के चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना तो कोई सहायता के लिए पुकार रहा था। अपना सारा सामान फेंककर वह दलदल की ओर दौड़ा। वहाँ जाकर उसने देखा कि एक लड़का कमर तक धँसा हुआ है। वह बाहर आने की कोशिश में दलदल के अंदर धँसता चला जा रहा था।
     फ्लेमिंग बिना समय गँवाए उसे बचाने की कोशिशों में जुट गया। बहुत प्रयत्न करने के बाद वह अंततः उस लड़के को मौत के मुँह से निकाल लाने में कामयाब हो गया। वह लड़का उसका शुक्रिया अदा करके वहाँ से चला गया। फ्लेमिंग भी अपने काम पर चल दिया। अगले दिन एक शानदार कार फ्लेमिंग के घर के दरवाज़े पर आकर रूकी। उसमें से एक संभ्रांत व्यक्ति बाहर उतरा और फ्लेमिंग की ओर बढ़कर बोला-मैं उस लड़के का पिता हूँ जिसकी तुमने कल जान बचाई थी। उसे बचाकर तुमने मुझ पर बहुत बड़ा अहसान किया है। इसके लिए तुम्हारा शुक्रिया। इसके बदले मैं तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ। इस पर फ्लेमिंग बोला-"नहीं श्रीमान्! मैंने जो कुछ किया, वह मेरा फर्ज था। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे खुशी है कि मैं आपके बेटे की जान बचा पाया। इतने में फ्लेमिंग का बेटा बाहर निकलकर अपने पिता के पास खड़ा हो गया। उसे देखकर वह व्यक्ति बोला-"क्या ये तुम्हारा बेटा है?' फ्लेमिंग ने हामी भरी। वह व्यक्ति बोला-"तुमने मेरे बेटे के लिए किया। अब मैं तुम्हारे बेटे के लिए कुछ करना चाहता हूँ। इसे सौदा नहीं, मेरी भावना समझना। मैं चाहता हूँ कि मैं तुम्हारे बेटे की शिक्षा का सारा खर्च उठाऊँ।' मैं इसका पूरा ख्याल रखूँगा। यह एक ऐसे व्यक्ति के रूप में बड़ा होगा जिस पर कि हम सभी को गर्व होगा। फ्लेमिंग उस व्यक्ति के आग्रह को ठुकरा नहीं पाया और उसके लड़के ने लंदन से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की। बाद में फ्लेमिंग का यह लड़का एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग के नाम से जाना गया। वे ही फ्लेमिंग जिन्होने पेनिसिलिन के टीके का आविष्कार किया। इस आविष्कार के कुछ दिन के बाद ही उस संभ्रांत व्यक्ति का बेटा बीमार हो गया। उसे खतरनाक न्यूमोनिया हुआ था। तब इसी टीके से उसकी जान बची। जानते हैं वह संभ्रांत व्यक्ति कौन था। वे थे लार्ड रेंडाल्फ चर्चिल और उनका बेटा। आप समझ ही गए होंगे। जी हाँ, ब्रिाटेन के महानतम प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल।
     दोस्तो, इसे कहते हैं जैसा बोओगे, वैसा काटोगे। यदि आप दूसरों के साथ अच्छा करोगे तो आपके साथ भी अच्छा ही होगा। और यदि आप दूसरों के साथ बुरा करोगे तो आप कितने ही बड़े क्यों न हों, आपके साथ भी बुरा होकर ही रहेगा। आप उससे बच नहीं पाएँगे। लेकिन बहुत से ताकतवर लोग अपनी ताकत के मद में यह बात भूल जाते हैं या यह कहें कि वे इस बात को जानकर भी नहीं जानना चाहते । उन्हें लगता है कि वे अपनी किस्मत को अपने हिसाब से मोड़ सकते हैं, कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यदि आप भी इसी सोच के हैं, तो हम चाहेंगे कि आप इस गलतफहमी को दूर कर लें। आप कितने ही बड़े आदमी बन जाएँ, आपको अपने किए का परिणाम तो भुगतना ही होगा। यदि आपने गलत किया है तो आपके साथ भी गलत होगा। कई लोग यह समझ ही नहीं पाते कि उनके साथ बुरा क्यों हुआ। जबकि जाने-अनजाने में वे अवश्य ही कुछ ऐसा कर चुके होंगे जिसकी सजा अब भुगत रहे हैं। वे अपने किए को भले ही दुनियाँ से छुपा लें, लेकिन ईश्वर से और अपने आप से तो कुछ भी छुपा नहीं सकते। और वे जो भी गलत करते हैं, उसकी सजा आज नहीं तो कल उन्हें भुगतनी ही पड़ती है। अब वह किस रूप में भुगतनी पड़ेगी, यह नहीं कहा जा सकता। ऊपर वाले की लाठी उन पर चलेगी ही। और वह लाठी जब पड़ती है तो आवाज़ भी नहीं होती। इसलिए यदि आप अपने जीवन में सब कुछ अच्छा चाहते हो, तो दूसरों के लिए भी अच्छा करो। ज़रूरतमंदों की सहायता करो, लोगों का सहयोग करो, सेवा से कभी चूको मत, परायों के काम आओ। तब आपको भी वही सब सुख और खुशियां मिलेंगी जो आपने दूसरों को बाँटी थीं। वैसे भी दूसरों के लिए करने में जो आनंद मिलता है, वह अतुलनीय होता है।

Wednesday, January 27, 2016

धूल में मिला सकती है छोटी-सी भूल


     एक पौराणिक कथा है। एक बलशाली किन्तु मूर्ख असुर था भस्मासुर। वह शिव का उपासक था। एक बार उसने अपनी शक्तियों को बढ़ाने के लिए जंगल में जाकर शिव की कठोर तपस्या की। बहुत समय बाद भी जब शिव प्रकट नहीं हुए तो उसने अपने शरीर का मांस काट-काट कर शिव को चढ़ाना शुरु कर दिया। लेकिन शिव फिर भी प्रकट नहीं हुए। तब एक दिन उसने अपना शीश शिव को अर्पित करने का निश्चय किया। जब वह ऐसा करने ही जा रहा था कि शिव वहाँ प्रकट होकर उससे बोले-रुको, भस्मासुर! तुम्हें अपना शीश अर्पित करने की आवश्यकता नहीं। मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। माँगो, तुम्हे क्या वरदान चाहिए। इस पर भस्मासुर बोला-महादेव! आप मुझे यह वरदान दें कि मैं जिस किसी भी प्राणी के सिर पर भी हाथ रख दूँ वह तुरन्त भस्म हो जाए।
     शिव बोले-तथास्तु! इसके पहले कि वे अन्तर्धान होते भस्मासुर आगे बढ़कर उनके ही सिर पर हाथ रखने लगा। वे उसकी मंशा को भाँपकर वहाँ से अपनी जान बचाकर भागे। भस्मासुर भी उनके पीछे भागा। शिव जहाँ भी जाएँ, वह भी वहाँ पहुँच जाए। अंततः वे सहायता माँगने के लिए विष्णु के पास पहुँचे। उन्हें सारी घटना के बारे में बताकर शिव बोले-मुझसे भूल हो गई, जो मैं उस कृतघ्न असुर को वर दे बैठा। अब आप ही मुझे उससे बचा सकते हैं। इस पर विष्णु बोले- आप चिंतित न हों। उस दुष्ट को मैं देख लूँगा। इस बीच भस्मासुर शिव को खोज रहा था। तभी राह में उसे एक सुंदर स्त्री मिली। भस्मासुर को भागते देख उसने पूछा- हे असुर! आप किसकी खोज में भागे जा रहे हो? लगता है कि बहुत थक गए हो। कुछ देर ठहरकर यहाँ विराम कर लो। जब आराम मिल जाए तो पुनः खोजने निकल पड़ना। उसकी मनमोहिनी बातें और अदाओं पर मोहित होकर भस्मासुर ठहर गया। मोहिनी को सारी बात बताकर वह बोला-मुझे समझ में नहीं आ रहा कि महादेव मुझसे बचकर क्यों भाग रहे हैं? मोहिनी बोली-जिससे कि तुम्हें उनके छल का पता न चल सके। इस पर भस्मासुर आश्चर्य से बोला-कैसा छल, क्या शिव अपने भक्त को छल सकते हैं? मुझे विश्वास नहीं होता। मोहिनी बोली- फिर वे तुमसे बचकर क्योंं भाग रहे हैं? उन्होने निश्चित ही झूठा वरदान देकर तुम्हें छला है। यदि तुम्हें मेरी बात का विश्वास नहीं तो अपने सिर पर हाथ रखकर देख लो।
     भस्मासुर मोहिनी की चतुराई को नहीं समझ पाया और बोला-हाँ, यह तरीका ठीक है। ऐसा कहकर उसने अपने सिर पर हाथ रख लिया। हाथ रखते ही वह तुरंत भस्म हो गया। इसके बाद मोहिनी रूपधारी विष्णु अपने असली स्वरुप में आ गए। तभी शिव वहीं प्रकट हुए और अनजाने में हुई अपनी भूल को सुधारने के लिए उन्होने विष्णु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। भस्मासुर की यह कथा हमने अलग-अलग रूपों में पढ़-सुन रखी है, लेकिन यहाँ बात कथा के रूप की नहीं बल्कि उसके भाव की है। यह कथा हमें सीख देती  है कि हमको किसी अयोग्य व्यक्ति को भूल से भी ऐसी शक्ति नहीं देनी चाहिए, जिसका कि वह अधिकारी न हो। क्योंकि उस शक्ति का सदुपयोग न कर पाने के वजह से वह  एक दिन अपने साथ ही हमें भी नुकसान पहुँचा सकता है। यानी वह अपनी छवि के साथ हमारी छवि को भी धूमिल कर सकता है।

Tuesday, January 26, 2016

रहकर भी पा सकते हो और छोड़कर भी


     एक संत के पास एक भक्त आया। उसने पूछा-"स्वामी जी, क्या घर में रहकर ही व्यक्ति सांसारिक बंधनों से विरक्त रहकर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता?' संत ने जवाब दिया- "क्यों नहीं, अपने घर को छोड़े बिना भी व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हम सभी के सामने महाराज जनक का उदाहरण है, जो सांसारिक बंधनों के बीच रहकर भी विदेह कहलाए।' संत की बात से आश्वस्त होकर वह लौट गया। कुछ दिन बाद एक दूसरा भक्त संत के पास आया वह बोला, "स्वामी जी, मुझे लगता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए घर का त्याग ज़रूरी है। आपका क्या कहना है?' संत बोले, तुम्हारा सोचना एकदम ठीक है। घर-गृहस्थी की बातें तुम्हें तुम्हारे मार्ग से भटकाती रहेंगी। ऐसे में तुम अपना लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं कर पाओगे। यदि ऐसा न होता तो हमारे ऋषि-मुनि, संत महात्मा घर-बार छोड़कर एकांत में जाकर तपस्या क्यों करते? तुम ऐसा ही करो। वह भक्त भी संतुष्ट होकर चला गया।
     वहाँ से वह सीधे अपने मित्र के पास पहुँचा और उसे संत की बात बताई। उसकी बात सुनकर मित्र हैरान रह गया। उसका हैरान होना स्वाभाविक था, क्योंकि वह वही व्यक्ति था जिसे संत ने घर में रहकर ही मोक्ष प्राप्ति की बात कही थी। वे दोनों संत के पास पहुँचे और उनसे इस बात का कारण पूछा। संत बोले- "मैने तुम दोनों की मनोवृत्तियाँ देखकर ही हँा में हाँ मिलाई थी। तुममें से एक की मनोवृत्ति घर पर ही रहने और दूसरे की घर छोड़ने की थी। चूँकि मोक्ष प्राप्ति दोनों ही मार्गों से संभव है, इसलिए मैने तुम्हें वैसा करने से रोका नहीं।'
     दोस्तो, सही तो है। जब दोनों ही रास्ते मोक्ष की ओर ले जाते हों तो फिर जिस रास्ते से जाने का आपका मन है, उसी से जाओगे तो लक्ष्य तक पहुँचना आसान हो जाएगा। वैसे भी जब राह अपने मन की होगी तो उस रास्ते से जाने में मन में कोई संदेह नहीं होगा, मन में कुछ अटकेगा नहीं, खटकेगा नहीं। तब आप अधिक जोश और उत्साह से रास्ता आसानी से नाप लोगे।

Monday, January 25, 2016

ज़रूरत से ज्यादा खाना माने सुख-चैन खोना


     राजा प्रसेनजित को जंगली घोड़ों को पकड़ने के खेल में बड़ा मज़ा आता था। वे घंटोें तक बिना थके घोड़ों का पीछा करते रहते थे और जब तक पचास घोड़े नहीं पकड़ लेते, दम नहीं लेते थे। लेकिन धीरे-धीरे उनकी चुस्ती-फुर्ती गायब होने लगी। क्योंकि खाने पर नियंत्रण न रख पाने से उनके शरीर का वजन बढ़ता जा रहा था। इससे जल्दी ही उनकी साँस फूल जाती थी। बढ़ते वजन से जहाँ उनकी निष्क्रियता बढ़ी, वहीं वे चिड़चिड़े और आलसी भी हो गए।
     प्रसेनजित बुद्ध के बड़े भक्त थे। एक बार बुद्ध उनके नगर कौसल पधारे। अपने भतीजे सुदर्शन के साथ वे बुद्ध के पास पहुँचे, उन्हें प्रणाम किया और बैठकर प्रवचन सुनने लगे। वहाँ आने से पहले उन्होने जमकर भोजन किया था, जिसकी वजह से उन्हें नींद आने लगी। नींद भगाने के लिए बार-बार वे खुद को चिमटी काटते या आँखें मलते। इस कारण वे ढंग से प्रवचन नहीं सुन पाए। प्रवचन खत्म होने पर बुद्ध ने उनसे पूछा-राजन्! क्या आपने यहाँ आने से पहले विश्राम नहीं किया था? राजा ने कहा, नहीं, ऐसी बात नहीं है प्रभु। भोजन करने के बाद मेरी यही हालत हो जाती है। बुद्ध ने कहा- यानी तुम ज्यादा खाते हो। ज्यादा खाने वाले व्यक्ति की ही ऐसी हालत होती है। तुम्हें भोजन पर नियंत्रण रखना चाहिए। तुम जब भी खाने बैठो, तब यह मंत्र बोलो- "संतुलित खाने वाला ही लंबे समय तक युवा और सक्रिय बना रहता है।' इससे तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी। राजा ने कहा-भंते, आजकल मेरी स्मृति भी कमजोर हो गई है, पता नहीं मैं यह बात भी याद रख पाऊँगा कि नहीं। बुद्ध ने कहा-यह भी तुम्हारे अधिक खाने का नतीजा है। कोई बात नहीं। तुम्हारी बेहतरी के लिए यह काम सुदर्शन करेगा। इसके बाद वे लौट आए और सुदर्शन अपना काम पूरी ईमानदारी से करने लगा। जब भी प्रसेनजित ज्यादा खाने की माँग करते, वह बुद्ध द्वारा दिया मंत्र दोहरा देता। समय के साथ उनका वजन कम होने लगा और उन्होने खुद ही खाने पर नियंत्रण रखना भी शुरू कर दिया। उससे उनकी चुस्ती-फुर्ती लौट आई। वे फिर से एक ही दिन में पचास घोड़े पकड़ने लगे।
     दोस्तो, देखा आपने ज्यादा खाने से क्या-क्या नुकसान होते हैं। इससे व्यक्ति का वजन बढ़ता है वह आलसी होने लगता है, उसकी याददाश्त कमजोर होने लगती है। इन सबके कारण वह अपनी उम्र से बड़ा दिखने लगता है। यानी केवल जीभ पर नियंत्रण न रख पाने की वजह से वह अपने दिल और दिमाग पर से भी नियंत्रण खो देता है। कह सकते हैं कि बढ़ती चर्बी व्यक्ति के दिल ही नहीं, दिमाग को भी प्रभावित करती है। सोचें आप, कितना नुकसानदेह है ज्यादा खाना। इन सबसे बचने का तरीका यही है कि व्यक्ति अपनी जीभ पर नियंत्रण रखे। यह बात खाने और बोलने दोनों पर लागू होती है।
     कहते हैं अति किसी भी चीज़ की अच्छी नहीं होती तो फिर खाने में अति कैसे अच्छी हो सकती है। यह अति भी हानिकारक होती है। ज्यादा खाने से जब मोटापा बढ़ता है तो वह अपने साथ लाता है नई नई बीमारियाँ। जिसके चलते आदमी अपना सुख-चैन खो देता है। यदि आप इन बीमारियों से बचना चाहते हैं और हमेशा एक जैसी फुर्ती से काम करते रहना चाहते हैं तो एक बात की गाँठ बाँध ले कि आज से खाने के लिए नहीं जीएँ बल्कि जीने के लिए खाएँ। यानी आप हमेशा संतुलित भोजन करें। एक ही बार में अधिक खाने की बजाय तीन बार में थोड़ा-थोड़ा खाएँ। आप सुबह का खाना जमकर करें। लंच में कम खाएँ और डिनर में तो और भी कम खाएँ। यदि आपने यह शुरू कर दिया तो फिर आप कभी मोटे नहीं होंगे। आप सोच रहे होंगे कि हम खाने के पीछे पड़ गए हैं। आपका सोचना ठीक है, लेकिन ये बातें हमने इसलिए दोहराई हैं कि यह मामला आपकी सेहत से जुड़ा है और यदि आपकी सेहत ही अच्छी नहीं रहेगी तो बाकी बातें बेमानी हैं। वो कहते हैं न कि "पहला सुख निरोगी काया।' इसलिए संतुलित भोजन कर काया को संभाल और सँवारकर रखें तभी आप माया का सुख भोग पाएँगे। लेकिन पकवानों का मज़ा लेते समय बुद्ध का मंत्र ज़रूर याद करते रहिएगा। है न फायदे की बात।

Sunday, January 24, 2016

यदि हो चुके हो आदी तो हो जाओगे आदि


     मगध का राजा श्रेणिक अहिंसावादी और शाकाहारी था। उसके राज्य में एक कसाई था, जो रोज लगभग पाँच सौ भैंसे काटता था। राजा के अधिकारियों ने उस कसाई को यह काम छोड़ने के लिए कई तरह के प्रलोभन दिये। लेकिन वह नहीं माना। क्योंकि उसे तब तक शांति नहीं मिलती थी, जब तक कि वह पाँच सौ भैंसे न काट ले। अंततः एक दिन राजा ने उसे अपने दरबार में बुलवाया।
     जब वह दरबार में पहुँचा तो राजा बोला- "यदि तुम राजी-मर्जी से यह हिंसा करना नहीं छोड़ोगे तो तुम्हें कठोर दंड दिया जाएगा।' कसाई बोला-"महाराज! मैं अपनी आदत का गुलाम हूँ। यह काम छोड़ूँगा तो मैं मर जाऊंगा। जिस दिन यह काम नहीं करता, उस दिन बेचैनी इतनी बढ़ जाती है कि घबराकर मुझे फिर से अपना काम चालू करना पड़ता है। इसलिए मैं यह काम नहीं छोड़ूँगा।' उसकी बात सुनकर राजा को क्रोध आ गया। उसने दंड सुनाया- "इस कसाई को अन्धे कुएँ में डाल दो। देखें इसकी आदत कैसे नहीं छूटती।' राजाज्ञा का तुरंत पालन हुआ और कसाई को कुएँ में डाल दिया गया।
     कुछ दिन बाद उसे निकालकर राजा के सामने हाज़िर किया गया। राजा बोला- "इतने दिनों से तुमने एक भी भैंसा नहीं मारा और तुम जिंदा हो। आखिर तुम्हारी यह आदत छूट ही गई।' कसाई बोला-"नहीं महाराज, मेरी आदत नहीं छूटी।' राजा ने पूछा- "यह कैसे हो सकता है? कुएँ में तुम्हें भैंसे कहाँ से मिलीं?' कसाई ने कहा- "जी, मैं रोज कुएँ में मिट्टी के पाँच सौ भैंसे बनाकर उनको हलाल करता था।
    दोस्तो, देखा आपने। आदतें क्या गुल खिला सकती हैं। इसीलिए आदतों को रोकना ज़रूरी है, वरना ये ज़रूरतें बन जती हैं और अपने हिसाब से व्यक्ति को चलाने, निर्देशित करने लगती हैं। इस तरह ये आपके स्वामी या मालिक की तरह व्यवहार करने लगती हैं। और जब ऐसा होने लगे तो इससे बुरी स्थिति कोई हो नहीं सकती। इसीलिए आदतों के बारे में कहा गया है कि वो सेवक के रूप में जितनी अच्छी होती है, काम की होती हैं, स्वामी के रूप में उतनी ही बुरी। स्वामी के रूप में ये व्यक्ति के सिर चढ़कर बोलती हैं। वह इनका ऐसा गुलाम हो जाता है कि इनके बिना उसे अपना अस्तित्व ही नज़र नहीं आता। यकीन नहीं आता तो किसी नशेबाज़ से पूछो कि बिना नशा किए उसकी क्या स्थिति होती है। अब नशा कैसा भी हो। जिसको जिस नशे की आदत पड़ चुकी हो, वह उसके बिना रह ही नहीं सकता।
     ऐसी ही स्थिति उन लोगों की भी होती है, जो बहुत समय से एक ही काम कर रहे हों, एक जैसी ज़िन्दगी जी रहे हों। उन्हें वैसा ही करने या जीने की आदत पड़ जाती है। यदि इन लोगों से अपनी जीवनशैली या कार्यशैली बदलने को कहा जाए तो इनके ऊपर आसमान टूट पड़ता है। ये परिवर्तन का विरोध करते हैं, क्योेंकि इनकी आदतें ऐसा नहीं चाहती। इनके दिमाग में यह बैठा रहता है कि जो रोज कर रहे हैं या जैसा करते आ रहे हैं, वैसा नहीं करेंगें तो कुछ नहीं कर पाएँगे। ऐसी सोच गलत है।
     यदि आप भी ऐसा ही सोचते हैं तो अपनी आदत को बदलें। आप आदत पर हावी हों, आदतें आप पर नहीं। यदि कोई बुरी आदत है और आसानी से छूटती नज़र नहीं आती तो उसका विकल्प तलाशें। जैसे कि कसाई ने मिट्टी के भैंसे बनाकर हलाल करना शुरू कर दिया और उसके मन ने इसे स्वीकार कर लिया। वैसे ही आप भी कोई विकल्प तलाशें। जैसे आपकी गुटखा खाने की आदत है तो सौंफ खाएँ या कोई और अच्छा विकल्प तलाशें। ऐसे ही हर चीज़ का विकल्प हो सकता है। और इस विकल्प को आप खुद तलाशेंगे तभी आपके मन को स्वीकार्य होगा। हमारे बताने से नहीं।
     दूसरी ओर, हम यह नहीं कहते कि सारी आदतें बदल डालें। कुछ आदतें अच्छी भी होती हैं। जैसे रोज सुबह उठकर व्यायाम करने या घूमने की आदत। ऐसी अच्छी आदतों कोे बदलना नहीं चाहिए। हाँ, व्यायाम की जगह या घूमने के रास्ते को बदलते रहना चाहिए, जिससे कि दिमाग में रास्ते या जगह को लेकर ही कोई बात न बैठ जाए। इसी तरह आप लगातार अपने काम और जीने के तरीके में बदलाव लाते रहेंगे तो आप किसी चीज़ के आदी नहीं बनेंगे। और यदि आदी नहीं हुए तो कभी "आदि' भी नहीं होंेंगे यानी आप विचार और व्यवहार से कभी पुराने नहीं होंगे बल्कि "अऩादि' रहेंगे, हमेंशा तरोताज़ा रहकर समय के साथ चल पाएँगे।

Saturday, January 23, 2016

यदि उड़ने नहीं दोगे तो वह उड़ जाएगा!


     भवन निर्माण की कला में निपुण कारीगर की प्रसिद्धि सुनकर उसके नगर के राजकुमार ने उसे एक बेहद खूबसूरत महल निर्माण का कार्य सौंपा। वह पूरी लगन और मेहनत से महल के निर्माण में लग गया। जब निर्माण कार्य अंतिम स्थिति में था, तो राजकुमार महल देखने आया। उसकी खूबसूरती देखकर वह मंत्रमुग्ध हो गया। राजकुमार ने कारीगर की खूब प्रशंसा की। अंत में उसने उससे पूछा- "क्या ऐसा महल तुमने किसी और के लिए भी बनाया है?' कारीगर ने कहा- "नहीं राजकुमार।' राजकुमार ने कहा-अति उत्तम।
     इसके बाद राजकुमार अपने एक दरबारी संजिक से बोला-" मैं ऐसा दूसरा महल कभी बनने भी नहीं दूँगा।' संजिक बोला-"वह कैसे?' राजकुमार ने कहा- "है एक तरीका।' ऐसा कहकर वह कुटिल मुस्कान बिखेरता हुआ आगे बढ़ गया। संजिक उसका आशय समझ गया। वह सोचने लगा कि एक श्रेष्ठ कलाकार को मारना उचित नहीं। अवसर देखकर वह कारीगर से मिला और उससे पूछा- "क्या महल तैयार हो चुका है?' कारीगर ने कहा- "जी, हुज़ूर।' संजिक ने कहा- "कई बार व्यक्ति की खूबी ही उसकी जान की दुश्मन बन जाती है। इसलिए तुम सचेत रहना।' ऐसा कहकर वह चला गया। अगले दिन जब राजकुमार ने कारीगर को बुलाकर पूछा कि महल पूरा हो गया या अभी काम बाकी है, तो कारीगर बोला- "कुमार, अभी तो एक ऐसा काम बाकी है, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। इसके लिए मुझे अच्छी गुणवत्ता की लकड़ी की ज़रूरत है। साथ ही यह काम मैं एकान्त में करूँगा ताकि कोई देख न ले। आप इसकी व्यवस्था करा दें।' ऐसा ही किया गया। कारीगर अपने काम में जुट गया। उसने उस लकड़ी से एक विमान का निर्माण किया। इस बीच राजकुमार को कुछ संदेह हुआ। उसने चारों ओर से महल को घेर लिया। स्थिति को भाँपकर कारीगर ने अपनी पत्नी और बच्चे को विमान में बिठाया और उड़कर दूसरे राज्य में पहुँच गया। इसके बाद उसने और भी कई शानदार महल खड़े किए।
     दोस्तो, कहते हैं प्रतिभा तभी फलीभूत होती है जब उसे चातुर्य का साथ मिल जाए, क्योंकि चतुरता ही प्रतिभा को कार्यान्वित करने वाला, उसे बढ़ाने वाला यंत्र होता है। यदि कारीगर में प्रतिभा के साथ चतुराई न होती तो निश्चित ही वह अपनी जान से हाथ धो बैठता। यानी इससे यह बात स्थापित होती है कि व्यक्ति में उसकी तरह ही प्रतिभा के साथ चातुर्य गुण भी होना चाहिए। चातुर्य गुण का सीधा संबंध बुद्धि से है। यानी प्रतिभावान व्यक्ति बुद्धिमान भी है तो उसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। यदि कोई उसकी प्रतिभा को दबाने, कुचलने की कोशिश करेगा तो वह सफल नहीं हो पाएगा।
     दूसरी ओर, आप बहुत-सी ऐसी प्रतिभाओं को जानते होंगे, जो एक सीमा से ज्यादा आगे बढ़ ही नहीं पार्इं। इनमें से किसी की खूबियों को देखकर लोग दावे करते होंगे कि देखना यह बहुत आगे जाएगा। वह आगे की तो छोड़ो, जहाँ था वहाँ से भी पीछे चला गया। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। लेकिन अकसर जो कारण अहम होता है वह है उस राजकुमार जैसा कोई व्यक्ति, जिसके मन में उसकी खूबी को देखकर सकारात्मक विचार आने की बजाए नकारात्मक विचार आए होंगे और उसने उसकी प्रतिभा को बढ़ाने, उसका उपयोग करने की बजाए उसे दबाना शुरु कर दिया होगा।
     ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि कई बार व्यक्ति की प्रतिभा को देखकर लोग खुश तो बहुत होते हैं, लेकिन साथ ही उन्हें यह भय भी सताने लगता है कि यदि यह हमें छोड़कर किसी और के लिए काम करनेे लगा तो नुकसान हो जाएगा। ऐसे में बिना बात के आशंकित होकर वे उस व्यक्ति के पर काटने लगते हैं, जिससे वह ज्यादा न उड़ सके यानी आगे न बढ़ सके। लेकिन इससे होता उल्टा है। जब बात असहनीय हो जाती है तो वह उड़ जाता है यानी कहीं और जाकर बेहतर तरीके से काम करने लगता है, जहाँ कि उसकी प्रतिभा की कद्र होती है।
     इसलिए उचित यही है कि कोई यदि पूरी निष्ठा से आपके लिए अच्छा काम कर रहा है तो उसे प्रोत्साहित करें, उसे आगे बढ़ाएँ, वह और भी अच्छा करेगा। जिसका सीधा लाभ आपको और आपकी संस्था को होगा। तब वह भी सफलता की उड़ान भरेगा और आप भी। आज हम आपसे इतना ही कहना चाहेंगे कि आप भी अपनी प्रतिभा का चतुराई के साथ उपयोग करें और सफलता की ऊँची से ऊँची उड़ान भरें।

Thursday, January 21, 2016

क्यों न उन्हें भी बनाएँ अपना प्रिय मित्र!


विजय नाम के एक व्यक्ति के तीन दोस्त थे। उनमें से एक बहुत घनिष्ठ था जिससे उसकी रोज ही मुलाकात हो जाती थी। दूसरे दोस्त से उसकी मुलाकात सप्ताह में एकाध बार होती थी या फिर साप्ताहिक अवकाश के दिन वह उससे मिलने के लिए समय निकालता था। तीसरे दोस्त से वह बहुत कम मिल पाता था। कई बार तो दोनों को मिले हुए महीनों बीत जाते थे। इस प्रकार वर्षों से उनकी दोस्ती चली आ रही थी।
     एक बार की बात है। विजय एक मुकदमें में उलझ गया। उसने बहुत कोशिश की कि उससे बच जाए, लेकिन ऐसा हो न सका और उसे अदालत से एक निश्चित तिथि पर उपस्थित होने के लिए फरमान मिल गया। पेशी वाले दिन उदास मन से विजय अदालत जाने के लिए तैयार हो गया। अदालत जाने से पहले उसने सोचा कि क्यों न अपने सबसे प्रिय मित्र को साथ ले लिया जए। ऐसा सोचकर वह उसके पास पहुँचा और बोला-""दोस्त! मैं एक मुकदमें में फँस गया हूँ। आज मेरी पेशी है। तू मेरा सबसे प्यारा दोस्त है। मैं चाहता हूँ कि तू भी मेरे साथ चले। इससे मुझे साहस मिलेगा।'' विजय की बात सुनकर वह दोस्त तुरंत बोला- माफ करना यार, मुझे आज एक बहुत ज़रूरी काम है। इसलिए मैं तेरे साथ अदालत नहीं चल पाऊँगा। वैसे तू घबरा मत, मैं दुआ करूँगा कि फैसला तेरे पक्ष में हो।
     उसका जवाब सुनकर विजय को बहुत धक्का लगा। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसने जिस दोस्त को सबसे ज्यादा चाहा, वह मुसीबत में उसके साथ खड़े होने की बजाए किसी और काम को ज्यादा महत्व दे रहा है। वह निराश होकर वहाँ से चल दिया। तभी उसे सामने से अपना दूसरा दोस्त आता हुआ दिखाई दिया। उसकी जान में जान आई। नज़दीक आने पर उसने उसे भी अपनी परेशानी बताई और साथ चलने को कहा। इस पर वह बोला-""मित्र! मुझे आज तो तू छोड़ ही दे। काम के संबंध में बहुत दिन से किसी व्यक्ति के पीछे लगा था। उसने अभी मिलने का समय दिया है और मेरा उसके पास पहुँचना ज़रूरी है। एक काम करता हूँ, मैं तुझे अदालत के बाहर छोड़ता हुआ निकल जाता हूँ।'' उसने ऐसा ही किया और वह उसे अदालत के दरवाज़े पर छोड़कर चला गया। विजय मुँह लटकाए अदालत परिसर में प्रवेश कर ही रहा था कि सामने तीसरा दोस्त खड़ा दिखाई दिया। इसके पहले कि वह कुछ बोलता, दोस्त बोला- तुझे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। मुझे सब कुछ पता है। तू चिंता न कर, मैं अदालत में तेरे साथ पूरे समय रहूँगा। और यदि ज़रूरत पड़ी तो तेरे पक्ष में गवाही भी दूँगा। यह सुनकर विजय खुश हो गया और वे दोनों अंदर चले गए।
     दोस्तों, आप किस दोस्त को सबसे बेहतर बताएँगे। निश्चित ही तीसरे दोस्त को, जो विजय से यदा-कदा मिलता था, लेकिन जब उसे ज़रूरत पड़ी तो वही उसके काम आया। इस पूरे घटनाक्रम से विजय को पता चल गया कि वास्तव में उसका सच्चा दोस्त कौन-सा है, दोस्त तो वही होता है, जो मुसीबत में काम आए। वह दोस्त ही क्या, जो मुसीबत में साथ छोड़ जाए। कहते भी हैं कि आपात काल परखिए चारी, धीरज धर्म मित्र अरु नारी। तो फिर आप किस दोस्त को जीवन में ज्यादा महत्व देंगे? क्या कहा। तीसरे दोस्त को। एक बार फिर सोच लें। ठीक है। यदि आप अपनी बात पर अडिग हैं तो हम एक राज़ खोलते हैं। हमने अभी यह तो बताया ही नहीं है कि वें तीनों दोस्त वास्तव में थे कौन? पहला देस्त था विजय द्वारा कमाई गई धन-दौलत। दूसरा दोस्त था उसके मित्र-परिजन। और तीसरा दोस्त था उसके सत्कर्म, उसके सद्गुण। और जिस अदालत में हाज़िर होने का उसे फरमान मिला था, वह थी धर्मराज की अदालत, जहाँ कि एक दिन हम सभी को जाना होता है।
     विजय ने जीवनभर धन-दौलत को सबसे ज्यादा चाहा। जब उससे काम पड़ा तो सबसे पहले वही उसके पीछे छूटी। उसके बाद उसने अपने मित्र-परिजनों को महत्व दिया। वे भी उसे अदालत के दरवाज़े पर छोड़कर लौट आए और अपने-अपने कामों में लग गए। तीसरा दोस्त यानी उसके सत्कर्म, सद्गुण उसके साथ गए और उन्होने धर्मराज के सामने विजय के पक्ष में गवाही दी। तो यह थी दोस्तों की सच्चाई। आज की कहानी से जाना कि हमारा सच्चा मित्र कौन हो सकता है। यानी कह सकते हैं कि सत्कर्म और सद्गुण ही किसी व्यक्ति की सफलता में सबसे बड़ी भूमिका अदा करते हैं। तो फिर और मित्रों के साथ क्यों न इन्हें भी बनाया जाए अपना प्रिय मित्र।

सम्मिलित शक्ति से ही बनती है महाशक्ति


     एक बार दैत्यराज महिषासुर ने स्वर्ग पर आक्रमण कर इंद्र का सिंहासन हथिया लिया और तीनों लोकों पर अत्याचार शुरू कर दिया। सभी "त्राहिमाम्' कर उठे। देवता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे, क्योंकि उसे स्त्री के हाथों मारे जाने का वरदान मिला था। ऐसे  में सभी देवता ब्राहृा, विष्णु और महेश के पास पहुँचे। देवताओं की बात सुनकर तीनों की भृकुटियाँ तन गई। इससे उनके मुख से महातेज़ प्रकट हुए। सभी तेज़ मिलकर तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाली एक महाशक्ति के रूप में परिवर्तित हो गए।
     तत्पश्चात सभी देवताओं ने अपने-अपने अमोघ अस्त्र-शस्त्रों से उन्हें सुसज्जित किया। इसके बाद महाशक्ति देवी सिंह पर सवार हो महिषासुर का नाश करने निकल पड़ी। उनके अट्टहास से तीनों लोक काँप उठे। महिषासुर उस आवाज़ का पता लगाने बाहर आया तो देखा कि एक नारी सिंह पर सवार होकर आई है। देवी ने महिषासुर को देखकर उसे युद्ध के लिए ललकारा। उसने असुरों को देवी पर हमला करने का आदेश दे दिया। असुर देवी पर हमला करने लगे तब देवी ने जोर की साँस ली, जिससे हज़ारों गण पैदा हो गए। असुरों और गणों में महासंग्राम छिड़ गया। देवी ने असुरों का विनाश शुरू कर दिया। जिसे देखकर महिषासुर तिलमिला उठा। उसने भैंसे का रूप धारण किया और फुँफकारता हुआ देवी पर झपटा। देवी ने उसे अपने पाश में बाँध लिया। जब वह नहीं छूट सका तो सिंह का वेश धरकर झपटा। देवी ने उसका सिर काट दिया, लेकिन तब तक वह शरीर छोड़ चुका था और अनेक रूप रख-रखकर देवी पर हमले कर रहा था। देवी हर बार उसका शीश काटती लेकिन तब तक वह दूसरे रूप में आ जाता। युद्ध के नौवें दिन एक बार फिर उसने भैंसे के रूप में हमला किया। इस बार देवी ने उसका शीश काटने से पहले उसे अपने पाँव के नीचे दबा लिया। इसके बाद शीश काट दिया। शीश कटते ही महिषासुर जैसे ही उस भैंसे के मुख से निकलने लगा, देवी ने तलवार के वार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। उसके मरते ही देवताओं में हर्ष की लहर दौड़ गई। सभी देवी महाशक्ति की जय-जयकार करने लगे। इस तरह आसुरी वृत्ति पर दैवी वृत्ति की विजय हुई।
     दोस्तो, उस महिषासुर को तो देवी जगदंबा ने मार दिया था, लेकिन उस महिषासुर का क्या करें, जो हमारे अंदर बसता है। हमारी भोग-विलास की वृत्तियाँ। महिष माने होता है भैंसा। भैंसा प्रतीक है स्वार्थ का। और आज समाज इसी महिष प्रवृत्ति की गिरफ्त में है। इसी महिषासुर से पीछा छुड़ाने के लिए ही नवरात्रि के नौ दिन देवी का आह्वान किया जाता है ताकि वे हमारी आसुरी वत्तियों का अंत करें।
     दूसरी ओर, इस कथा में एक और संदेश छिपा है। वह है टीम भावना का, संगठन का, जिस शक्ति ने महिषासुर का मुकाबला कर उसे परास्त किया, वह सभी देवताओं के सम्मिलित तेज़ का परिणाम थी। ऐसे ही किसी भी संस्था की सफलता तभी संभव है, जब उसमें काम करने वाले लोग मिलकर एक टीम की तरह काम करें। ऐसे में उन सभी की छोटी-छोटी शक्तियाँ मिलकर एक बड़ी महाशक्ति बन जाती हैं। फिर ऐसी महाशक्ति के सामने बड़े-बड़े सूरमा भी नहीं टिक पाते। यानी ऐसे में प्रतिद्वंद्वी चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, वह परास्त होता ही है। इसलिए हमें हमेशा संगठन की भावना से काम करना चाहिए। इसी संगठन भावना को बढ़ाने के लिए ही गरबा की शुरूआत हुई, जिसमें सभी लोग माँ के चारों ओर घूमकर उनसे सद्बुद्धि माँगते हैं। तब सभी के मन में एक शुद्ध भाव होता है और शुद्ध भाव रखना भी चाहिए। वरना यदि आप असुरवृत्ति रखकर गरबा करोगे तो एक न एक दिन माँ आपको उसका दंड देगी ही। आज भले ही असुरवृति के पाश में बँधकर आप उसे न समझ पा रहे हों, लेकिन जिस दिन समझेंगे, तब तक देर हो चुकी होगी। इसलिए गरबे के असली भाव को समझकर ही गरबा करें। तभी तो माँ प्रसन्न होकर आपको शक्ति देंगी।
     अंत में, आज माँ से सच्चे दिल से प्रार्थना करें कि वे आपको इतनी शक्ति प्रदान करें, जिससे कि आप अपने लक्ष्य को पा सकें। साथ ही माँ से यह भी प्रार्थना करें कि वे आपके अंदर महिष प्रवृत्ति यानी स्वार्थ की भावना को न पनपने दें और आप टीम भावना से काम करते रहें। यदि पनप चुकी है, तो वे उसका शीश काट दें।

Wednesday, January 20, 2016

माँस काटकर दोगे तभी बचेगा कबूतर


     महाप्रतापी एवं धर्मपरायण राजा शिबि एक दिन यज्ञ कर रहे थे कि तभी एक डरा-सहमा कबूतर उनकी जाँघ पर आकर बैठ गया और उनसे बोला-"राजन्! मैं आपकी शरण में हूँ। मेरी रक्षा कीजिए।' शिबि बोले-घबराओ मत। मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगा। लेकिन तुम्हारे पीछे कौन पड़ा है? तभी एक बाज शिबि के सामने आकर बैठ गया। वह बोला-महाराज, यह मेरा शिकार है। इसे मुझे सौंप दें। राजा शिबि ने कहा, नहीं, इस कमजोर प्राणी की रक्षा करना मेरा धर्म है। बाज ने कहा। तो महाराज, मैं भी आपकी शरण में हूँ और बहुत भूखा हूँ। यदि मैं कुछ नहीं खाऊँगा तो मर जाऊँगा। मैं मरा तो मेरी पत्नी और बच्चे अनाथ हो जाएँगे। मैं आपसे रक्षा की गुहार लगाता हूँ। तभी कबूतर बोला-राजन्! भगवान के लिए आप मुझे इसे मत सौंपना। शिबि ने उसे आश्वस्त किया और बाज से बोले- तुम्हें भूखा नहीं मरना पड़ेगा। इसकी जगह तुम भोजन के लिए जो जानवर चाहो, ले सकते हो। बाज बोला-मैं उन्हें लेकर क्या करूँगा? कबूतर ही मेरा भोजन है। इसलिए इसे मुझे दे दें। शिबि बोले-भले ही मेरा राजपाट चला जाए, लेकिन मैं इसे नहीं दूँगा। राजा के दृढ़निश्चय को देखकर बाज बोला-तो ठीक है। यदि आपको यह इतना प्रिय है तो आप अपनी दाहिनी जाँघ से इसके वजन के बराबर मांस काटकर दे दें। मेरा काम हो जाएगा। शिबि तुरंत उसकी बात मान गए।
     इसके बाद एक तराजू मँगाया गया जिसके एक पलड़े पर कबूतर को बिठा दिया गया और दूसरे पलड़े पर शिबि ने अपनी जाँघ का मांस काटकर रख दिया। लेकिन तराजू ज़रा भी नहीं हिला। इसके बाद शिबि अपने शरीर के अलग-अलग हिस्सों से मांस काटकर तराजू पर चढ़ाते गए लेकिन तब भी पलड़े को हिलता न देख शिबि खुद तराजू पर चढ़ गए। उन्हें ऐसा करते देख बाज और कबूतर अपने असली रूप में आ गए। शिबि के सारे घाव भी गायब हो गए। वे दोनों दरअसल इंद्र और अग्नि थे, जो उनकी कर्तव्यनिष्ठा की परीक्षा लेने आए थे और शिबि ने इसमें खरा उतरकर स्वर्ग में अपना स्थान बना लिया।
     दोस्तो, क्या बात है! एक दृढ़निश्चयी और अपनी बात एवं व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। जो कह दिया सो कह दिया। फिर तो अपने कहे को पूरा करना ही है फिर कर्तव्य पालन के लिए चाहे कितनी ही बड़ी विपत्तियों का सामना क्यों न करना पड़े। हर विपत्ति दरअसल आपकी परीक्षा लेने आती है। यदि आप इस परीक्षा में पास हो जाते हैं यानी अपनी बात से डिगते नहीं हैं, तो आपको सफलता अवश्य मिलती है। शिबि की तरह आपको भी यदि किसी कबूतर की जान बचाने के लिए अपने शरीर का मांस काटकर देना पड़े, तो देंगे ना? सोच में पड़ गए। हम यहाँ बात कर रहे हैं आपके कबूतर यानी आपके दिल की। यदि उसे बचाने के लिए आपको अपना मांस काटकर देना पड़े तो क्या करेंगे? तैयार हो जाएँगे न मांस देने के लिए। कैसे नहीं होंगे। आपको देना ही पड़ेगा। आँकड़े बताते हैं कि मोटे लोगों को हार्ट अटैक की आशंका अधिक होती है, फिर भले ही उनकी उम्र कुछ भी हो। ऐसे में यदि आप अपने हार्ट को यमराज रूपी बाजक की चपेट से बचाना चाहते हैं तो उन्हें अपने शरीर का मांस देना ही होगा। हाँ देने का तरीका बदल जाएगा। आपको अपना मांस नहीं काटना होगा, अपना तेल निकालना होगा यानी अपने शरीर की चर्बी को गलाना होगा। और यह होगा नियमित व्यायाम और संतुलित भोजन करने से। यदि आप अपने वजन को निंयत्रित करने में कामयाब हो गए तो फिर आपके कबूतर को कोई खतरा नहीं रहेगा। तो फिर तैयार हैं न आप आज से यह सब करने के लिऐ? "हेल्दी वेट, हेल्दी शेप' यानी स्वस्थ वजन स्वस्थ डील डौल। सही तो है, यदि वजन ठीक रहेगा तो व्यक्तित्व भी आकर्षक लगेगा। वजन कम रहने से आपके शरीर में फुर्ती भी रहेगी। और फुर्ती रहेगी तो आपकी कार्य क्षमता भी बढ़ेगी जो आपको सफलता दिलाएगी। यानी आप भी शिबि की तरह अपने शरीर का मांस देंगे तो आपको भी मिलेंगे स्वर्ग जैसे सुख। तो तैयार हैं न आप भी अपना तेल निकालने-- हमारा मतलब है व्यायाम के ज़रिये अपना वजन कम करने के लिए।

Tuesday, January 19, 2016

आपने लगाई है तो आपसे ही खुलेगी गाँठ-19.01.2016


     एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। उन्होंने अपने सामने रखे एक गमछे को उठाया और शिष्यों के सामने उसमें गाँठें बाँधने लगे। इसके बाद उन्होंने अपने शिष्यों से पूछा-"क्या आप बता सकते हैं कि पहले के गमछे और इस गमछे में क्या अंतर है?' एक भिक्षु बोला-"नहीं, कोई अंतर नहीं है। पहले भी यह गमछा था, अब भी गमछा ही है। हाँ, इसमें गाँठें ज़रूर लग गई हैं। ऊपर से देखने पर यह भले ही बदला हुआ लगे, लेकिन अंदर से तो इसमें कोई अंतर नहीं आया है।' इस पर बुद्ध बोले-" बिलकुल ठीक कहा तुमने। इस गमछे की तरह ही होता है हमारा मन। अपने मन में कई तरह की गाँठें बाँधकर रखने की वजह से ही हम बदले हुए नज़र आते हैं, जबकि हम वैसे के वैसे ही रहते हैं।' एक भिक्षु बोला-"भंते, लेकिन ये गाँठें खुलेंगी कैसे?' बुद्ध बोले- "जैसे कि लगाई गई थीं। यदि हमें यह मालूम हो कि गाँठें कैसे लगी थीं। तो हमें उन्हें खोलने का तरीका भी मालूम पड़ जाएगा। यही बात संसार पर भी लागू होती है। जब तक हमें यह नहीं पता चलेगा कि संसार किन बंधनों में जकड़ा हुआ है, तब तक उन बंधनों से बचने का रास्ता कैसे पता चलेगा? इसलिए पहले बंधनों का पता लगाओ। इनका पता लगते ही मुक्ति का उपाय सूझने लगेगा।
     दोस्तो, सही तो है कि जिसने गाँठ लगाई है, वही तो उसे खोलेगा या खोल पाएगा। क्योंकि उसी को तो पता होगा कि उसने गाँठ किस तरीके से लगाई। और गाँठ जिस तरीके से लगाई गई थी, उसी तरीके से खुलेगी भी। दूसरे तरीके से खोलने जाओगे तो वह खुलने की बजाए और भी कस जाएगी, या फिर उलझ जाएगी। तब उसे खोलना और भी मुश्किल हो जाएगा। यही कारण है कि बहुत से लोग अपने ही द्वारा लगाई गई गाँठों को खोल नहीं पाते। यहाँ हम मन में लगने वाली गाँठों की बात कर रहे हैं। वे इसलिए नहीं खोल पाते, क्योंकि वे उन गाँठों को या तो दूसरे तरीके से खोलने की कोशिश करते हैं या फिर उन्हें खोलने के लिए दूसरे की सलाह लेने लगते हैं। अब जिस व्यक्ति ने वह गाँठ लगाई ही नहीं, तो वह उसे खोलने का तरीका कैसे बता पाएगा। यदि बताएगा भी तो उसके बताए तरीके से वह खुलेगी नहीं, उलझ जाएगी। इसी कारण अपनी गाँठ दूसरे से खुलवाने वाले अधिकतर लोगों की गाँठें उलझ ही जाती हैं। और अंततः गाँठें लगाकर बैठने वाले ही बड़ी मुश्किल से उन उलझी हुई गाँठों को खोल पाते हैं।
     उसी तरह से हम भी न जाने कितनी तरह की गाँठें अपने मन में बाँधकर बैठे हैं, कितने ही तरह के बंधनों में हमने अपने आपको जकड़ रखा है और इन्हीं बंधनों के कारण हम तनाव में जीते हैं। यदि आप इन बेमतलब के तनावों से मुक्त होना चाहते हों, तो जितनी जल्दी हो सके, इन गाँठों को खोल लें। यदि आप इसमें देरी करेंगे तो फिर इन्हें खोलना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि मन में पड़ी गाँठों को खोला न जाए तो गाँठ पर गाँठ पड़ती जाती है यानी मामला सुलझने की बजाए उलझता जाता है। कई बार गाँठ इसलिए भी नहीं खुलती कि अधिक समय बीत जाने पर गाँठ लगाने वाला उसे खोलने का तरीका ही भूल जाता है। तब वह चाह कर भी उन्हें खोल नहीं पाता या फिर बड़ी मुश्किल से खोल पाता है। अब जो चीज़ मुश्किल से खुलती है, वह अपने पीछे एक न एक दाग, एक निशान छोड़ ही जाती है। यदि आप भी अपनी ही लगाई गाँठ को खोलने का तरीका भूल चुके हैं तो उसे याद करने से पहले यह जानें कि आपके मन में गाँठ किस चीज़ की लगी है। यदि वह आसक्ति की गाँठ है, तो वह खुलेगी अनासक्ति से, यदि वह क्रोध की गाँठ है, तो वह खुलेगी शांति से, यदि वह ईष्र्या या जलन की गाँठ है, तो वह खुलेगी प्रेम से। इसी प्रकार हर गाँठ के खुलने का तरीका होता है। आप इन तरीकों से एक-एक कर इन गाँठों को खोलते जाएँ। फिर देखें आप कैसे सुख व शांति से युक्त जीवन जिएँगे। तब कोई गाँठ आपको परेशान नहीं करेगी, कोई बंधन आपको नहीं रोकेगा।
     अंत में, हमारी एक बात आप अपनी गाँठ से बाँध लें कि मन में लगी गाँठ कैसी भी हो, परेशान ही करती है। इसलिए अव्वल तो मन में गाँठें पड़ने ही न दें। पड़ भी जाएं तो इन्हें समय रहते खोल लें।

Monday, January 18, 2016

भाव खाओगे तो कोई नहीं देगा भाव !


     समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर को एक बार बर्दवान में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया। विद्यासागर रेलयात्रा कर वहाँ पहुँचे। बर्दवान का स्टेशन बहुत ही छोटा था। वे वहाँ उतर कर इधर-उधर देखने लगे। उन्हें कोई नज़र नहीं आया। तभी कुली-कुली की आवाज़ सुनकर उन्होने अपनी नज़रें घुमार्इं। उन्होने देखा कि सूट-बूट पहने एक युवक उन्हें कुली समझकर अपने पास बुला रहा है। क्योंकि वे एक आम आदमी की तरह साधारण कपड़े ही पहनते थे। लगता ही नहीं था कि वे इतने बड़े समाज सुधारक हैं। इसके चलते अकसर ही लोग उन्हें पहचानने में भूल कर जाते थे। विद्यासागर उसके पास पहुँचे तो वह अपने छोटे-से सूटकेस की ओर इशारा करते हुए बोला-"क्या मेरा यह सामान उठाओगे?' विद्यासागर बोले- "हाँ, हाँ, क्यों नहीं' इसके बाद उन्होने उसका सूटकेस उठा लिया और उसके पीछे-पीछे चलने लगे। रास्ते में उन्होने पूछा- क्षमा कीजिए श्रीमान् इस छोटी सी जगह पर आप जैसे भद्रपुरुष का कैसे आना हुआ? वह व्यक्ति बोला- तुमने विद्यासागर जी का नाम तो ज़रूर सुना होगा। वे कल यहाँ भाषण देने वाले हैं। उसी को सुनने के लिए मैं बहुत लंबी यात्रा करके यहाँ आया हूँ। इतने में वे प्लेटफार्म के बाहर आ गए। उस युवक ने जेब में हाथ डालकर पैसे निकाले और विद्यासागर को देने लगा तो उन्होने लेने से इंकार कर दिया।
     अगले दिन आयोजन स्थल पर विद्यासागर भाषण देने के लिए खड़े हुए तो उन्हें देखकर वह युवक शर्म के मारे पानी-पानी हो गया। वह तुरंत उनके पास पहुँचा और उनके पैरों में गिरकर बोला- मुझे माफ कर दीजिए श्रीमान्! मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई जो आप जैसे महापुरुष को पहचान नहीं पाया। विद्यासागर ने उसे उठाया और बोले- आप अपना सामान स्वयं उठाने में शर्म महसूस कर रहे थे, इसलिए मैने उठा लिया। अपने हाथ से काम करने से आदमी छोटा नहीं हो जाता। मुझे खुशी होगी यदि भविष्य में आप अपना सामान स्वयं उठाने में झिझक और हिचक का अनुभव नहीं करेंगे।
     दोस्तो, सही तो है। अपना सामान उठाने में कैसी शर्म, कैसी झिझक। अपना काम करना कोई गलत बात तो नहीं। यह तो गर्व की बात है। लेकिन उस युवक की तरह बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो बोझ उठाने जैसे, काम को अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। ऐसे लोगों को हम बता दें कि ऐसा करने से शान घटती नहीं, बढ़ती ही है। अब देखिए ना, इस प्रसंग से किसकी शान बढ़ी? निश्चित ही विद्यासागर जी की, जिन्होने अपना तो छोड़ो, दूसरे का वजन उठाने में भी शर्म महसूस नहीं की। उन्हें इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ा कि वह युवक उन्हें कुली समझ रहा था। उन्होने तो उस युवक के कहने से उसका सामान उठाकर न केवल उसे सीख दे दी, बल्कि यह भी प्रमाणित कर दिया कि वे वाकई महापुरुष थे।
     इसलिए आवश्यकता पड़ने पर जब आप अपनी क्षमता के अनुसार अपने सामान का बोझ उठाएँगे, तभी तो आप जीवन से जुड़े दूसरे बोझों को भी उठाना सीखेंगे। उनको उठाने से करताएँगे नहीं। जैसे कि काम का बोझ, जिम्मेदारियों का बोझ, परिवार का बोझ या इसी तरह का कोई अन्य बोझ। दूसरी ओर, आप कितने ही बड़े आदमी क्यों न बन जाएँ, कितनी ही ऊँचाइयों पर क्यों न पहुँच जाएं, आपको अपनी सहजता नहीं छोड़नी चाहिए, क्योंकि सहजता ही महानता की निशानी होती है। यदि आपने इसे छोड़ दिया तो एक दिन आपको अपने आप से घुटन होने लगेगी। आखिर आदमी बनावटी जीवन कब तक जी सकता है। यदि ऊँचाई पर पहुंचकर भी आप पहले जैसे ही बने रहेंगे तो इससे आपका कद और बढ़ेगा ही। जो लोग थोड़ी सी भी ऊँचाई पर पहुँचकर असहज हो जाते हैं यानी अपने मित्रों, परिजनों और परिचितों से दूरियाँ बनाने लगते हैं, वे और अधिक ऊँचाई पर नहीं जा पाते। क्योंकि उनके व्यवहार से लोग उनका साथ छोड़ने लगते हैं। कहते भी हैं ना कि भाव खाने वालों को कोई भाव नहीं देता। और जब लोग भाव नहीं देंगे तो फिर आपके भाव नीचे गिर जाएँगे यानी आप प्रगति नहीं कर पाएँगे।
     इसलिए आज से यह संकल्प करें कि आप जैसे अंदर से हैं, वैसे ही दिखेंगे, वैसे ही रहेंगे। चाहे आप कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ। कभी अपनी सहजता नहीं खोएँगे। इससे आप सबके चहेते बने रहेंगे और सही अर्थों में बड़े आदमी भी कहलाएंगे।

Saturday, January 16, 2016

16.01.2016 जिंदा दिए न कौरा, मरे खवाए चौरा


     कौसल नरेश प्रसेनजित और मगध सम्राट अजातशत्रु रणभूमि में आमने-सामने थे। प्रसेनजित अपने मित्र और अजातशत्रु के पिता बिंबिसार की हत्या का बदला लेने के लिए रणभूमि में उतरे थे। अजातशत्रु ने सत्ता-प्राप्ति के लिए अपने ही पिता का वध करवा दिया था। प्रसेनजित ने जल्द ही अजातशत्रु को चारों ओर से घेरकर निहत्था कर दिया। जब वे अजातशत्रु का सिर काटने ही वाले थे कि उसकी आँखों के भाव देखकर उनके हाथ थम गए। तभी अजातशत्रु चिल्लाया, "रुको मत, मुझे मार डालो। तभी मुझे शांति मिलेगी। उसकी बात सुनकर प्रसेनजित हैरान रह गए। उन्होंने उससे इसका कारण पूछा, तो वह बोला-""महाराज! जिस दिन मैने अपने पिता के वध का आदेश दिया था, उसी दिन मेरा पुत्र भी पैदा हुआ था। उसे गोद में लेते ही मुझे बोध हुआ कि अपने पुत्र के लिए एक पिता के मन में कैसे भाव आते हैं। वैसे ही भाव मेरे पिता के मन में भी मेरे जन्म के समय आए होंगे। मैने तुरंत अपना निर्णय बदला और सैनिकों को वधशाला की ओर दौड़ाया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। उस दिन से मैं अपराधबोध से ग्रसित हूँ। मेरे मन का सारा चैन, सारी शांति खो चुकी है। इसलिए मैं मरना चाहता हूँ। उसकी बात ध्यान से सुन रहे प्रसेनजित बोले- इस तरह तो तुम मरकर भी शांति नहीं पा सकोगे। शांति के लिए तो तुम जीवन की कामना करो। इसके बाद मगध लौटकर उसने अशांति से छुटाकारा पाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। अपने आपसे भागने के लिए उसने फिर युद्ध शुरू कर दिए, लेकिन युद्ध जीतकर भी वह खुद को नहीं जीत पाया। हर जीत के बाद मायूसी उसे घेर लेती थी। अंततः अपने वैद्य और मित्र जीवक की सलाह पर वह गौतम बुद्ध की शरण में गया और शांति पाई।
     दोस्तो, जिस सत्ता के लिए अजातशत्रु ने अपने पिता का वध करवाया, उसका सुख वह ज़िंदगी भर नहीं भोग पाया। आरामदेह बिस्तर पर कभी चैन की नींद नहीं सो पाया। वह हमेशा अपने आप से भागता रहा। आदमी दुनियाँ से तो भाग सकता है, लेकिन खुद से नहीं। दुर्भाग्य से आज भी समाज में कई ऐसे लोग मौजूद हैं, जो अपने पालकों का शारीरिक रूप से भले ही नही मानसिक रूप से ज़रूर वध कर देते हैं और बाद में पश्चाताप करते हैं। आप भी ऐसे कई बेटों को जानते होंगे। ऐसे लोगों को हम आगाह करना चाहेंगे कि ऐसा करके आपको कुछ हासिल नहीं होगा। अपने पालकों के दिल को दुःख पहुँचाकर आप कभी चैन से नहीं रह पाएँगे। एक न एक दिन आपको अपनी गलती का अहसास होगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। आप चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएँगे। बस, अजातशत्रु की तरह खुद से ही भागते रहेंगे।
 

Friday, January 8, 2016

14.01.2016 ऊँचाई का आधार, श्रेष्ठ मूल्य और संस्कार


बहुत समय पहले की बात है। महाराष्ट्र में किसी जगह एक गुरु का आश्रम था। दूर-दूर से विद्यार्थी उनके पास अध्ययन करने के लिए आते थे। उसके पीछे कारण यह था कि गुरु जी नियमित शिक्षा के साथ व्यावहारिक शिक्षा पर भी बहुत ज़ोर देते थे। उनके पढ़ाने का तरीका भी अनोखा था। वे हर बात को उदाहरण देकर समझाते थे जिससे शिष्य उसका गूढ़ अर्थ समझकर उसे आत्मसात कर सकें। वे शिष्यों के साथ विभिन्न विषयों पर शास्त्रार्थ भी करते थे ताकि जीवन में यदि उन्हें किसी से शास्त्रार्थ करना पड़े तो वे कमज़ोर सिद्ध न हों।
     एक बार एक शिष्य गुरु के पास आया और बोला-गुरु जी! आज मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ। गुरुजी बोले ठीक है, लेकिन किस विषय पर? शिष्य बोला- आप अकसर कहते हैं कि सफलता की सीढिंयाँ चढ़ चुके मनुष्य को भी नैतिक मूल्य नहीं त्यागने चाहिए। उसके लिए भी श्रेष्ठ संस्कारों रूपी बंधनों में बँधा होना आवश्यक है। जबकि मेरा मानना है कि एक निश्चित ऊँचाई पर पहुँचने के बाद मनुष्य का इन बंधनों से मुक्त होना आवश्यक है, अन्यथा मूल्यों और संस्कारों की बेड़ियाँ उसकी आगे की प्रगति में बाधक बनती हैं। इसी विषय पर मैं आपके साथ शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।
     शिष्य की बात सुनकर गुरु जी कुछ सोच में डूब गए और बोले-हम इस विषय पर शास्त्रार्थ अवश्य करेंगे, लेकिन पहले चलो चलकर पतंग उड़ाएं और पेंच लड़ाएँ। आज मकर संक्रान्ति का त्यौहार है। इस दिन पतंग उड़ाना शुभ माना जात है। गुरु जी की बात सुनकर शिष्य खुश हो गया। दोनों आश्रम के बाहर मैदान में आकर पतंग उड़ाने लगे। उनके साथ दो अन्य शिष्य भी थे जिन्होने चकरी पकड़ी हुई थी। जब पतंगे एक निश्चित ऊँचाई तक पहुँच गई तो गुरु जी शिष्य से बोले- क्या तुम बता सकते हो कि ये पतंगें आकाश में इतनी ऊँचाई तक कैसे पहुँची? शिष्य बोला-जी गुरु जी! हवा के सहारे उड़कर ये ऊँचाई तक पहुँच गई। इस पर गुरु जी ने पूछा- अच्छा तो फिर तुम्हारे अनुसार इसमें डोर की कोई भूमिका नहीं है? शिष्य बोला-ऐसा मैने कब कहा? प्रारंभिक अवस्था में डोर ने कुछ भूमिका निभाई है, लेकिन एक निश्चित ऊँचाई तक पहुँचने के बाद पतंग को डोर की आवश्कता नहीं रहती। अब तो और आगे की ऊँचाईयाँ वो हवा के सहारे ही प्राप्त कर सकती है। अब देखिये गुरु जी! डोर तो इसकी प्रगति में बाधक ही बन रही है न? जब तक मैं इसे ढील नहीं दूँगा, यह आगे नहीं बढ़ सकती। देखिए इस तरह मेरी आज की बात सिद्ध हो गई। आप स्वीकार करते हैं इसे?
     शिष्य के प्रश्न का गुरु जी ने कुछ जवाब नहीं दिया और बोले-चलो अब पेंच लड़ाएँ। इसके पश्चात् दोनों पेंच लड़ाने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान में पेंच नहीं लड़ रहे बल्कि दोनों के बीच पतंगों के माध्यम से शास्त्रार्थ चल रहा हो। अचानक एक गोता देकर गुरु ने शिष्य की पतंग को काट दिया। कुछ देर हवा में झूलने के बाद पतंग ज़मीन पर आ गिरी। इस पर गुरु जी ने शिष्य से पूछा-पुत्र! क्या हुआ? तुम्हारी पतंग तो ज़मीन पर आ गिरी। तुम्हारे अनुसार तो उसे आसमान में और भी ऊँचाई को छूना चाहिए था। जबकि देखो मेरी पतंग अभी भी अपनी ऊँचाई पर बनी हुई है, बल्कि डोर की सहायता से यह और भी ऊँचाई तक जा सकती है। अब क्या कहते हो तुम? शिष्य कुछ नहीं बोला। वह शांत भाव से सुन रहा था। गुरु जी ने आगे कहा-दरअसल तुम्हारी पतंग ने जैसे ही मूल्यों और संस्कारों रूपी डोर का साथ छोड़ा, वो ऊँचाई से सीधे ज़मीन पर आ गिरी।
     यही हाल हवा से भरे गुब्बारे का भी होता है। वह सोचता है कि अब मुझे किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं और वह  हाथ से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन जैसे ही हाथ से छूटता है, उसकी सारी हवा निकल जाती है और वह ज़मीन पर आ गिरता है। गुब्बारे को भी डोरी की ज़रूरत होती है, जिससे बँधा होने पर ही वह अपने फूले हुए आकार को बनाए रख पाता है। इस तरह जो हवा रूपी झूठे आधार के सहारे टिके रहते हैं, उनकी यही गति होती है।
     शिष्य को गुरु जी की सारी बात समझ में आ चुकी थी और पतंगबाज़ी का प्रयोजन भी। शास्त्रार्थ के इस अनोखे प्रयोग से अभिभूत वह अपने गुरु के कदमों में गिर पड़ा। गुरु जी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा आज से तुम्हारे जीवन का सूर्य भी उत्तरायण की ओर गति करे और बढ़ते दिनों की तरह तुम जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति करो।
    

15.01.2016 स्वावलम्बी बनो यानी अपना काम खुद करो


     एक बार मनोज नाम का एक व्यक्ति अपने दोस्त राजेश से मिलने शहर आया। दोनों कॉलेज तक साथ पढ़े थे। पढ़ाई के बाद राजेश शहर में आ गया और यहाँ उसने एक छोटे से व्यवसाय से शुरुआत कर कुछ ही वर्षों में एक बड़ा व्यावसायिक साम्राज्य स्थापित कर लिया। उसकी गिनती शहर के धनाढ¬ों में होती थी। शहर की सबसे महँगी कॉलोनी में उसका बहुत बड़ा बंगला था। आज के जमाने की सभी भौतिक सुविधाएँ उसके बंगले में उपलब्ध थीं।
     मनोज जब राजेश के बंगले पर पहुँचा तो रात बहुत हो चुकी थी। वह सोच रहा था कि शायद इतना बड़ा आदमी बनने के बाद उसका दोस्त उसे पहचानेगा या नहीं? लेकिन गार्ड के माध्यम से जब सूचना अंदर पहुँची तो आदेश आया कि उसे ससम्मान अंदर लाया जाए। जब वह अंदर पहुँचा तो देखा कि उसका दोस्त राजेश द्वार पर खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। राजेश ने बिना कोई औपचारिकता निभाए आगे बढ़कर उसे उसी तरह गले लगा लिया, जिस तरह से वह कॉलेज के जमाने में गले लगा लिया करता था। राजेश के इस तरह के व्यवहार से उसकी झिझक जाती रही और वे प्रसन्नता के साथ अंदर गए।
      इसके बाद दोनों बंगले के अंदर बने बड़े से हॉल में बैठकर बातें करने लगे। इस बीच उसे पता चला कि घर के लोग किसी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए शहर से बाहर गए हुए हैं। बातों ही बातों में उसने राजेश से पूछ लिया कि बाकी बातें तो होती रहेंगी, तू तो यह बता कि आखिर यह सब सफलता तुझे मिली कैसे? इस पर राजेश विनम्रता से बोला-पता नहीं यार, मुझे खुद समझ नहीं आता। लेकिन लोग कहते हैं कि मैं किस्मत का बहुत धनी हूँ। शायद वे सही हों। हालांकि मैं ऐसा नहीं समझता। इस पर मनोज तपाक से बोला- वे सही कहते हैं, मैं भी ऐसा ही सोच रहा था। मनोज की बात सुनकर राजेश धीरे से मुस्करा दिया। इसके बाद दोनों ने मिलकर खाना खाया। वहाँ कई नौकर-चाकर होने के बावजूद राजेश ने अपने मित्र को खुद ही खाना परोसा। इसके बाद वे दोनों गेस्ट रूम में आ गए। थोड़ी ही देर में एक नौकर कॉफी बना कर ले आया। राजेश उसे देखकर बड़े ही प्यार से बोला-रामू काका! बहुत रात हो गई है। अब आप लोग जाकर आराम करें। हमें बातें करते-करते देर हो जाएगी।
     इसके बाद राजेश ने आगे बढ़कर ट्रे उठाई और मनोज से कॉफी लेने का आग्रह किया। यह बात मनोज को ठीक नहीं लगी। वह बोला-क्यों तकलीफ करते हो राजेश, मैं खुद ले लेता हूँ। ऐसा कहते हुए वह जैसे ही कॉफी का कप उठा रहा था कि एक झटका लगा और कॉफी ज़मीन पर फैल गई। कुछ बूँदें मनोज के कपड़ों पर भी आ गिरीं। इस पर राजेश बोला-रूको, मैं भीगा कपड़ा लाकर इसे साफ कर देता हूँ, नहीं तो निशान पड़ जाएगा। मनोज ने कहा- परेशान मत हो, मैं खुद साफ कर लेता हूँ। राजेश ने उसे रोकते हुए कहा- नहीं यार, तुम हमारे मेहमान हो। तुम्हारी सेवा करना हमारा धर्म है। मनोज बोला-तो ठीक है, रामू को बुला लेते हैं।
     रामू काका को परेशान नहीं करते। वे अब सोने चले गए हैं। उन्हें जगाना ठीक नहीं। मैं लाता हूँ न एक मिनट में। ऐसा कहकर राजेश कमरे के बाहर जाकर भीगा कपड़ा और साथ में एक पानी की बोतल ले आया। उसने मनोज के कपड़ों पर और नीचे गिरी कॉफी को पोंछकर साफ कर दिया। इससे बाद वह मनोज से बोला- ये है तुुम्हारे लिए पानी की बोतल। रामू काका रखना भूल गए थे। तुम्हें रात में प्यास लगती तो? उसका यह व्यवहार मनोज की समझ से बाहर था। उसने राजेश से कहा-इतना छोटा सा काम तुम जैसे बड़े आदमी को करने की आवश्यकता क्या थी? घर में नौकर-चाकर किसलिए हैं? उसकी बात सुनकर राजेश बोला- क्यों, क्या पोंछा लगाने के बाद अब मैं बड़ा आदमी नहीं रहा। स्वावलंबी होना कोई बुरी बात तो नहीं? याद नहीं, सर कहते थे "स्वावलंबी बनो' इतने छोटे से काम के लिए किसी को नींद से जगाना कहाँ तक उचित है? सिर्फ इसलिए कि वे नौकर हैं। मैने जो किया उसमें मुझे कुछ गलत नहीं लगता। उसके इस उत्तर से मनोज को पता चल चुका था कि उसका दोस्त किस्मत का नहीं, व्यक्तित्व का धनी है जिसकी वजह से आज वह इस ऊँचाई पर पहुँचा है।
     बहुत बढ़िया। राजेश वाकई हर दृष्टि से धनी आदमी है, धन से भी, किस्मत से भी और व्यक्तित्व से भी। स्वावलंबन की भावना उसमें कूट-कूटकर भरी है। साथ ही सफलता के लिए आवश्यक अन्य गुण जैसे बड़प्पन, सह्मदयता, समदृष्टि और संयमित वाणी, अतिथि सत्कार, मित्रता निभाना आदि। उसके इन गुणों का अहसास आपको कहानी पढ़ने के दौरान विभिन्न अवसरों पर हो गया होगा।
     यदि आप भी राजेश की तरह सफल होना चाहते हैं तो इसके लिए हम उसके सर का दिया हुआ "मंत्र' यहां दोहराते हैं कि "स्वावलंबी बनो' यानी अपना काम खुद करो। आप न सिर्फ इस मंत्र को दोहराएँ, बल्कि राजेश की तरह ही आचरण में भी लाएँ। यह आवश्यक है, क्योंकि मंत्र को सुना तो मनोज ने भी था, लेकिन उसने इसे अपने आचरण में नहीं उतारा जिसके कारण वह सफलता की दौड़ में पिछड़ गया। अतः आप इसे अपने अंदर उतारें और फिर देखें इस मंत्र का कमाल!

13.01.2016 सफलता के लिए प्राथमिकताओं का सही निर्धारण ज़रूरी


     एक बार एक शिक्षक से अपनी शिक्षा पूर्ण करने जा रहे विद्यार्थियों ने "जीवन की प्राथमिकताएं और उनके निर्धारण' पर मार्गदर्शन देने का आग्रह किया। शिक्षक ने सभी विद्यार्थियों के अनुरोध को देखते हुए आगामी कक्षा में इस विषय पर मार्गदर्शन का वादा किया। अगले दिन जब शिक्षक कक्षा में आए तो वे अपने साथ काँच का एक मर्तबान और कुछ डिब्बे लेकर आए। सभी छात्र बड़ी उत्सुकता से उनकी ओर देख रहे थे। शिक्षक ने मर्तबान को सामने रखा और एक डिब्बे को खोलकर उसमें रखे बड़े आकार के आँवले मर्तबान में डालने लगे। इसके बाद उन्होने छात्रों से कहा कि मेरे ख्याल से यह मर्तबान अब पूरा भर गया है। उनकी इस बात पर सभी छात्रों ने सहमति जताई।
     शिक्षक ने दूसरा डिब्बा खोला। उस डिब्बे में छोटे आकार के बेर थे। उन्होने मर्तबान को हिलाते हुए बेर उसमें भर दिए। एक स्थिति ऐसी आई कि मर्तबान में और बेर नहीं भरे जा सकते थे, तो उन्होने छात्रों से पूछा कि अब क्या कहते हो? एक छात्र खड़ा हुआ और बोला कि यह अब पूरी तरह भर गया है, इसमें और कुछ नहीं भरा जा सकता।
     छात्र की बात सुनने के बाद शिक्षक ने तीसरा डिब्बा खोला। उसमें राई थी। शिक्षक राई के दाने मुट्ठी में भरकर मर्तबान में डालने लगे। साथ-साथ वे मर्तबान को हिलाते भी जा रहे थे, ताकि आँवले और बेर के बीच शेष स्थान में राई समा सके। छात्र देख रहे थे कि जिस मर्तबान को वे भरा समझ रहे थे, उसमें तो काफी मात्रा में राई भी आ गई है। जब मर्तबान राई से पूरी तरह ठसाठस भर गया तो शिक्षक ने छात्रों से पुनः पूछा कि अब क्या कहते हो?
     एक छात्र खड़ा हुआ और बोला- गुरु जी! अब तो इसमें कुछ भी नहीं भरा जा सकता। यह मर्तबान अब पूरी तरह से भर चुका है। शिक्षक ने छात्र की बात पूरी होते ही पास में रखे बैग में से एक बोतल निकाली। उसमें तेल भरा हुआ था। शिक्षक ने बोतल का तेल मर्तबान में उड़ेलना शुरु किया और देखते-देखते मर्तबान में बहुत सारा तेल समा गया और वह पूरा भर गया। इससे पहले कि शिक्षक छात्रों से प्रश्न करते, पूरी कक्षा ठहाकों से भर गई। शिक्षक ने सभी को शांत करते हुए पूछा कि अब क्या कहते हो? प्रश्न का उत्तर देने के लिए कोई भी विद्यार्थी तैयार नहीं हुआ। अब कोई भी गलत साबित होना नहीं चाहता था। लेकिन इस बार शिक्षक ने कहा कि हाँ, अब यह मर्तबान पूरी तरह भर चुका है। इसमें अब और कुछ समाने की गुंजाइश नहीं है।
     तत्पश्चात् शिक्षक ने कहा, यह मर्तबान क्या है? यह प्रतीक है आपके जीवन का। आँवले हैं आपके जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकताएँ। जैसे कि आपका परिवार, आपके बच्चे, आपका स्वास्थ्य, आपके मित्र, आपका ईश्वर, आपके संस्कार और आपके जीवन की वे सभी बातें, जबकि समय के साथ सब कुछ पीछे छूटता जाए, तो भी आप उन्हें नहीं भूलते और न भूलाना चाहते हैं।
     बेर के रूप में हैं आपके जीवन की दूसरी प्राथमिकताएँ। जैसे आपका कॅरियर, आपकी नौकरी, आपका घर, संपत्ति आदि। और राई जीवन की छोटी-छोटी ज़रूरतों, खुशियों, भावनाओं आदि का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो प्राथमिकताओं में सबसे नीचे हैं और जिनके होने या न होने से भी आपके जीवन में विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।
     आज के प्रतिस्पर्धा के युग में हम सभी शायद अपने मर्तबान को राई से भर रहे हैं और दुःखी हो रहे हैं। इसलिए जब हम जीवन की आँवला रूपी सर्वोच्च प्राथमिकताओं का ध्यान रखेंगे तो इससे प्राप्त होने वाला विटामिन "सी' (प्रसन्नता, आत्मविश्वास आदि) हमारे जीवन की द्वितीयक प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करेगा। वैसे भी जब आप घर में खुश रहेंगे, तो अपनी नौकरी या व्यवसाय में भी मन लगाकर काम करते हुए सफलता प्राप्त कर सकेंगे। तो मुझे आशा है कि आप सभी को जीवन की प्राथमिकताएँ निर्धारित करने अब कोई परेशानी नहीं होगी। ऐसा कहकर जैसे ही शिक्षक ने अपनी बात खत्म करना चाही, तो एक विद्यार्थी खड़ा होकर बोला कि गुरु जी! तेल का मतलब तो आपने बताया ही नहीं।
     शिक्षक बोले-बहुत अच्छा, मैं जानना चाहता था कि आप मेरी बात ध्यान से सुन रहे हैं या नहीं। और आप सुन रहे हैं यानी आपने कानों में तेल डाला हुआ है। सभी विद्यार्थी एक बार फिर जोर से हँस दिए। फिर वे गंभीर होकर बोले कि तेल इस बात का प्रतीक है कि आप चाहे जितने भी व्यस्त रहें, आप ठहाका लगाकर हँसने का समय हर हालत में निकाल सकते हैं। इसमें आपको हर तरह की निराशा से उबारने की अद्भुत क्षमता होती है।
     छात्रों को अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था कि हम सभी को प्राथमिकताओं का सही निर्धारण ही व्यक्ति को जीवन में सफल बनाता है।

12.01.2016 छिपी संभावनाओं में छिपा होता है भविष्य


     एक बार एक शिक्षक अपनी कक्षा में आए और विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए बोले कल हम कक्षा प्रतिनिधि का चयन करेंगे। इसके लिए मैं आप सभी की बुद्धिमत्ता की परीक्षा लूँगा। मैं देखना चाहता हूं कि आप सभी ने अब तक जितना ज्ञान पाया है, उसमें से कितना अपने अंदर समाया है।
     शिक्षक की बात सुनकर एक छात्र खड़ा होकर बोला सर, अभी तक तो कक्षा प्रतिनिधि का चयन उसके प्राप्ताकों के आधार पर होता था। कक्षा में सबसे अधिक नंबर प्राप्त करने वाले छात्र को चुन लिया जाता था। फिर यह नया तरीका क्यों? शिक्षक ने छात्र की बात को ध्यान से सुना और जवाब दिया- आपका कहना ठीक है, लेकिन योग्यता का आधार सिर्फ प्राप्तांक ही नहीं हो सकते। हमारे अंदर सामान्य ज्ञान भी ज़रूरी है। ज़िंदगी हर रोज़ नई तरह से परीक्षा लेती है। इसलिए आप सभी कल पूरी तैयारी से आएँ। ऐसा कहकर शिक्षक कक्षा से चले गए।
     अगले दिन सभी विद्यार्थी पूरी तैयारी से आए। उन्होने सामान्य ज्ञान की पुस्तकों के पन्ने पलट डाले थे। उन्हें लग रहा था, चलो एक मौका मिला है कक्षा प्रतिनिधि बनने का। इसे बिना प्रयत्न के हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। कुछ छात्र तो उनींदे हो रहे थे। उन्होंने पूरी रात परीक्षा की तैयारी करते हुए गुज़ारी थी। कुछ आपस में बात करके यह पता लगाने का प्रयास कर रहे थे कि परीक्षा में क्या पूछा जा सकता है। परीक्षा लिखित होगी या मौखिक। इस तरह अनेक प्रश्न और अनेक जिज्ञासाओं के बीच शिक्षक कक्षा में आए। सभी छात्र एकदम शांत हो गए। शिक्षक ने छात्रों से पूछा- क्या आप सभी परीक्षा के लिए तैयार हैं? जी हाँ! छात्रों ने एक साथ उत्तर दिया। तो प्रश्न बहुत ही सामान्य है। आप सभी को एक-एक कर इस प्रश्न का उत्तर देना है। प्रश्न है-चाँदी, पीतल और लोहा, इन तीनों धातुओं में से सबसे मूल्यवान धातु कौन-सी है? और क्यों?
     शिक्षक का प्रश्न सुनकर कक्षा में हर्ष की लहर दौड़ गई। लगभग हर छात्र सोच रहा था कि कितना आसान प्रश्न है यह। इसके बाद सभी ने क्रम से उसका उत्तर देना शुरु कर दिया। सभी चांदी को मूल्यवान बता रहे थे। मान्यता अनुसार यह सही भी था। इस बीच एक छात्र जो कि काफी चतुर था, बोला-सर! पीतल सबसे मूल्यवान है, क्योंकि वह सोने जैसी दिखती है। उसकी बात पर पूरी कक्षा जोर से हँस दी। छात्र सहम कर बैठ गया। एक के बाद एक छात्र प्रश्न का जवाब दे रहे थे, लेकिन शिक्षक को सही जवाब नहीं मिल रहा था।
     अंत में एक छात्र खड़ा हुआ और बोला- सर! लोहा सबसे मूल्यवान धातू है। शिक्षक ने कहा- अच्छा, लेकिन क्यों? वो इसलिए कि मेरी दृष्टि में पारस पत्थर के स्पर्श से चांदी और पीतल दोनों ही सोना नहीं बन सकते, लेकिन लोहे में यह गुण होता है। चाँदी चाँदी ही रहेगी और पीतल पीतल ही और पारस के स्पर्श से लोहा सोना बनकर उनसे मूल्यवान हो जाता है। अतः मेरा मानना है कि मूल्यवान कोई वस्तु नहीं होती। उसे मूल्यवान बनाती है उस वस्तु में छिपी संभावनाएँ। छात्र की बात सुनकर शिक्षक प्रसन्न हो गए। उन्हें अपने प्रश्न का सही जवाब मिल गया था। उन्होंेने छात्र को अपने पास बुलाकर उसे कक्षा प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया।
     तो देखा आपने। केवल किताबी ज्ञान ही सब कुछ नहीं होता। बुद्धिमान व्यक्ति इस बात को समझते हैं और वे समस्याओं को हल करने में केवल किताबी ज्ञान का उपयोग नहीं करते। उनके पास होता है एक विशेष ज्ञान और यह विशेष ज्ञान हमें मिलता है अपने बड़ों से, बुज़ुर्गों से, गुरुजनों से, सत्संग से और संतों की वाणियों से। कॅरियर में उन्नति के लिए यह विशेष ज्ञान बहुत काम आता है। इसी विशेष ज्ञान के आधार पर छात्र ने प्रश्न का सही जवाब दिया। और उसके उत्तर के पीछे जो तर्क था, वह भी कितना सही था कि मूल्य वस्तु का नहीं, उसके अंदर छिपी संभावनाओं का होता है। यह बात इंसानों पर भी लागू होती है। अगर आपके अंदर संभावनाएँ हैं तो उन्हें निखारा जा सकता है। अगर संभावनाएँ ही नहीं होंगी तो फिर काँच को तो घिस-घिसकर हीरा नहीं बनाया जा सकता।

11.01.2016 जहाँ चाह वहाँ राह


     एक गाँव में एक बूढ़ा किसान अपने बेटे के साथ रहता था। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। वे दोनों बड़ी मेहनत से खेती करके अपना पेट भरते थे। एक बार किसी चोरी के झूठे आरोप में पुलिस ने उसके बेटे को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। किसान और उसके बेटे ने बहुत समझाया, लेकिन पुलिस ने एक न सुनी। इसके बाद किसान अकेला रह गया। वह पहले ही बूढ़ा था और उस पर इतनी बड़ी विपदा के चलते वह काफी कमज़ोर हो गया, जैसे उसके शरीर की सारी ताकत किसी ने छीन ली हो। वह जैसे-तैसे अपना काम चलाने लगा।
     इस बीच बुवाई का समय निकट आता देख किसान को चिंता सताने लगी। कुछ उपाय न सूझने पर उसने अपने बेटे को पत्र लिखा प्रिय पुत्र, तुम्हारे बिना मैं बहुत असहाय महसूस कर रहा हूँ। मेरी बूढ़ी हड्डियां अब जुताई करने के काबिल नहीं हैं। ऐसा लगता है इस साल हम अपने खेत को जोतकर उसमें फसल नहीं बो पाएँगे और हमारे भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। कल गाँव की चौपाल पर प्रधान जी इस साल अच्छी बारिश होने की बात कर रहे थे। काश, तुम जेल में नहीं होते तो इस बार अच्छी फसल मिलती और हम महाजन का कर्जा चुका देते। पता नहीं भगवान भी हम गरीबों की ही परीक्षा क्यों लेता है? सोच रहा हूँ कि महाजन से थोड़ा-बहुत और उधार लेकर खेत जुतवा दूँ। तुम अपनी राय जल्दी भेजना। तुम्हारा गरीब पिता।
     चिट्ठी भेजने के कुछ दिनों बाद किसान को उसके बेटे का टैलीग्राम मिला, जिसमें लिखा था-"पिता जी! भगवान के लिए गलती से भी किसी से खेत मत जुतवा लेना। मैने लूट का सारा माल वहीं छिपा रखा है।' टैलीग्राम पढ़कर किसान उदास हो गया। वह अपने बेटे को निर्दोष समझ रहा था, लेकिन वह तो चोरी के माल की बात लिख रहा था। इधर वह किसान टैलीग्राम पढ़ ही रहा था कि एक बच्चा दौड़ता हुआ आया और बोला- बाबा-बाबा, जल्दी से खेत पर चलो। पुलिस वाले तुम्हारा खेत खोद रहे हैं। किसान को समझते देर न लगी कि पुलिस शायद चोरी के माल की तलाश में ही आई होगी। वह तेज़ी के साथ अपने खेत पहुँचा। तब तक पुलिस वाले पूरा खेत खोद चुके थे, लेकिन उन्हें लूटा हुआ माल नहीं मिला। किसान को कुछ बताए बिना पुलिस वाले वापस चले गए।
     किसान को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उसने अपने बेटे को इस बारे में एक और खत लिखकर भेजा और उससे जानना चाहा कि मामला क्या है? इस बार पुत्र का जवाब पोस्टकार्ड पर आया-आदरणीय पिता जी, परेशान न हों। दरअसल आपकी चिट्ठी पढ़ने के बाद मुझे बहुत दुःख हुआ और मैं अपनी किस्मत को कोसता हुआ सोचने लगा कि अब इस परिस्थिति में मैं जेल में बैठकर दुःखी होने के अलावा और क्या कर सकता हूँ? लेकिन दूसरी ओर मैं आपकी सहायता भी करना चाहता था। अब कहते हैं न पिताजी कि "जहाँ चाह हैं, वहाँ राह है।' तो मुझे एक उपाय सूझा और मैने आपको टैलीग्राम में चोरी के बारे में लिखकर भेज दिया। मुझे विश्वास था कि पुलिस वाले मेरा टैलीग्राम अवश्य पढ़ेंगे और हुआ भी ऐसा ही। वे टैलीग्राम पढ़कर झाँसे में आ गए और गाँव पहुँचकर सारा खेत खोद दिया। अब आप निश्चिंत होकर खेत में फसल बो सकते हैं। आपका पुत्र। पोस्टकार्ड पढ़ने के बाद किसान की क्या प्रतिक्रिया रही होगी, यह तो आप समझ ही गए होंगे। और यही भी कि "जहाँ चाह वहाँ राह' की उक्ति प्रबंधन ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में एकदम सटीक बैठती है। किसी भी कार्य को करने की चाह यदि आप में है तो उपाय आपको अपने आप सूझ जाएगा। कार्य को कर डालने के लिए आवश्यक लगन, दृढ निश्चय, चतुराई और आत्मविश्वास तो "चाह' का पीछा करते हुए आप तक पहुँंच ही जाते हैं।
     इसी के सहारे उस पुत्र ने असंभव लगने वाले कार्य को कम समय, अवरोधों और सीमित साधनों के बावजूद अपने बुद्धि कौशल के उपयोग से पूरा कर लिया। निश्चय ही वह भी एक प्रबंधन गुरु था, जो अपने आसपास के उपलब्ध संसाधनों का सही उपयोग कर परिस्थितियों को अपने पक्ष में मोड़ना जानता था। दूसरी ओर यदि वह बैठकर अपनी किस्मत को कोसता रहता तो सिर्फ बैठा ही रहता और उसके पिता की स्थिति बद से बदतर हो जाती। इसी प्रकार हम भी जीवन की विपरीत परिस्थितियों का सामना अपने बुद्धि कौशल, लगन, दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास के सहारे कर सकते हैं। हाँ, चाह तो ज़रूरी है। तो फिर सोचना कैसा? यदि आप आगे बढ़ना चाहते हैं तो इस "चाह' को बनाए रखिए, राह खुद-ब-खुद बन जाएगी।
     और अंत में, हम यह भी बता दें कि इस बार भी पुलिस ने उसके बेटे का पोस्टकार्ड पढ़ लिया था। पुलिस को भी समझ में आ गया था कि उसने एक निर्दोष व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया है, लिहाजा उसे छोड़ दिया गया। जब वह गाँव पहुँचा तो उसने अपने पिता के साथ मिलकर पुलिस द्वारा खोदे गए खेत में बुवाई की और अच्छी वर्षा के कारण हुई भरपूर फसल काटी।

10.01.2016भगवान भरोसे न रहें, कर्म करें


     एक बार एक भक्त के सपने में भगवान प्रकट हुए। भगवान ने उसे कहा कि तू सत्य के रास्ते पर चलने वाला है। मैं तेरे आचरण से खुश हूँ और तुझे एक वर देना चाहता हूँ। जो मन में आए, माँग ले। भक्त बड़ा ही सज्जन था। उसने सोचा कि भगवान से धन-दौलत माँगने का क्या लाभ? इसलिए कुछ ऐसा माँगना चाहिए जिससे हमेंशा के लिए ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त हो जाए। ऐसा सोचकर उसने भगवान से कहा-मुझे और कुछ नहीं चाहिए प्रभु! बस जीवन के हर सुख-दुःख में और परीक्षाओं की घड़ी में आप मेरे साथ चलते रहें। इस पर ईश्वर "तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गए।
     इसके बाद उस भक्त की आँख खुल गई। वह सपने की बात भूलकर अपने दैनंदिन कार्यों में लग गया। इस तरह कई वर्ष बीत गए। इस बीच हर व्यक्ति की तरह उसके जीवन में भी अनेक विपरीत परिस्थितियां आई और उसने उनका सामना हिम्मत और पुरुषार्थ से किया।
     एक बार वह बहुत बीमार हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां जब वह अर्धचेतन अवस्था में पड़ा था तो उसके सामने भगवान फिर प्रकट हुए। भगवान को देखते ही उसे वरदान वाली बात याद आ गई और उसने उनसे पूछा, "प्रभु! आप तो मुझे वरदान देकर गायब ही हो गए। मुझे ज़िंदगी में न जाने कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन सभी का सामना मैने अकेले ही किया। आपने मेरा कहीं भी साथ नहीं दिया।
     भक्त की बात सुनकर भगवान मुस्कराए और बोले-नहीं वत्स! मैं अपने कहे अनुसार जीवन के हर कदम पर तुम्हारे साथ था। इसका क्या प्रमाण है? भक्त ने भगवान से पूछा। इस पर भगवान ने उससे कहा-सामने की दीवार पर देखो। तुम्हारे जीवन की सारी कहानी तस्वीरों में दिखाई देगी। भक्त को सामने की दीवार पर दो व्यक्तियों के पदचिन्हों के रूप में अपने जीवन की सारी घटनाएँ दिखार्इं देने लगीं। भगवान ने कहा-पुत्र! इनमें से एक पदचिन्ह तुम्हारे हैं और दूसरे मेरे। देखो, मैं हर समय तुम्हारे साथ ही चल रहा था। उसने देखा कि बीच-बीच में केवल एक ही व्यक्ति के पदचिन्ह दिखाई दे रहे हैं। उसे याद आया कि ये पदचिन्ह उन समयों के हैं, जब वह कठिन दौर से गुज़र रहा था। उसने भगवान से कहा-प्रभु! इन पदचिन्हों को देखिए। जब जब मुझे आपकी सबसे ज़्यादा आवश्यकता थी, तब तब आप मेरे साथ नहीं थे। भक्त की बात सुनकर भगवान बोले-पुत्र! तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो। मैने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा। परीक्षाओं की घड़ियों में तुम्हें जो पदचिन्ह दिखाई दे रहे हैं, वे मेरे हैं। उस समय मैने तुम्हें अपनी गोद में उठाया हुआ था। इस कारण तुम्हारे पैरों के निशान वहाँ नहीं बन पाए। चूँकि तुम उस समय अपने कर्म में इतने डूब गए थे कि तुम्हें यह भान ही नहीं हुआ कि मैने तुम्हें अपनी गोद में उठा रखा है। कर्म तो तुम्हें ही करना था। इसलिए गोद में रहकर भी तुम कर्म करते रहे और तुम्हारे निष्काम कर्मों का फल मैं तुम्हें तुम्हारी सफलता के रूप में देता रहा।
     भगवान भरोसे रहने वालों के लिए यह अच्छी कहानी है। ईश्वर अपने उन्हीं भक्तों का साथ देता है जो खुद का साथ देते हैं यानी अपने कर्म करते हैं। जो कर्म नहीं करते, उनका भगवान भी साथ नहीं दे सकता। यह मानी हुई बात है। यहाँ एक सवाल यह भी उठ सकता है कि भगवान ने भक्त को जब सदा साथ चलने का वर दे दिया था तो फिर वे अपनी बात से कैसे पलट सकते थे? फिर वह भक्त चाहे कर्म करे या न करे। इसका उत्तर यह है कि भगवान ने उसे हमेशा साथ चलने का वर दिया था, साथ देने का नहीं। यदि भक्त कर्म नहीं करता तो वे उसे गोद में नहीं उठाते, सिर्फ उसके साथ चलते, फिर भले ही वह जीवन के संग्राम में असफल ही क्यों न हो जाता।
     इसलिए आप यदि चाहते हैं कि आपको जीवन में सफलता मिले, तो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरी मेहनत और जोश के साथ निष्काम प्रयत्न करें। क्योंकि आपका अधिकार सिर्फ प्रयत्न करने तक ही सीमित है और फल देने का अधिकार उसका है। इसलिए आप सिर्फ अपने अधिकार का प्रयोग करें, ईश्वर भी अपने अधिकार का उपयोग करेगा यानी आपको फल देगा।
     आज की बातें आध्यात्मिक ज़रूर हैं, लेकिन बहुत ज़रूरी हैं। आज का युवा जीवन के हर उस क्षेत्र, जिसमें कि पुरुषार्थ के द्वारा ही सफलता प्राप्त की जा सकती है जैसे की पढ़ाई-लिखाई, कॅरियर आदि में भगवान से उम्मींद लगाए बैठा रहता है कि वे आएँ और उसकी मनोकामनाएँ पूरी करें। वह भूल जाता है कि जिस परीक्षा में वह सम्मिलित हो रहा है, उसकी तैयारी का समय तो उसने मौज-मस्ती में गँवा दिया और जब परीक्षा की घड़ी निकट आई तो वह ईश्वर का दरवाज़ा खटखटाने जा पहुँचता है। ऐसे में जब असफलता मिलती है तो ईश्वर को दोष देने लगता है, जबकि ईश्वर अपने बच्चों में भेद नहीं करता। वह तो सपने वाले भक्त की तरह हर व्यक्ति के साथ चल रहा है। लेकिन उसी की तरह सिर्फ उन लोगों को ही अपनी गोद में उठाता है जो अपना कर्म पूरी ईमानदारी से करते हैं। इसलिए इस प्रसंग से यह शिक्षा मिलती है कि सफलता पाने के लिए सिर्फ भगवान भरोसे रहने से काम नहीं चलता, पुरुषार्थ भी करना पड़ता है।

09.01.2016मूसीबतों से भागो मत सामना करो


     एक बार एक व्यक्ति काशी में रास्ते पर कहीं जा रहा था। वह जिस रास्ते से होकर गुज़र रहा था, उसके एक ओर तालाब और दूसरी ओर ऊँची दीवार थी। उस स्थान पर बहुत से बंदर रहते थे, जिन्होंने बहुत आतंक मचा रखा था। रास्ते से गुज़रते उस व्यक्ति को देख वे चिल्लाने लगे। बंदरों को इस प्रकार चिल्लाते देख वह व्यक्ति डरकर भागने लगा। उस व्यक्ति को भागते देख बंदरों की हिम्मत बढ़ गई और वे उसके नज़दीक आकर पैरों में काटने की कोशिश करने लगे।
     बंदरों के इस अचानक हमले से वह व्यक्ति एकदम घबरा गया। तथा बचने के लिए और तेज़ी से भागने लगा। लेकिन जितनी तेज़ी से वह भागता, उतनी ही तेज़ी से बंदर भी उसका पीछा करते। जब बंदरों से पीछा छुड़ाना उसे असंभव लगने लगा तो घबराहट में उसके दिल की धड़कने बढ़ने लगीं। वह हताशा में गिरता-पड़ता भाग रहा था कि उसके कानों में एक आवाज़ पड़ी-भागों मत, बंदरों का सामना करो। उस आवाज़ ने जैसे उस व्यक्ति के शरीर मे नई जान डाल दी और वह रुककर तुरंत पलटा। उसे पलटते देख बंदर अपनी जगह पर रुक गए। वह जैसे ही आगे बढ़ा, बंदर पीछे हटने लगे। इस बीच उसने रास्ते में पड़े पत्थरों  को उठाकर बंदरों की ओर फेंकना शुरु कर दिया। देखते ही देखते सारे बंदर भाग गए।
     इसके बाद उसकी दृष्टि उस व्यक्ति को तलाशने लगी, जिसने उसे इस विपत्ति का सामना करने का साहस दिया। उसने देखा कि थोड़ी ही दूर पर एक स्वामी जी खड़े हैं। उसने स्वामी जी के पास पहुँचकर उन्हें धन्यवाद दिया और बोला कि आज आपने मुझे इन बंदरों से बचा लिया। इस पर स्वामी जी बोले-मैने नहीं, तुम्हारे साहस ने तुम्हें बचाया है। जीवन में आने वाली किसी भी विपत्ति का सामना यदि इसी तरह साहस से करोगे तो वह इन बंदरों की तरह दूर भाग जाएंगी। दूसरी ओर विपत्ति से जितना भागोंगे, वह उतनी ही तेज़ी से पीछा कर बंदरों की तरह काटने की प्रयास करेंगी। विपत्तियों से डरकर भागने वाला कायर व्यक्ति उन पर कभी विजय नहीं पा सकता।
     भगवा वस्त्र, सिर पर पगड़ी, हाथों में बेंत और कंधों पर चादर डाले स्वामी जी एक बार अमेरिका के शिकागो शहर की सड़कों से गुज़र रहे थे। उनकी यह वेशभूषा अमेरिकियों के लिए नया अनुभव था। इस प्रकार विचित्र से वस्त्रों में बिना हैट लगाए व्यक्ति को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। कुछ लोग स्वामी जी का मज़ाक बनाते हुए उनके पीछे लग गए। उसमें एक महिला भी शामिल थी जो अधिक वाचाल थी और स्वामी जी के वस्त्रों को लेकर फब्तियां कस रही थी। कुछ दूर चलने के बाद स्वामी जी रूके और उस महिला को संबोधित करते हुए बोले-बहन, लगता है तुम्हारे देश में सज्जनता की पहचान कपड़ों से होती है। लेकिन मैं जिस देश से आया हूँ, वहाँ सज्जनता की पहचान व्यक्ति के कपड़ों से नहीं, उसके चरित्र से होती है। स्वामी जी की बात सुनकर उनका पीछा करते सभी लोग निरुत्तर हो गए और उन्हें अपने किए पर शरमिंदगी महसूस होने लगे।
     आप में से बहुत से लोग समझ गए होंगे कि इन प्रसंगों में जिन स्वामी जी का उल्लेख हुआ है, वे कौन हैं? ये प्रसंग हैं भारतवर्ष के महान संत स्वामी विवेकानंद जी , जिन्होने भारतीय धर्म-दर्शन को अंतरराष्ट्रीय  मंचों पर पहचान दिलाई। आज जब कि प्रतिस्पर्धा का दौर बढ़ रहा है, ऐसे में उनकी शिक्षाएँ अधिक प्रासंगिक हो गई हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आज हमने स्वामी जी से जुड़े प्रसंगों का उल्लेख किया है। इन प्रसंगों में एक बात गौर करने लायक है कि स्वामी जी न सिर्फ दूसरों को रास्ता दिखाते थे, बल्कि स्वयं भी उन पर अमल करते थे। उन्होने पीछा करते बंदरों से डरकर भागते व्यक्ति को डटकर सामना करने की सलाह ही नहीं दी, बल्कि अपना पीछा करती विदेशी महिला को मुँहतोड़ जवाब भी दिया। यानी उन्होने स्वयं भी विषम स्थिति का डटकर मुकाबला किया। यही शिक्षा वे दूसरों को भी देते थे। कुल मिलाकर मंत्र यह है कि "मुसीबतों से भागो मत, उनका सामना करो।' फिर चाहे मुसीबत कैसी भी हो।

क्षमाशील सद्गुरु


     दादू पंथ के संस्थापक स्वामी दादूदयाल जी अपने भ्रमण के दौरान एक नगर के बाहर जंगल में बनी झोंपड़ी में रहने लगे। वहां वे भक्ति रस में डूबे गीत गाते रहते, साथ ही उनके पास आने वाले श्रद्धालुओं को तत्वज्ञान का उपदेश भी देते। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि फैलने लगी। यह प्रसिद्धि उस नगर के कोतवाल तक भी पहुँची, जो कि गुस्सैल स्वभाव का होने के साथ ही धार्मिक प्रवृत्ति का भी था। वह बहुत दिनों से सच्चे गुरु की तलाश में था। महात्मा दादू जी के बारे में सुनकर उसके मन में उनसे भेंट करने का विचार आया और वह इसके लिए शहर से अपने घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ा। वह जंगल में बहुत दूर तक निकल गया, लेकिन दादूदयाल जी की झोंपड़ी दिखाई नहीं दी। वह सोचने लगा कि शायद मैं रास्ता भटक गया। इतने में उसकी नज़र एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी, जो काँटेदार झाड़ियों को काटकर रास्ते की सफाई कर रहा था। कोतवाल उस व्यक्ति के पास पहुंचा और पुलिसिया अंदाज़ में पूछा अबे ओए! महात्मा दादू कहाँ रहते हैं? जल्दी से बता कि उनकी झोंपड़ी किस तरफ है? वह व्यक्ति अपने कार्य में तल्लीन था और उसने कोतवाल के प्रश्न का जवाब नहीं दिया। उस व्यक्ति का यह व्यवहार कोतवाल को अपना अपमान लगा और वह कड़क आवाज़ में गाली देते हुए बोला क्या मैं तेरे बाप का नौकर हूँ? जवाब क्यों नहीं देता? कोतवाल की इस बात का भी उस व्यक्ति पर कोई असर नहीं हुआ और वह केवल धीरे से मुस्करा दिया।
     कोतवाल को लगा कि यह व्यक्ति मुझसे ठिठोली कर रहा है। वह गुस्सैल तो था ही, उसने अपने हाथ मे लगे चाबुक से उस व्यक्ति पर प्रहार करना शुरु कर दिया। लेकिन वह व्यक्ति चाबुक लगने के बाद भी मुस्कराता रहा। इस पर कोतवाल ने सोचा-शायद यह व्यक्ति पागल है और वह उसे धक्का देकर आगे बढ़ गया। आगे जाकर उसे एक व्यक्ति और मिला, जिससे उसने दादूदयाल जी के बारे में पूछा। उस व्यक्ति ने बताया कि कोतवाल सा'ब! दादूदयाल जी तो जिस रास्ते से आप आ रहे हैं, उस पर कुछ ही दूर कँटीली झाड़ियों को हटाकर रास्ता साफ कर रहे हैं।
     कोतवाल आश्चर्य में पड़ गया और वह तेज़ी से घोड़ा पलटाकर दादूदयाल जी के पास पहुँचा। कोतवाल ने देखा कि वे अब भी उसी तरह मुस्कराते हुए झाड़ियों को काट रहे थे। धक्के की वजह से लगी चोट पर उन्होने पट्टी बांध रखी थी। कोतवाल घोड़े से उतर कर उनके पैरों में गिर पड़ा और रोते हुए क्षमा माँगने लगा। उसे अपने किए पर बहुत पछतावा हो रहा था। वह बोला मेरी मती मारी गई थी जो मैने आपको ही पीट दिया। मुझे नहीं पता था कि आप ही महात्मा दादू हैं। आप तो रास्ता साफ कर रहे थे। इस पर दादू जी ने मुस्कराते हुए कहा हाँ, इस रास्ते पर कँटीली झाडियाँ बहुत हैं। यहां से गुजरने वाले यात्रियों को कोई कष्ट न हो, इसलिए मैं इन्हें रास्ते से हटा रहा हूँ। जब मैं मनुष्य के मन में समाहित काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की कँटीली झाड़ियों को हटाने की सलाह देता हूँ तो भौतिक संसार के काँटों को राह में कैसे रहने दूँ? दादू आगे बोले-वैसे तुम अपने कृत्य पर दुःखी मत हो। गलत कुछ नहीं किया तुमने। तुम सच्चे गुरु की तलाश में निकले हो। आज की दुनियां में जब तुम एक मटका भी खरीदने से पहले ठोंक-पीटकर देख लेते हो, तो जीवन की सच्ची राह दिखाने वाले गुरु को ठोंक-पीटकर देख लिया तो इसमें गलत क्या किया?

Thursday, January 7, 2016

पीठ पीछे बुराई नहीं प्रशंसा करो।


     यह बात उस समय की है, जब विश्वामित्र व वशिष्ठ के संबंध आपस में अच्छे नहीं थे। ब्राहृर्षि वशिष्ठ बड़े ही क्षमाशील थे। वे विश्वामित्र की हर धृष्टता को क्षमा कर देते थे। इससे तीनों लोकों में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी जिस कारण विश्वामित्र उनसे और अधिक ईष्र्या करने लगे। इस ईष्र्या का प्रमुख कारण यह था कि कठोर तप और उपलब्धियों के बाद भी वशिष्ठ ने उन्हें "ब्राहृर्षि' नहीं माना था। वे तो उन्हें "राजर्षि' कहकर ही संबोधित करते थे। और वशिष्ठ की सहमति के बगैर उन्हें यह सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता था। इस कारण वे उन्हें नीचा दिखाने का कोई न कोई मौका ढूँढते रहते थे। एक बार उनके मन में विचार आया कि यदि मैं वशिष्ठ का वध कर दूँ तो सब मुझे ब्राहृर्षि मान लेंगे, क्योंकि तब राजर्षि कहने वाला कोई रहेगा ही नहीं। ऐसा सोचकर हाथ में कटार लेकर वे रात में छुपते-छुपाते वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे। वे वहां उस वृक्ष पर चढ़ गए, जिसके नीचे बनी कुटी में वशिष्ठ जी रात्रि विश्राम करते थे। कुछ समय बाद वशिष्ठ मुनि सपत्नीक वहाँ आए और आसन पर विराजमान हो गए। वह पूर्णिमा की रात थी और आकाश में चंद्रमा अपने पूर्ण यौवन पर था।
     विश्वामित्र ऊपर घात लगाए बैठे थे। वे सोच रहे थे कि जैसे ही ये सो जाएँगे, तब एक ही वार में इनकी इहलीला समाप्त कर दूँगा। इतने में ऋषि-पत्नी की आवाज़ सुनकर उनका ध्यान टूटा। वे पूर्णिमा के चंद्रमा को देखकर बोली-आज चाँद का प्रकाश कितना मधुर व शीतल लग रहा है। यह चित्त को बहुत ही शांति प्रदान कर रहा है। वशिष्ठ जी ने चांद की ओर देखा और बोले-देवी, तुम विश्वामित्र को देखो तो इस चांद को भूल जाओगी। यह चाँद तो कलंकित है, लेकिन उनके तप का जो तेज़ है, उसका कोई सानी नहीं। बस, उनमें एक ही कमी है। यदि वे अपने स्वभाव से क्रोध के कलंक को मिटा दें तो वे सूर्य की भाँति चमक उठें उनके बराबर कठिन तपस्या शायद ही किसी ऋषि ने आज तक की हो।
     इस पर अरूंधती बोली-परंतु स्वामी, वे तो हमारे शत्रु हैं। आपको तरह-तरह से परेशान करते हैं। हमेशा आपका अहित ही सोचते हैं। फिर भी आप उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। वशिष्ठ बोले-मैं जानता हूँ देवी, परंतु मैं यह भी जानता हूँ कि वे मुझसे अधिक विद्वान हैं। वे तो महात्मा हैं महात्मा। बस विनम्रता आ जाए, फिर तो मेरा सिर उनके सामने झुका है। वृक्ष पर बैठे विश्वामित्र ने यह सब सुना तो वे पानी-पानी हो गए। वे आए थे वशिष्ठ का वध करने और वे थे कि उनकी प्रशंसा किए जा रहे थे। वे तुरंत पेड़ से नीचे कूद पड़े। कटार को फेंककर वशिष्ठ के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगे। वशिष्ठ उन्हें उठाकर बोले-उठो ब्राहृर्षि। विश्वामित्र ने आश्चर्य से कहा- ब्राहृर्षि? आपने मुझे ब्राहृर्षि कहकर पुकारा। परन्तु अभी तक तो आप यह मानते नहीं थे। वशिष्ठ बोले-आश्चर्यचकित  मत होइए विश्वामित्र। तुम्हारे अंदर जो क्रोध का कलंक था, वह अब दूर हो चुका है। तुम अब सही अर्थों में ब्राहृर्षि बन गए हो।
      यही परिणाम होता है पीठ पीछे प्रशंसा करने का। हमें हमेशा दूसरों में गुण ही देखने चाहिए, फिर भले ही वह हमारा कितना ही बड़ा शत्रु क्यों न हो। जैसा कि वशिष्ठ जी ने किया। वे जानते थे कि विश्वामित्र हमेशा उनका अहित सोचते हैं, लेकिन वे हमेशा उनके गुणों को ही देखते थे और उनकी प्रशंसा करते थे। यही एक बुद्धिमान व संस्कारित व्यक्ति का कत्र्तव्य भी है। अतः कह सकते हैं कि पीठ पीछे की प्रशंसा हर तरह से लाभप्रद है और हमें इसकी आदत डाल लेनी चाहिए। इससे आपके मन में नकारात्मक भाव नहीं आते और साथ ही जिस व्यक्ति की आप प्रशंसा कर रहे हैं, जब उसे यह बात पता चलती है तो वह बहुत खुश होता है और हमेशा के लिए आपका बन जाता है। इसलिए मुँह पर की गई प्रशंसा की अपेक्षा पीठ पीछे की प्रशंसा को अधिक प्रभावी बताया गया है, क्योंकि यह आपके संबंधो को लेकर कितने ईमानदार हैं।
     दूसरी ओर पीठ पीछे किसी की बुराई करने से कोई लाभ नहीं मिलता, बल्कि जिसकी आप बुराई कर रहे हैं, उसके साथ आपके मन में भी नकारात्मक भावना आती है और बने-बनाए संबंध बिगड़ जाते हैं। यानी यह एक नई बुराई को जन्म देती है। वो कहते हैं न कि बुराई से बुराई का जन्म होता है। और पीठ पीछे की बुराई तो बहुत ही बुरी बात है, क्योंकि जब आप किसी की अनुपस्थिति में उसकी बुराई करते हैं तो यकीनन आप उससे जलते हैं। बेहतर तो यही है कि यदि आपको किसी में कोई कमी नज़र आती है, तो उसे उसके मुँह पर कहें ताकि वह सुधार कर सके। अन्यथा कमी उसमें नहीं, आप में है, क्योंकि आप नहीं चाहते कि वह सुधरे। कॅरियर में हम हमेशा अपने सहकर्मियों को लेकर यही रुख अपनाते हैं। लेकिन अंततः इसका नुकसान हमें ही उठाना पड़ता है, क्योंकि लोगों को हमारी विश्वसनीयता पर शक होने लगता है। वे सोचते हैं कि यदि आज यह उसकी बुराई कर रहा है तो कल हमारी भी करेगा। इस तरह वे धीरे-धीरे आपसे कटने लगते हैं। यदि आप इस स्थिति से बचना चाहते हैं तो लोगों की प्रशंसा करना शुरु कर दें। सामने भी और पीठ पीछे भी।

Wednesday, January 6, 2016

खुद को ही छलते हैं, दूसरों को छलने वाले

     एक राजा को नए प्रधानमंत्री की तलाश थी। इसके लिये उन्हें ईमानदार और भरोसेमंद व्यक्ति की तलाश थी। उपयुक्त व्यक्ति के चयन के लिए नगर में विभिन्न प्रतियोगिताएँ आयोजित की गर्इं। अंततः दस लोगों का चयन कर उन्हें राजा के सामने पेश किय गया। राजा ने अंतिम परीक्षा के लिए सभी उम्मीदवारों को कुछ बीज दिए। राजा बोला-आपको इन बीजों को रोपकर दो माह तक देखभाल करनी है। जिसका पौधा सबसे हरा-भरा होगा, वही विजेता होगा। सभी उन बीजों को लेकर अपने-अपने घर चले गए। उन्होने गमले में बीजों को बो दिया। प्रतियोगिता में रणवीर नाम का एक युवक भी था, जो अब तक की सभी परीक्षाओं में शीर्ष पर रहा था। बीजों को रोपने के बाद वह भी उनकी अच्छी तरह से देखभाल करने लगा, लेकिन कई दिन गुज़र जाने के बाद भी बीज अंकुरित नहीं हुए। कुछ सोचकर उसने बीजों को नए गमले में डाल दिया। उसने समुचित मात्रा में खाद-पानी डाला, लेकिन बीज फिर भी अंकुरित नहीं हुए। इस पर भी रणवीर ने हिम्मत नहीं हारी। वह लगातार प्रयास करता रहा। अन्ततः अंतिम परीक्षा की घड़ी भी आ गई। सभी उम्मीदवार अपने-अपने पौधे लेकर राजा के समक्ष उपस्थित हुए। उनके गमलों में हरे-भरे पौधे लहलहा रहे थे। यह देखकर रणवीर उदास हो गया। तभी राजा वहाँ आए। उन्होने एक-एक प्रतियोगी के पास जाकर उनके पौधे का मुआयना किया। प्रतियोगियों ने राजा को बताया कि अथक परिश्रम के बाद वे पौधों को कैसे इस स्थिति में ला पाए हैं। अंत में राजा रणवीर के सामने आए और उसके खाली गमले को देखकर बोले-तुम्हारा पौधा कहाँ गया? रणवीर बोला-क्षमा करें महाराज, मैं बीज को अंकुरित कराने में सफल नहीं हो पाया। मैं हार गया। इस पर राजा बोला- नहीं प्रधानमंत्री जी, आप कैसे हार सकते हैं। आखिर आप रणवीर हैं। राजा की बात सुनकर सभी हैरान रह गए। इसके पहले कि कोई कुछ कहता राजा ने घोषणा की-रणवीर आज से हमारे नए प्रधानमंत्री हैं। क्योंकि इन्होने पूरी ईमानदारी से मेहनत की और छलने की कोशिश नहीं की। हमने सभी को उबले हुए बीज दिए थे, जिनका अंकुरण संभव ही नहीं था। निश्चित ही शेष सभी प्रतियोगियों ने बीज बदलकर पौधे उगाए हैं। ये सभी धोखेबाज़ हैं। आशा है आप सभी हमारे इस निर्णय से सहमत होंगे।
     निश्चित ही राजा का फैसला उचित था। इसलिए कोई असहमत कैसे हो सकता था। इस तरह एक होनहार युवक, ईमानदारी के बल पर कई अनुभवी और वरिष्ठ लोगों को पीछे छोड़कर प्रधानमंत्री का पद पाने में सफल रहा। हारने का अंदेशा होने के बाद भी उसने सफलता पाने के लिए गलत तरीका नहीं अपनाया। यहाँ तक कि उसके दिमाग में भी यह बात नहीं आई कि यह मौका यदि उसने खो दिया तो दोबारा ऐसा अवसर मिलना मुश्किल है।
     आज भी कई बार देखने में आता है कि लोग सफलता के लिए तरह तरह के अनैतिक तरीके अपनाते हैं। रिश्वत देना, नकली डिग्रीयाँ बनवाना, उल्टे-सीधे सर्टिफिकेट तैयार करवा लेना आदि गलत तरीके ही हैं। इनके सहारे कई बार लोग उच्च पद तक हथिया लेते हैं। यह धोखा नहीं तो और क्या है? ऐसा करके नौकरी पाने वालों को हम कहना चाहेगे कि वे धोखे में हैं कि उन्हें सफलता मिल गई। सफलता तो तब मिलेगी जब वे खुद को साबित कर देंगे। प्रायः ऐसे लोग अपने आप को साबित नहीं कर पाते और एक दिन ऐसे उलझते हैं कि फिर उन्हें बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता। यदि आप भी ऐसा करने की सोच रहे हैं तो अपना फैसला तत्काल बदल दें। क्योंकि अनैतिक तरीकों  से मिली सफलता कभी फलीभूत नहीं होती। वह एक दिन हमारे हिसाब-किताब चुकता कर ही देती है। कुल मिलाकर कहा जाए तो धोखा देकर सफलता हासिल करने वाला व्यक्ति किसी और को नहीं स्वयं को ही धोखा देता है। और इससे बड़ा धोखा कोई और हो नहीं सकता। क्योंकि आप किसी और को नहीं खुद को छल रहे हैं। कहते हैं सबसे बड़ा और खराब धोखा है खुद को धोखा देना। इसलिए बेहतर है कि अपने साथ धोखेबाज़ी से बाज़ आएँ। क्योंकि धोखा कभी आपकी ज़िन्दगी में चोखा रंग नहीं ला सकता। यह तो रंग बिगाड़ता है।