Monday, February 29, 2016

तो फिर आप भी हो जाएँगे अष्टभुजाधारी!


     मथुरा के कारागार में देवकी की आठवीं संतान के जन्म का समय निकट था। कंस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी क्योंकि देवकी की आठवीं संतान के हाथों कंस के अंत की आकाशवाणी हुई थी। अंततः कृष्ण के रूप में विष्णु अवतरित हुए। उनके पैदा हेाते ही कारागार के द्वार खुल गए। वसुदेव बच्चे को लेकर गोकुल में नंद के घर पहुँचे। वसुदेव ने कृष्ण को पालने में लिटाया और यशोदा की नवजात कन्या को लेकर कारागार में लौट आए। जब कंस को बालक के जन्म की सूचना मिली तो वह तुरंत कारागार पहुँचा और बोला- "देवकी, कहाँ है वह दुष्ट बालक? मैं उसके टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा।' देवकी बोली-"भैया! यह तो कन्या है। यह तुम्हारा क्या नुकसान करेगी। लेकिन कंस पर तो भूत सवार था। आकाशवाणी उसके कानों में गूँज रही थी। उसने कन्या को टाँग से पकड़कर उठा लिया। लेकिन इसके पहले कि वह उसे मारता, कन्या हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई, और आठ भुजाओं वाली देवी योगमाया के रूप में बदल गई। देवी बोली-"मूर्ख कंस, तेरा काल तो कहीं और पैदा हो चुका है। यह कहकर वे अन्तध्र्यान हो गर्इं। इसके बाद कंस ने कृष्ण को मारने के काफी प्रयत्न किए लेकिन वह अपनी किस्मत के लिखे को बदल नहीं पाया और कृष्ण के हाथों मारा गया।
     दोस्तो, किस्मत के लिखे को इस तरह बदला भी नहीं जा सकता। यदि आपने बुरे कर्म किए हैं तो आपको उनका दंड भुगतना ही पड़ेगा। कंस के बुरे कर्म ही उसे भयभीत करते थे। उसे पता था कि जो अत्याचार वह करता है उसका एक दिन दंड अवश्य मिलेगा। इसलिए जब तक वह जीवित रहा आकाशवाणी उसके कानों में गूँजती रही। ऐसी ही स्थिति हर बुरे कर्म करने वाले की होती है। फिर भले ही वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो। वैसे भी हम जिन शक्तियों को असली शक्ति समझते हैं, वास्तव में वे मायावी शक्तियाँ होती हैं। जिनके अहंकार में व्यक्ति दुष्कर्म करता चला जाता है। अब पूछेंगे कि फिर असली शक्तियाँ कौन-सी हैं? असली शक्तियाँ हैं अष्ट शक्तियाँ। इनमें से पहली शक्ति है "सहनशक्ति, जिसके बल पर व्यक्ति हर परिस्थिति का धैर्य से सामना करता है। इसमें दूसरी शक्ति यानी कि "सामना करने की शक्ति' सहायक की भूमिका निभाती है। इससे व्यक्ति विचलित हुए बिना लक्ष्य प्राप्ति में लगा रहता है। तीसरी शक्ति है "सिकोड़ने और फैलाने की शक्ति ।' जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को जब चाहे फैला लेता है और सिकोड़ लेता है। वैसे ही इस शक्ति से युक्त व्यक्ति ज़रूरत पड़ने पर ही अपनी शक्तियों का उपयोग करता है। इसका एक पहलू यह भी है कि जब दिन विपरीत हों तो अपने आपको खोल में समेट लो और अनुकूल स्थिति में पुनः सक्रिय हो जाओ। चौथी शक्ति है "समाने की शक्ति।' यह शक्ति व्यक्ति को हमेशा सीखने के लिए प्रेरित करती है। वह अच्छी बातें सीखकर और देख-परखकर उन्हें अपने अन्दर समा लेता है। अच्छी आदतों को परखने के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता होती है। वही है पाँचवी शक्ति यानी "परखने की शक्ति।' इस शक्ति के बल पर व्यक्ति अच्छे-बुरे की पहचान कर ही निर्णय लेता है, जिसमें कि छठी शक्ति अर्थात् "निर्णय शक्ति' उसके काम आती है। यह शक्ति उचित-अनुचित के भेद को जानने की समझ प्रदान करती है। इसी के बल पर व्यक्ति में यह सोच विकसित होती है कि सहयोग की भावना से ही सफलता हासिल की जा सकती है। "सहयोग शक्ति' ही मनुष्य के भीतर मौजूद सातवीं शक्ति है, जिसके माध्यम से उसकेअंदर संगठन शक्ति और टीम भावना का विकास होता है। आठवीं शक्ति है " समेटने की शक्ति।' इस शक्ति को धारण करने वाला व्यक्ति मोह-माया में नहीं फँसता और हर परिस्थिति के लिए खुद को तैयार रखता है। तो ये हैं अष्ट शक्तियाँ, जिनके बल पर आप जीवन में आने वाली किसी भी कठिनाई का सामना आसानी से कर सकते हैं।

Sunday, February 28, 2016

ओह! न जाने क्या- क्या कराए ये मोह!!


     एक बूढ़ा व्यापारी हर वक्त परेशान रहता था क्योंकि उसकी कोई संतान नहीं थी। एक दिन वह दुकान पर बड़बड़ा रहा था कि इस जीने से तो मौत आ जाए तो अच्छा। उसकी बात वहाँ से गुज़रते एक साधु ने सुन ली। वह व्यापारी से बोला-बड़े दुःखी नज़र आते हो। मेरे पास एक सिद्ध विद्या है, जिससे मैं तुम्हें सीधे स्वर्ग ले जा सकता हूँ, तुम मेरे साथ चले चलो। व्यापारी ने कहा-यदि आप मुझे सुखी देखना चाहते हैं तो मुझे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दें। उसके बाद मैं आपके साथ चला चलूंगा।
     साधू उसे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देकर चला गया। कुछ समय बाद व्यापारी के घर बेटे ने जन्म लिया। इसके कुछ समय बाद साधु उसे लेने आ गया। व्यापारी बोला-बेटे के बड़े होने पर उसे अपना व्यापार सौंप दूँ, फिर निÏश्चत होकर चलूँगा। बेटा बड़ा होकर व्यापार सँभालने लगा। साधु फिर आया, लेकिन व्यापारी कई वर्ष पहले मर चुका था। साधु को योग बल से पता चला कि व्यापारी अपने ही घर में बैल के रूप में जन्म ले चुका है। साधु ने उससे चलने को कहा तो वह बोला- मैं अपने अनुभवहीन बेटे का सामान ठीक से तो ढो रहा हूँ। दूसरा बैल पता नहीं ये सब करे न करे। इसलिए कुछ समय और दे दो।
     कुछ वर्ष बाद साधु पुनः आया तो उसे पता चला कि बोझ ढोते-ढोते बैल मर गया। बेटा बड़ा व्यापारी बन चुका था जिसके पास अब कई लॉरियाँ थीं। साधु ने फिर पता लगाया कि व्यापारी कुत्ता बनकर अपने घर की रखवाली कर रहा है। साधु ने उसे चलने को कहा तो वह बोला-अरे भाई, मेरे बेटे के धन की सुरक्षा कौन करेगा? साधु फिर चला गया। जब वह लौटा तो कुत्ता भी मर चुका था, लेकिन घर मे सुरक्षा इतनी थी कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। अब व्यापारी मेंढक के रूप में जन्म लेकर घर की नाली में रहता था। इस बार साधु को देखते ही वह बोल पड़ा-चलो भागो यहाँ से, मुझे नहीं जाना तुम्हारे साथ स्वर्ग वर्ग। वहाँ मैं किसका मुँह देखूँगा? यहाँ कम से कम अपने पोते-पोती को देखकर तो खुश होता रहता हूँ।
     ओह, क्या-क्या न कराए ये मोह। व्यक्ति इस मोह के जाल में ऐसा फँसा रहता है कि भले ही कितने ही दुःख, कितनी ही पीड़ाएँ क्यों न उठानी पड़े, वह अपना मोह त्याग नहीं पाता। इसके कारण उसे अहसास ही नहीं होता कि वह जीवन में न जाने क्या-क्या खो चुका है और क्या-क्या आगे खो देगा। यदि आप आज ज़िंदगी की दौड़ में अपने आपको पिछड़ा महसूस करते हैं या आपको लगता है कि आप बहुत कुछ कर सकते थे, लेकिन नहीं कर पाए या फिर सब कुछ होने के बाद भी आप अपने आपको असहाय, दुःखी या तनावग्रस्त महसूस करते हैं, तो एक बार सोचकर देखें कि आप भी तो किसी मोहजाल में नहीं फँसे? वह मोह किसी व्यक्ति से भी हो सकता है, संस्था से भी हो सकता है, वस्तु से भी हो सकता है, जगह से भी हो सकता है। मतलब यह कि किसी भी चीज़ से हो सकता है। यदि मोह इसके पीछे है तो आपकी समस्या का हल यही है कि जितनी जल्दी हो सके आप इससे निजात पाएँ। वैसे भी पांच प्रमुख विकारों में इसकी गिनती होती है। इसलिए जब तक यह विकार आप पर हावी है, तब तक तो आपकी हवा गुल ही रहेगी यानी आप परेशान रहेंगे। कभी यह आपको रूलाएगा, कभी तड़पाएगा। वह इसलिए कि मोह में फँसा व्यक्ति सामने वाले के लिए सोचता रहता है, करता रहता है लेकिन सामने वाला उसकी भावनाओं की कद्र ही नहीं करता।
     अब यह तो कोई बात नहीं हुई न कि आप किसी के लिए मरे जा रहे हैं, करे जा रहे हैं और वह इसे समझ ही नहीं रहा है। ऐसे एक तरफा मोह का एक न एक दिन अंत होता ही है और यह अंत होता है मोहभंग के रूप में। तब आपको अहसास होता है कि मोह-माया में फँसकर आप अपना कितना नुकसान कर चुके हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और आपके पास पछताने के सिवाय कोई चारा नहीं होता।
     हम यहां यह नहीं कह रहे कि आप दूसरों के लिए अपनी भावनाएँ ही खत्म कर दें। नहीं, फिर तो आपका व्यक्तित्व ही खत्म हो जाएगा। भावनाएँ रखें लेकिन एक सीमा तक। मोहपाश में न खुद फँसें और न किसी को फँसाएँ। आप ऐसा कर पाए तो आपकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी बाधा हट जाएगी और आप हमेशा तटस्थ भाव से चीज़ों को लेंगे और सोचेेंगे। इस तरह मोह त्यागने के बाद तो मोहतरम, आप ही आप होंगे।

Saturday, February 27, 2016

न जलाएँ दिल किसी के जलते तेल से!


 बहुत समय पहले की बात है। एक गाँव से बारात दूसरे गाँव को जा रही थी। दूसरा गाँव आने से पहले ही अँधेरा हो गया। अँधेरा होते देख बारात के साथ चल रहे मशालची ने मशाल जला दी और सबसे आगे चलने लगा। जब भी मशाल की रोशनी धीमी होते दिखती तो तेली उसमें तेल डाल देता। वैसे भी उसे दूल्हे के पिता का आदेश था कि रोशनी धीमी पड़ी तो तम्हारे पैसे काट लूँगा। इसलिए तेली का ध्यान हमेशा मशाल पर ही लगा रहता था।
     उधर, मशाल उठाए-उठाए जब मशालची का एक हाथ थक जाता तो वह दूसरे हाथ से मशाल पकड़ लेता था। अंततः बारात दूसरे गाँव पहुँच गई। मशालची ने भी राहत की साँस ली। लेकिन उसकी यह खुशी ज्यादा देर नहीं टिक पाई। क्योंकि बारात को पहुँचने में पहले ही देर हो चुकी थी और फेरे का मुहूर्त हो चला था। इसलिए बारातियों ने आराम करने की बजाय बारात को लड़की वालों के द्वार पर ले जाना ही मुनासिब समझा और बारात फिर से चल दी। उसके साथ मशालची को भी चलना पड़ा। चलते-चलते वह सोचता जाता कि काश! मशाल का तेल खत्म हो जाए और यह बुझ जाए। इससे मुझे थोड़ी देर के लिए आराम मिल सकता है। लेकिन तेली के रहते ऐसा संभव न था, क्योंकि वह मशाल में तेल डालने का काम बड़ी सतर्कता से कर रहा था। जब भी वह मशाल में तेल डालता, मशालची जल-भुनकर राख हो जाता। वह मन ही मन तेली को खूब कोसता, गालियाँ देता। लेकिन जब उसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया तो वह बड़बड़ाने लगा। उसकी बड़बड़ाहट सुन एक बाराती बोला-देखो भाइयो, तेली का तेल जले और मशालची का प्राण जले। अब समझ में आया कि मशाल के साथ मशालची भी जल रहा है, इसीलिए रोशनी दोगुना हो गई है। उसकी बात सुनकर सभी बाराती खिलखिलाकर हँस दिए और मशालची अपना-सा मुँह लेकर रह गया।
      दोस्तो, जानते हैं वह मशालची हँसी का पात्र क्यों बना? क्योंकि वह अपने काम को ठीक से अंजाम नहीं दे पा रहा था और अपना गुस्सा किसी दूसरे पर उतार रहा था। लेकिन यह तो उसका रोज का काम था और निश्चित ही उसे पहले से पता होगा कि उसे कितनी देर मशाल थामे चलना पड़ सकता है। यदि वह मशालची अपनी थकान भूलकर धैर्यपूर्वक अपने काम को अंजाम देता तो निश्चित ही उसके प्रति बारातियों की सहानुभूति होती। लेकिन वह काम करने के साथ बड़बड़ाता भी जा रहा था, जिससे उसका किया-धरा सब बेकार हो गया। इसलिए कोई भी काम झुँझलाकर न करें। इससे सामने वाले का ध्यान आपके काम की बजाय आपके व्यवहार पर जाता है और जिस काम को आपने मेहनत से पूरा किया होता है, उसका श्रेय आपको नहीं मिल पाता।
     दूसरी ओर, आपको बहुत से लोग ऐसे मिल जाएँगे जो किसी और के द्वारा किए जाने वाले खर्च को देखकर परेशान होते रहते है। यानी गाँठ से किसी का जाता है और दम इनका सूखता है। यदि आप भी दूसरे के तेल को जलते देखकर जलने वाली प्रवृत्ति के हैं तो अपने आपको बदलने की कोशिश करें, क्योंकि इससे सामने वाले का नहीं, आपका ही नुकसान होता है। सामने वाले का तो केवल तेल जल रहा है यानी वह खर्च कर रहा है, लेकिन आप तो खुद को जला रहे हैं। यह जलन तब और बढ़ जाती है जब सामने वाला आपके कहने के बावजूद आपकी बात पर ध्यान न दे। ऐसे में आपको उसकी चिंता करना छोड़ देना चाहिए। लेकिन होता उलटा है। आप यह नहीं समझ पाते कि सामने वाला यदि जानते-बूझते तेल जला रहा है, पैसा फूँक रहा है, तो निश्चित ही इसमें उसका कोई भला छिपा होगा, उसे अधिक लाभ होने वाला होगा जैसे कि तेली को होने वाला था।
     इसी तरह कई बार व्यवसाय को गति देने के लिए किसी व्यवसायी को अधिक धन लगाना पड़ता है। तात्कालिक रूप से यह भले ही किसी को फिजूलखर्ची नज़र आए, लेकिन इसे दूरगामी परिणाम होते हैं। उसने जितना पैसा खर्च किया है, उससे कई गुना वापस मिल जाता है। यह बात खर्च करने वाला व्यक्ति ही जानता-समझता है। ऐसे में आप तनाव में रहें, यह कहाँ तक उचित है। यह तो तब भी जायज़ नहीं, जब सामने वाला वाकई में लुटा रहा हो। ऐसे में आप इतना कर सकते हैं कि उसे एक-दो बार आगाह कर दें। यदि वह तब भी न माने तो उसे भुगतने दें। आप क्यों जलें-भुनें। ठीक है न।

Friday, February 26, 2016

क्रोध को किसने जीता?

     एक बार भृगु ऋषि इस बात का पता लगाने निकले कि क्रोध को किसने जीत लिया है? सबसे पहले वे कैलास पर्वत पर पहुँचे। भगवान शंकर उन्हें देखते ही गले लगाने के लिए आगे बढ़े, लेकिन भृगु ने अपने पाँव पीछे खींच लिए। भृगु के इस कृत्य को अपना अपमान मान वे क्रोध से तिलमिलाते हुए बोले-भृगु! जहाँ हो वहीं ठहर जाओ, वरना...। शंकर को क्रोधित देख पार्वती समझ गर्इं कि अब भृगु की खैर नहीं। उन्होने बीच-बचाव कर जैसे-तैसे भृगु को बचाया।
     भृगु वहाँ से सीधे ब्राहृलोक पहुँचे। ब्राहृा जी की दृष्टि उन पर पड़ी तो उन्हें देखकर वे मुस्करा दिए, लेकिन भृगु ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और उन्हें प्रणाम तक नहीं किया। ब्राहृाजी को ये बड़ा अटपटा लगा कि कोई उनके लोक में आए और उनका गुणगान करना तो दूर उन्हें प्रणाम तक न करे। बस फिर क्या था, क्रोध में आकर उन्होने भृगु पर अपनी खीझ निकालना शुरू कर दिया। भृगु को ब्राहृा जी से ये आशा न थी कि वे आपा खो बैठेंगे। बहुत कुछ सुनने के बाद वे चुपचाप वहाँ से खिसक लिए और सीधे क्षीरसागर पहुँचे जहाँ शेष सय्या पर भगवान विष्णु आँखें बंद किए विश्राम कर रहे थे। इसलिए उन्हें इसका पता भी नहीं चला कि कोई आया है। भृगु ने जाकर उनके वक्ष पर जोर से लात जमा दी। विष्णु हड़बड़ाकर उठ बैठे। जब उन्होंने भृगु को सामने पाया तो तुरंत हाथ जोड़कर बोले-क्षमा करें मुनिवर! मुझे आपके आने का पता ही नहीं चल पाया, इसलिए आपका स्वागत न करने की धृष्टता हो गई। इसके बाद उन्होने बड़ी विनम्रता से भृगु को एक आसन पर बैठाया और पूछा-मेरे वक्ष पर प्रहार करने से आपके पाँव में कहीं चोट तो नहीं लगी? विष्णु की बात सुनकर भृगु मंद-मंद मुस्कराने लगे। उन्हें पता चल गया था कि क्रोध पर विजय किसने हासिल की है।
     दोस्तो, कहते हैं क्रोध करके व्यक्ति अपने से छोटे व्यक्ति को अपने से बड़ा बना देता है, लेकिन विष्णु जी ने ऐसा नहीं होने दिया। उन्होने बता दिया कि वे वास्तव में बड़े क्यों हैं। एक तरह से देखा जाए तो विष्णु जी को लात मारकर भृगु ने उनका अपमान ही किया था, लेकिन तब भी उनकी धृष्टता पर वे नाराज़ नहीं हुए। इस तरह उन्होने भृगु से क्षमा माँगकर उन्हें ही उनकी धृष्टता के लिए क्षमा किया था। ऐसा ही व्यवहार किसी बड़े व्यक्ति को तब करना चाहिए जब कोई छोटा उनकी प्रतिष्ठा पर, उनके चरित्र पर कीचड़ उछालने या उनका अपमान करने की कोशिश करे। क्योंकि ऐसे में यदि वे उसकी गुस्ताखी पर अपना आपा खो बेठेंगे तो सामने वाले का उद्देश्य पूरा करने में सहायक ही बनेंगे।
     इसलिए यदि आप गलत नहीं हैं तो ऐसी स्थिति में खुद को शांत रखते हुए आपको सामने वाले के उकसावे में नहीं आना चाहिए। वह तो चाहता ही है कि आप भड़कें और कुछ ऐसा कदम उठाएँ कि लोग समझें कि ज़रूर इसने कुछ गलत किया होगा, तभी तो एक अदने-से व्यक्ति द्वारा किए गए अपमान को सह नहीं पा रहा है। इसलिए यदि आप सही हैं तो सामने वाले की कोशिश को नज़र अंदाज़ कर उसे क्षमा कर दें। यानी कह सकते हैं कि यदि छोटा करे अपमान तो उसे सहने में ही है आपकी शान। कहा भी गया है कि।
          क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
          का विष्णु को घटि गयो, जो भृगु ने मारी लात।।
सही तो है। विष्णु का क्या घटा। कुछ नहीं। उल्टे उनके प्रति श्रद्धा और बढ़ गई। आपके ऐसा करने से सामने वाला अपने दुस्साहस पर शर्मिंदा होकर आपके प्रति अच्छी भावना रखने लगेगा, साथ ही दूसरे लोगों की नज़रों में भी आपका सम्मान बढ़ जाएगा।
     इसलिए जितना हो सके क्रोध से बचो। लेकिन जहाँ ज़रूरत हो, वहाँ क्रोध करो भी। यहाँ सीखने वाली बात यही है कि आप केवल क्रोध का दिखावा करें, आपको वास्तव में क्रोध आए नहीं। यह बात हम पहले भी कह चुके हैं लेकिन फिर से दोहरा रहे हैं। क्योंकि क्रोध का कुछ पता नहीं कि कब अपने आगोश में लेकर आपके बने-बनाए काम को बिगाड़ दे। वैसे भी नाराज होना बहुत आसान काम है। कोई भी नाराज हो सकता है। इसमें कोई राज़ की बात भी नहीं है। लेकिन सही व्यक्ति से, सही समय पर, सही काम के लिए सही ढंग से और सही मात्रा में नाराज़ होना आसान नहीं। यदि आपने यह करना सीख लिया, फिर तो आप अपनी दुनियाँ पर आसानी से राज कर सकते हैं।

Thursday, February 25, 2016

बनिये का बेटा गिरे तो कुछ लेकर ही उठे!


एक बनिया अपने बेटे के साथ बाज़ार गया। बाज़ार से सामान खरीदकर वह लौट रहा था कि उसकी नज़र मिठाई की दुकान पर पड़ी। कड़ाही में ताजे-ताजे गुलाब जामुन देखकर उसके मुँह में पानी आ गया। मिठाई की दुकान से उसने एक मटकी में गुलाब जामुन बँधवा लिए और मटकी लड़के को पकड़ा दी। लड़के के पास और भी सामान था। वह उस सामान के साथ मटकी को भी उठाकर चल दिया। बाज़ार में बहुत भीड़ थी, इसलिए दोनों बाप-बेटे संभलते-संभलाते और बचते-बचाते बाज़ार से बाहर निकल आए। अब वे बेफिक्र होकर चलने लगे। अचानक लड़के को ठोकर लगी और वह गिर पड़ा। उसकी मटकी फूट गई। गुलाब जामुन दूर-दूर तक बिखर गए। रास्ते से गुजरते लोग उसे उठाने के लिए दौड़े। बनिये ने उन्हें रोकते हुए कहा-आप लोग रहने दीजिए, वह अपने आप ही उठ खड़ा होगा। उसकी बात सनकर सभी हैरान रह गए, क्योंकि न तो वह खुद बेटे को उठा रहा था और न ही किसी को उसकी सहायता करने दे रहा था। साथ ही उसके चेहरे को देखकर लगता ही नहीं था कि उसे अपने सामान के बरबाद होने का ज़रा-सा भी दुःख है।
     तभी उसका बेटा उठा। उसने अपने कपड़े झाड़े और मुस्कराकर अपने पिता की ओर देखा। सभी लोग आश्चर्य से उन दोनों को देख रहे थे। इस बीच लड़के ने हाथ आगे बढ़ा दिया और अपने हाथ की मुट्ठी खोलकर पिता के सामने कर दी। मुट्ठी में एक अशरफी थी। उसे देखकर बनिये ने लड़के को सीने से लगा लिया और बोला-शाबास मेरे लाल, मैं जानता था कि बनिये का बेटा गिरा है तो कुछ लेकर ही उठेगा। ऐसे-वैसे तो वह उठ ही नहीं सकता। तूने मेरे विश्वास की लाज रख ली। मुझे तुझ पर गर्व है बेटा। असल में हुआ यह था कि चलते-चलते लड़के को रास्ते में एक अशरफी पड़ी दिखाई दी थी। उसने यह सोचकर कि किसी दूसरे की नज़र उस पर न पड़ जाए, उसे उठाने के लिए जल्दी करने के चक्कर में उसे ठोकर लगी और वह गिर पड़ा।
     दोस्तो, इसी को कहते हैं सकारात्मक नज़रिया। इस नज़रिये से नुकसान में भी कोई न कोई फायदा दिखाई देता है। यदि आप भी ऐसा ही नज़रिया रखते हैं तो उस नुकसान से कोई न कोई फायदा उठा ही लेंगे। यह मानी हुई बात है। इसलिए हम सभी को हर स्थिति में यह सोचना चाहिए कि जो हो रहा है, अच्छे के लिए ही हो रहा है। शायद इसमें भी कोई भला छुपा है। और भला छुपा भी होता है, बस देखने-समझने का फर्क होता है। वैसे भी कहते हैं कि वह व्यक्ति ज्यादा श्रेष्ठ है जो गिरकर उठता है। क्योंकि गिरकर वही व्यक्ति उठ सकता है जिसने कि गिरने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी, जो घबराया नहीं, जो गिरा ज़रूर लेकिन उसका आत्मविश्वास नहीं डिगा। उसने गिरने को सीखने की प्रक्रिया का, अनुभव प्राप्ति का एक अवसर माना और उससे सबक सीखा। कहते हैं न कि हर ठोकर एक सबक सिखाती है। जो ठोकर खाकर सीख लेते हैं, वे गिरकर भी उठ जाते हैं। क्योंंकि उनके हाथ में अनुभव रूपी, सबक रूपी एक अशरफी जो लग जाती है। उस अशरफी के सहारे ही वे जीवन के अगले कदम आगे बढ़ाते हैं।
     जो लोग गिरने के बाद अफसोस मनाने बैठ जाते हैं यानी विपरीत परिस्थितियोंं से घबराकर आत्मविश्वास खो देते हैं, वे जब अपनी मुट्ठी खोलते हैं तो उसमें अशरफी की बजाय पत्थर का टुकड़ा निकलता है अर्थात उन्हें निराशा और तनावों का सामना करना पड़ता है। इसलिए बेहतर यही है कि हर स्थिति में अपने नज़रिये को सकारात्मक बनाकर रखें। इससे आप गिर-गिरकर भी उठते रहेंगे और एक दिन गिरि के शिखर पर यानी सफलता की चोटी पर पहुँच जाएँगे।

Wednesday, February 24, 2016

निज भाषा में ही छिपा है उन्नति का मंत्र


     एक बार अकबर के दरबार में एक अजनबी आया जो कि कई भाषाओं का ज्ञाता था। वह बोला," जहाँपनाह, मैं आपके दरबारियों को चुनौती देता हूँ कि वे बताएँ कि मैं किस जगह से आया हूँ और मेरी मातृभाषा क्या है?' तभी मैं मानूँगा कि यह दरबार वाकई विद्वानों से भरा है।' अकबर ने चुनौती स्वीकार कर ली और दरबार में मौजूद अलग-अलग भाषाओं के विद्वान उसकी मातृभाषा का पता लगाने की कोशिश करने लगे। लेकिन वे सभी असफल रहे क्योंकि उस अजनबी की सभी भाषाओं पर गहरी पकड़ थी। दरबार का उपहास न उड़े इसके लिए अकबर ने बीरबल को बुलाकर कहा- "बीरबल, अब इस समस्या का तुम ही हल खोजो।' बीरबल बोले- "हुज़ूर, आप मुझे कुछ दिन का समय दें। मैं जल्द ही इस बात का पता लगा लूँगा।' इसके बाद बीरबल अपने काम में जुट गए। काफी सोच विचार कर एक दिन, रात को वे अपने नौकर के साथ दबे पाँव अजनबी के कक्ष तक पहुंचे। उस समय वह सोया हुआ था। बीरबल ने अपने नौकर से उसके मुँह पर एक लोटा पानी डालने को कहा। नौकर ने वैसा ही किया और उसके ऊपर पानी डालकर छिप गया। इस पर वह हड़बड़ाकर उठ बैठा और बड़बड़ाने लगा। जब उसे आसपास कोई नहीं दिखा तो मुँह पोंछकर दोबारा सो गया।
     अगले दिन दरबार में बीरबल बोले-"हुज़ूर! यह अजनबी गुजरात से आया है और इसकी मातृभाषा गुजराती है।' अकबर बोले," क्यों अजनबी, क्या बीरबल सही कह रहे हैं?' अजनबी ने कहा-बिल्कुल सही कहा बीरबल ने, हुज़ूर! लेकिन मैं जानना चाहूंगा कि बीरबल को यह बात पता कैसे चली, जबकि उन्होने मुझसे तो बात तक नहीं की।' इस पर बीरबल ने सभी को रात की घटना के बारे में बताया और बोले- "परेशानी, गुस्से, और हैरानी की स्थिति में व्यक्ति अपनी मातृभाषा का ही इस्तेमाल करता है। मुँह पर पानी पड़ने के बाद ये गुस्से में गुजराती में बड़बड़ा रहे थे।'
    दोस्तो, सही पकड़ा बीरबल ने। कुछ बातें, कुछ भाव ऐसे होते हैं, जिन्हें आप अपनी ही भाषा में अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं। फिर भले ही आपको कितनी ही भाषाएँ क्यों न आती हों। यानी कुछ विचार या भावनाएँ जितने अच्छे व प्रभावी तरीके से मातृभाषा में रखे जा सकते हैं, अभिव्यक्त किए जा सकते हैं, उतने किसी और भाषा में नहीं। इसका कारण यह है कि मातृभाषा का सीधे संबंध आपके दिल से होता है। और आप अपने दिल की बात किसी दूसरी भाषा में व्यक्त करेंगे तो वह उतनी प्रभावी होगी ही नहीं कि सामने वाले के दिल को छू जाए। इसीलिए मातृभाषा को लोगों को आपस में जोड़ने के लिए सबसे बड़ा माध्मय माना गया है। क्योंकि यह लोगों के बीच की दूरियाँ कम कर उन्हें निकट लाती है। इसकी वजह से लोग भावनात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं।
     एक जमाना था जब लोग अँगरेज़ी में बात करने वालों को अधिक तवज्जो देते थे, लेकिन संचार क्रांति के इस युग में धीरे-धीरे लोगों का सोच बदल रहा है। अब यह बात समझ में आने लगी है कि अधिकतर लोगों तक बात उनकी ही भाषा में पहुँचाई जा सकती है। यह कारण है कि आज हर जानकारी हिन्दी और स्थानीय भाषाओं में भी उपलब्ध कराई जा रही है।  मोबाइल पर एसएमएस करना हो या कम्प्यूटर पर ई-मेल या चैट, हर जगह मातृभाषा का ही बोलबाला है। यह सब इस बात का प्रतीक है कि हमारा देश भाषा के क्षेत्र में भी दुनियाँ में अपनी अलग पहचान बनाता जा रहा है। हर साल एन्साइक्लोपीडिया ब्रिाटेनिका में शामिल होते हिन्दी के कई शब्द इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं।
     इस सबके बाद भी हिन्दी माध्यमों में पढ़े हुए अधिकतर लोग आज भी अपने मन में हिन्दी को लेकर ग्रंथि पालकर रखते हैं कि बिना अँगरेज़ी सीखे वे कुछ नहीं कर पाएँगे, आगे नहीं बढ़ पाएँगे। ऐसे लोगों से आज हम कहना चाहेंगे कि वे आज से ही अपनी ऐसी सोच बदल दें। क्योंकि आपकी प्रगति में भाषा कभी आड़े आ ही नहीं सकती। आप तो बस पूरे आत्मविश्वास से लक्ष्य प्राप्ति में जुट जाएँ। आप देखेंगे कि आपकी हिन्दी ने ही आपके माथे पर सफलता की बिन्दी या तिलक लगवा दी है। यानी कुल मिलाकर कह सकते हैं निजभाषा में ही उन्नति का मंत्र छिपा होता है।

Tuesday, February 23, 2016

खुद ही खुद खाने वाले खाते है खुद को


     एक बार एक राज्य में भयंकर सूखा पड़ा। वहाँ रहने वाले पक्षियों के सामने भूखों मरनें की नौबत आ गई। चिड़ियाओं के एक दल के राजा ने सभा बुलाई और निर्णय हुआ कि सभी मिलकर भोजन की तलाश में किसी और राज्य में जाएँगे। दूसरे राज्य में पहुँच कर राजा बोला-सभी साथी अलग-अलग दिशाओं में जाकर भोजन की तलाश करें और शाम को यहीं आकर बताएँ। सभी पक्षी उड़ गए। उनमें से एक चिड़िया उड़कर राजमार्ग पर पहुँची, जहाँ से गुजरकर अनाज से लदी गाड़ियाँ महल में जाती थीं। उसने देखा कि सड़क पर बहुत से अनाज के दाने बिखरे पड़े हैं। उसे देखकर उसका मन खुशी से झूम उठा। उसके मन में तुरंत विचार आया कि ऐसी विकट स्थिति में वह किसी को इस बारे में नहीं बताएगी और रोज चुपके से आकर भरपेट दाने चुगेगी। तभी उसके मन में भय उत्पन्न हुआ कि यदि दल के किसी सदस्य ने उसे यहाँ देख लिया तो खैर नहीं। इस पर उसे एक उपाय सूझा। उसने निÏश्चत होकर भरपेट दाने चुगे। शाम को जब वह लौटी तो उसके साथियों ने पूछा-बहुत देर लगा दी तूने। क्या कुछ मिला? वह बोली-हाँ, मिला तो। यहाँ के राजमार्ग पर ढेर सारे दाने बिखरे पड़े रहते हैं। लेकिन वहाँ से गुजरने वाली  गाड़ियों से जान का खतरा बना रहता है। मैने दानों तक पहुँचने की कोशिश की और मुश्किल में पड़ गई। जैसे तैसे जान बचाकर आई हूँ। इसलिए उस ओर न जाना ही बेहतर होगा।
     उसकी बात सुनकर सभी ने उस ओर न जाने का फैसला किया। वह चिड़िया प्रतिदिन अकेली वहाँ पहुँच जाती और मजे से दाने चुगती। एक दिन वह दाने चुग रही थी, तभी बैलगाड़ी के आने की आवाज सुनाई दी। उसने सोचा कि अभी गाड़ी को आने में समय लगेगा, तब तक और खाया जाए। लेकिन वह गाड़ी तेज गति से आ रही थी। इसके पहले कि वह सँभलती, गाड़ी उसे कुचलते हुए निकल गई। उधर रात होने पर जब वह नहीं लौटी तो सबको चिंता हुई। राजा के आदेश पर उसकी खोज शुरू हुई और पता चलने पर राजा को सूचित किया गया। राजा तुरंत घटनास्थल पर पहुँचा। उसे देखते ही वह समझ गया कि उसका स्वार्थ उसे ले डूबा।
     दोस्तों, इसे कहते हैं आप ही आप खाने की प्रवृत्ति का नतीजा। इस प्रवृत्ति के लोग कोई भी चीज दूसरों के साथ बाँटना नहीं चाहते। भले ही वह इनकी जरूरतों से इतनी ज्यादा क्यों न हो कि वे दूसरों के साथ बाँटे तो भी कम न पड़े। फिर भी मजाल है कि उसकी भनक भी किसी को लग जाए। इस प्रवृत्ति के लोगों को यह अहसास ही नहीं होता कि ऐसा करके वे किसी और का नहीं, खुद का ही नुकसान करते हैं। क्योंकि यह खुद खाने की आदत धीरे-धीरे इनको खुद को खाने लगती है। यानी जब वे लोगों को ऐसे व्यक्ति की सच्चाई के बारे में पता चलता है तो वे उससे दूरी बना लेते हैं। ऐसे में जब उस पर मुसीबत आती है तो कोई उसकी सहायता करना तो दूर, उससे हमदर्दी भी नहीं दिखाता। इस तरह छोटे मोटे तात्कालिक लाभ के लोभ में वह आगे के बड़े लाभ से अपने को वंचित कर लेता है। आज के प्रतियोगी दौर में, जब हर व्यक्ति में एक दूसरे से आगे चलने की होड़ मची है, ऐसे में यह प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ती जा रहीं है। विपनन से जुड़े लोग इस मामले में सबसे आगे रहते हैं। उन्हे तो बस अपने-अपने टारगेट पूरे करने होते हैं। उन्हें टीम के टारगेट से कोई मतलब नहीं होता। उन्हें लगता है यदि वे अपना टारगेट पूरा कर लेंगे तो दूसरों से आगे बढ़ जाएँगे। निश्चित ही ऐसी सोच टीम भावना के विरूद्ध है।
      यदि आप भी किसी टीम के सदस्य हैं और उस चिड़िया की प्रवृत्ति के हैं तो हो सकता है कि एक दो बार कोई बड़ी सफलता आपके हाथ लग जाए, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होगा। ज्यादातर तो आपको अपने साथियों की सहायता की जरूरत पड़ेगी ही। ऐसे में यदि आप उनकी सहायता नहीं करेंगे तो जरूरत पड़ने पर वे भी आपके काम क्यों आएँगे? तब वही होगा जो उस चिड़िया के साथ हुआ। आपको पता भी नहीं चलेगा कि कब गाड़ी ऊपर से निकल जाएगी यानी आप अपने टारगेट पूरे न करने के कारण संस्था से बाहर हो जाएँगे। इससे बेहतर यही है कि मिल-जुलकर रहें और हिल-मिलकर काम करें। ऐसे में यदि कोई गाड़ी आपकी ओर बढ़ रही होगी तो आपका साथी आपको चेता देगा और आप बच जाएँगे ।

Sunday, February 21, 2016

जीवन जीने का ढंग


     एक बार प्रसिद्ध दार्शिनक सुकरात घूमते हुए एक नगर में पहुँचे। नगर के सभी गणमान्य नागरिकों से उनकी मुलाकात हुई। इन्हीं में से एक हँसमुख प्रवृत्ति के एक वृद्ध सज्जन के साथ उनकी घनिष्टता बढ़ गई। सुकरात ने उनसे हर तरह की बातें कीं। उन सज्जन ने भी सुकरात द्वारा पूछे गए हर प्रश्न का खुलकर जवाब दिया। सुकरात उनसे बोले-श्रीमान्! आपने अपना पिछला जीवन तो बहुत ही अच्छी तरह व्यतीत किया। जीवन की हर कठिनाई का सामना आपने बहुत ही समझदारी से किया। आपने जीवन उसी तरह जिया, जिस तरह एक इंसान को जीना चाहिए। लेकिन अब आप वृद्ध हो चुके हैं। इस अवस्था की परेशानियों का सामना आप किस तरह करते हैं।
     इस पर वृद्ध मुस्कराकर बोला-परेशानी किस बात की। अब तो मैं निÏश्चत होकर पहले से अधिक सुखी हूँ। क्योंकि मैने अपना सारा व्यवसाय अपने योग्य बच्चों को सौंप दिया है। वे उसे कैसे चला रहे हैं, इस बात की भी चिंता मुझे नहीं है। जब वे मुझसे किसी विषय पर सलाह लेने आते हैं तो मैं अपने अनुभवों के आधार पर उन्हें सलाह दे देता हूँ। यदि वे कोई भूल करने जा रहे हों तो मैं उसके दुष्परिणामों के बारे में चेता देता हूँ। अब वे मेरी सलाह पर अमल करते हैं या नहीं करते, यह सोचकर अपना दिमाग खराब करना मेरा काम नहीं। मानें तो ठीक, नहीं मानें तो और भी ठीक। क्योंकि ठोकर खाएँगे तो कुछ सीखेंगे ही। मैं तो उन्हें सलाह भी दे देता हूँ, जबकि मुझे तो सलाह देने वाला भी कोई नहीं था। मैने भी ठोकरें खा-खाकर ही सीखा था। इस तरह मैं उनके किसी भी काम में बाधा नहीं बनता। मुझे विश्वास है, वे जो करेंगे सोच-समझकर करेंगे। यदि वे ठोकर खाकर मेरे पास आते हैं तो मैं कभी यह नहीं कहता कि देखा, बुज़ुर्गों की बात न मानने का परिणाम। क्योंकि इसका अहसास तो उन्हें खुद ही होगा। मैं उन्हें एक और नेक सलाह देकर बिदा कर देता हूँ।
     सुकरात बोले-लेकिन आपको अपने बच्चों से कुछ तो अपेक्षाएँ होंगी ही। वृद्ध बोला- नहीं मैं उनसे किसी बात की अपेक्षा नहीं रखता। वे जैसा कहते हैं, कर देता हूँ। जैसा खिलाते हैं, खा लेता हूँ। जैसा पहनातें हैं, पहन लेता हूँ। व्यस्तताओं की वजह से यदि उनके पास मेरे लिए समय नहीं रहता तो भी मैं इसकी फिक्र नहीं करता। मैं उनकी मज़बूरी समझ सकता हूँ। आखिर मैं भी उनकी उम्र से गुज़र चुका हूँ। और वही सब कर चुका हूँ, जो वे आज कर रहे हैं। तब बुरा क्यों मानना? वैसे भी रोक-टोककर मैं अपना बुढ़ापा नहीं बिगाड़ना चाहता। मैं पोते-पोतियों के साथ खेलकर अपना मन बहला लेता हूँ। खैर, छोड़ो, आप तो मुझे सिखाएँ कि इस आयु में मैं और बेहतर तरीके से कैसे जी सकता हूँ।
     दोस्तों, जानते हैं सुकरात ने उन्हें क्या जवाब दिया होगा। सुकरात ने उन्हें कहा कि मैं आपको क्या बताऊँगा कि इस आयु में जीवन कैसे जिया जाए। वह तो आप अच्छी तरह जान-समझकर जी ही रहे हैं। बल्कि आज तो आपने मुझे भी वृद्धावस्था में सुखपूर्वक जीने का राज़ बता दिया है। वाकई यह सही बात भी है। हमें भी उन सज्जन से वृद्धावस्था में सुख से जीने का यह राज़ सीखना चाहिए। आपको हमेशा निÏश्चत होकर उत्साह और उमंग से जीवन जीना चाहिए। इससे उम्र बढ़ने व बाल पकने के बावजूद आप युवा बने रह सकते हैं। लेकिन समस्या यह है कि उम्र बढ़ने के साथ हमारे समाज में व्यक्ति का सोच भी बदलता जाता है। हम किसी अच्छी व उचित बात को सीखना ही नहीं चाहते। हमें लगता है कि हम तो दुनियाँ देख चुके हैं। अब हमें कोई क्या सिखाएगा। लेकिन यह गलत है। कहा गया है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। इसलिए हम उम्र के किसी भी पड़ाव में हों, हमें अच्छी बातें सीखकर अपनाते रहना चाहिए। वरना हमारी प्रगति रुक जाएगी। और जब प्रगति या वृद्धि रुक जाती है, तभी आदमी वृद्ध हो जाता है। इसलिए आपके मस्तक पर चाहे कितनी भी  झुर्रियाँ पड़ जाएँ, उनकी चिंता न करें। चिंता तो तब होनी चाहिए, जब मस्तिष्क में झुर्रियाँ पड़ने लगें। यानी विचार पुराने होंने लगें। क्योंकि हम नए दौर के नए विचारों को अपनाने के लिए तैयार नहीं होते। अतः कभी मत सोचो कि आप बूढ़े हो गए। बूढ़ा शरीर हुआ है, आप नहीं। अभी तो आपकी उम्र खेलने की है। आश्चर्य न करें। कहते हैं हर उम्र के अपने-अपने खिलौने होते हैं। वृद्धावस्था के खिलौने होते हैं आपके पोते-पोतियाँ। उनके साथ खूब हँसो, खेलो और मौज करो। वैसे यह बात हर दादा-दादी या नाना-नानी अच्छी तरह समझते हैं। हम तो सिर्फ याद दिला रहे हैं।
     अंत में, यहाँ हम बच्चों से भी कहना चाहेंगे कि वे अपने माता-पिता या पालकों की भावनाओं को समझना सीखें। वरना ऐसा न हो कि आपको भी वही सब भुगतना पड़े, जो आप अपने पालकों के साथ कर रहे हैं। क्योंकि हमारी वृद्धावस्था कैसी होगी, यह हमारी जवानी तय करती है। यानी जैसा हम जवानी में करते हैं, वैसा बुढ़ापे में भोगते हैं। इसलिए माँ-बाप की भावनाओं व विचारों को "जनरेशन गेप' का नाम देकर आप मुक्त नहीं हो सकते। इस गेप को यदि नहीं पाटोगे तो दोनों ही तनाव में रहोगे। और तनाव में तो आप नहीं रहना चाहेंगे। इसलिए बेहतर यही है दोनों एक-दूसरे को समझो और निÏश्चत होकर सुख पूर्वक आगे बढ़ो।

Saturday, February 20, 2016

नहीं की गलती तो जुबान क्यों नहीं खुलती


     द्वारिका में रहने वाला सत्राजित सूर्यदेव का उपासक था। उसकी उपासना से प्रसन्न होकर सूर्य एक दिन उसके सामने प्रकट हुए और अपने गले से उतारकर उसे स्यमन्तक मणि दे दी। उस मणि की विशेषता यह थी कि उसके प्रकाश से उसको धारण करने वाले का चेहरा सूर्य की तरह दमकने लगता था। साथ ही वह मणि प्रतिदिन आठ भार या लगभग सौ सेर स्वर्ण मोहरें धारणकर्ता को देती थी। मणि की दुर्लभता को देखते हुए एक दिन कृष्ण सत्राजित के पास गए और उससे मणि राजा उग्रसेन को सौपने का आग्रह किया ताकी वह सुरक्षित रहें।
     सत्राजित ने कृष्ण को मणि देने से मना कर दिया। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेनजित मणि को पहनकर शिकार के लिए गया और खुद शेर का शिकार बन गया। चमकती मणि को देखकर शेर उसे उठाकर चल दिया। तभी रीछों के राजा जाम्बवान की नज़र उस पर पड़ी। उसने शेर को मारा और मणि ले जाकर अपने बेटे को दी। उधर सत्राजित को लगा कि निश्चित ही कृष्ण ने मणि प्राप्त करने के लिए मेरे भाई की हत्या कर दी होगी। उसने यह बात द्वारिका में फैला दी। अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए कृष्ण नगरवासियों को साथ लेकर मणि की तलाश करने जंगल में गए।
     जंगल में उन्हें प्रसेनजित का शव मिला। उसके पास बने शेर के पदचिन्हों के सहारे वे शेर के शव तक और अंतत: जाम्बवान की गुफा तक पहुँच गए। गुफा में जाम्बवान का पुत्र उस मणि से खेल रहा था। कृष्ण ने उससे वह मणि मांगी तो वह डरकर रोनेे लगा। उसकी आवाज सुनकर जाम्बमान वहा पहुँचा और कृष्ण को शत्रु समझकर उस पर हमला कर दिया। दोनो में युध्द छिड़ गया।
     इक्कीस दिन तक युद्ध करने के बाद भी जब वह कृष्ण को पराजित न कर सका तो उसने हार मान ली और मणि उन्हें सौंप दी। बाद में कृष्ण ने द्वारिका लौटकर सत्राजित को बुलाकर भरे दरबार में मणि उसे सौंप दी। इससे वह अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ और पश्चाताप के रूप में अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह कृष्ण के साथ कर दिया।
     दोस्तों, कई बार जीवन में ऐसा होता है कि आप बिना कुछ किए ही कलंक के भागी बन जाते हैं। जो गलती, जुर्म या अपराध आपने नहीं किया है, लोग उसके लिए आपकी तरफ उँगली उठाते हैं। ऐसे में आप अपने पक्ष में कोेई बात कहते हैं या सफाई देते हैं तो लोग उस पर विश्वास नहीं करते। तब आपको धैर्य से काम लेकर अपनी बेगुनाही साबित करने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि यदि आप कोशिश नहीं करेंगे तो जो लाँछन आपके ऊपर लगा है, लोग उस पर विश्वास करने लगेंगे और आपको माफ नहीं करेंगे। इसलिए ज़रूरी है कि जो कीचड़ आपकी ओर उछाला गया है, उसे आप खुद धोकर साफ करें। आप चुप होकर बैठ जाएँगे तो यह आत्महत्या होगी। ऐसे में श्रीकृष्ण जी ने जो तरीका अपनाया, वह सही है। क्योंकि कई बार लोग यह सोचकर चुप हो जाते हैं कि समय के साथ लोग सब कुछ भुला देंगे तो यह गलत है। लोग अच्छी बातें भूलते हैं, बुरी नहीं। वैसे भी ऐसा रूख तो वे अपनाते हैं, जो गलत होते हैं। जब आपने कुछ गलत किया ही नहीं है, आपका कोई गुनाह ही नहीं है, तो चुप्पी कैसी? परिस्थिति का सामना कर अपने-आपको निर्दोष साबित करने का प्रयत्न करें। जीत सत्य की ही होती हैं। जब लोगों को सत्य का पता चलता है तो वे अपने किए पर पछताते हैं। ऐसे में आपको उनके साथ शत्रु जैसा नहीं, मित्र जैसा व्यवहार करने चाहिए। क्योंकि कई बार ऐसी स्थितियाँ बनती हैं कि आदमी न चाहकर भी यह मानने लगता है कि आपसे कोई गलती हुई। ऐसी गलतफहमी होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि आपको लेकर कोई गलतफहमी है तो उसे दूर करने की जिम्मेदारी आपकी ही है, किसी औरों की नहीं। क्योंकि आपके सिवाय कोई और नहीं जानता कि आप गलत हैं या सही। लोग तो सुनी-सुनाई बातों पर यकीन करते हैं। उनके यकीन को आपको तोड़ना होगा।

Thursday, February 18, 2016

सच्चाई एवं सद् गुणों की ताकत

एक गाँव में संतोषी प्रवृत्ति का एक ब्रााहृण रहता था। जो कुछ उसे मिलता उसी से खुशी-खुशी वह अपना जीवन-यापन कर लेता था। एक बार उसे किसी यजमान ने दो दुबले-पतले बछड़े दान में दिए। उसकी देखरेख से जल्दी ही वे बछड़े ह्मष्ट-पुष्ट हो गए। एक दिन एक चोर की दृष्टि उन बछड़ों पर पड़ गई। उसने दोनों बछड़ों को चुराने की योजना बनाई। रात को पूरी तैयारी के साथ वह दबे पाँव ब्रााहृण के घर की ओर बढ़ने लगा। तभी अचानक उसका सामना एक पिशाच से हो गया। पिशाच को देखते ही चोर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। हिम्मत जुटाकर चोर बोला-तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो? पिशाच ने कहा, मैं पिशाच हूँ और अपनी भूख मिटाने गाँव में आया हूँ। तुम पर नज़र पड़ी तो सोचा तुम्हीं को खा लूँ। यह सुनते ही चोर के होश उड़ गए। अचानक उसे एक उपाय सूझा। वो बोला-मुझे खाने में तुम्हें मज़ा नहीं आएगा क्योंकि में एक चोर हूँ। पिशाच ने कहा, तो तुम बताओ मैं किसे खाऊँ? चोर ने कहा, मैं एक भले ब्रााहृण के यहाँ चोरी करने जा रहा हूँ। तुम उसे खाओगे तो मज़ा आएगा। इस पर पिशाच तैयार हो गया और दोनों ब्रााहृण के घर पहुँचे। उस समय वह सो रहा था। उसे देखते ही पिशाच के मुँह में पानी आ गया। वो ब्रााहृण की ओर लपका तो चोर उसे रोकते हुए बोला-पहले मुझे अपना काम करने दो वरना ये जाग गया तो मैं बछड़े नहीं चुरा पाऊंगा। पिशाच ने कहा, लेकिन यदि चोरी करते समय बछड़े रंभाने लगे, तब भी तो यह जाग सकता है। इसलिए पहले मैं अपना काम करूँगा। इस तरह दोनों पहले मैं, पहले मैं कहकर झगड़ने लगे। इतने में ब्रााहृण की आँख खुल गई। वो तुरंत बोला-कौन हो तुम? इस पर दोनों हड़बड़ाकर एक-दूसरे की चुगली करने लगे। दोनों के आने का उद्देश्य जानते ही ब्रााहृण ने पहले तो बजरंगबली को याद किया। इससे पिशाच वहाँ से गायब हो गया इसके बाद वह सिरहाने रखी लाठी को लेकर चोर पर लपका। लेकिन वह उस पर वार करता इसके पहले ही चोर वहाँ से रफू-चक्र हो गया।
     दोस्तो, कहते हैं यदि आपके पास सच्चाई की ताकत है, सद्गुणों और संस्कारों की शक्ति है तो आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। फिर तो आपका बुरा चाहने वाले आपके विरोधी भी एक हो जाएँ तो भी घबराने की ज़रूरत नहीं। क्योंकि आपको नुकसान पहुँचाने से पहले ही उनमें फूट पड़ जाएगी और वे एक-दूसरे को ही निपटाने में लग जाएँगे। इसका कारण यह है कि इस तरह से होने वाले गठबंधनों की बुनियाद मज़बूत नहीं होती। वे आपके विरुद्ध किसी गलत उद्देश्य को लेकर एक हुए होते हैं जिनमें कि उनके अपने-अपने स्वार्थ जुड़े होते हैं। ऐसे में ये ऊपरी तौर पर तब तक एक दिखाई देते हैं जब तक कि इन्हें अपना काम बनता नहीं दिखता। लेकिन जैसे ही इन्हें काम बनने के आसार नज़र आते हैं तो ये खुद ही पहले फायदा उठाने की जुगत में लग जाते हैं। इससे इनकी दोस्ती की कलई खुल जाती है। असलियत खुलते ही ये जिसके विरूद्ध एक हुए थे उसे भूलकर आपस में ही भिड़ जाते हैं।
     लेकिन ऐसा तभी होता है जब गठबंधन किसी गलत उद्देश्य के लिए हो। इसके विपरीत यदि ऐसा गठबंधन किसी अच्छे उद्देश्य के लिए बनता है तब वह इतना मज़बूत होता है कि बड़े से बड़े तूफान भी उसे हिला नहीं पाते। तब ये मिलकर बड़ी से बड़ी ताकत को भी धूल चटा देते हैं। व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता के इस जमाने में इस तरह के गठबंधन आम बात है। क्योंकि इसके पीछे एक ही भावना काम करती है और वह है कि "दुश्मन का दुश्मन यानी हमारा दोस्त'। राजनीति के क्षेत्र में तो इसी फार्मूले के तहत कई गठबंधन बनते बिगड़ते रहते हैं।
     कहा भी गया है कि किसी बड़ी मछली का सामना करने के लिए छोटी मछलियों को तो एक होना ही पड़ता है। अपने बल पर वे यदि बड़ी मछली का मुकाबला करेंगी तो खुद का अस्तित्व ही मिटा देंगी।

Wednesday, February 17, 2016

मानोगे हरि इच्छा तो पूरी होगी हर इच्छा


     एक राजा का प्रधानमंत्री भद्रजित बहुत ही चरित्रवान व्यक्ति था। वह ऐसा कोई काम न तो खुद करता था और न ही किसी को करने देता था, जो नीतिसम्मत न हो। एक बार राजा ने उसे ऐसा कार्य करने को कहा, जो कि नीतिविरूद्ध था। भद्रजित ने राजा को समझाते हुए वह कार्य करने से मना कर दिया। जब राजा ने ज्यादा जोर डाला तो भद्रजित बोला-"राजन! मेरे रहते तो यह कार्य असंभव है।' इस बात से राजा के अहंकार को चोट पहुँची। उसने भद्रजित को सबक सिखाने का फैसला किया और बोला- "हम तुम्हें प्रधानमंत्री पद से हटाते हैं। अब तुम्हें अपनी हैसियत का पता चलेगा। और यह भी जानोगे कि हमारे आदेश की अवहेलना का नतीजा क्या होता है?'
     भद्रजित ने राजा की बात को बड़ी ही शांति से सुना और शालीनता के साथ उन्हें प्रणाम करते हुए बोला- "हरि इच्छा।' ऐसा कहकर वह दरबार से बाहर निकलने लगा तो राजा उसे टोकते हुए बोला- "यह हरि की नहीं, हमारी इच्छा है। हमने तुम्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए दरबार से निकाला है।' इस पर भी भद्रजित विनम्रता का प्रदर्शन करता हुआ दरबार के बाहर चला गया। इसके बाद उसने अपने गाँव जाकर अपना जीवन लोगों की सेवा में लगा दिया। उसने शास्त्रों का अध्ययन किया और लोगों को सही राह दिखाने के लिए प्रवचन देना शुरू कर दिया। जल्दी ही दूर-दूर से लोग उससे सलाह-मशविरा करने के लिए आने लगे।
     इधर राजा को एक दिन उसकी याद आई। उसने सोचा कि अब तक तो भद्रजित की हालत दयनीय हो चुकी होगी। चलकर देखा जाए। राजा भेष बदलकर उसके गाँव पहुँचा। वहाँ भद्रजित के चारों ओर लोगों का हुजूम देखकर वह हैरान रह गया तभी भद्रजित की नज़र उस पर पड़ी। वह राजा को पहचान गया और उसने खड़े होकर उसका अभिवादन किया। वह बोला- "राजन, यह सब आपकी ही कृपा से संभव हुआ। यदि आप मुझे पद से नहीं हटाते तो शायद मैं यह सब कभी नहीं कर पाता। इतना अच्छा अवसर देने के लिए मैं आपका ह्मदय से आभारी हूँ।'
     दोस्तो, इसे कहते हैं तकदीर का खेल। अपनी शक्तियों के घमंड में चूर उस राजा को यह गलतफहमी हो गई थी कि किसी का भी भविष्य बनाना या बिगाड़ना उसके हाथ में है। और बाद में उसकी गलतफहमी दूर हुई। इसलिए कहते हैं कि किसी व्यक्ति को कभी यह मुगालता नहीं पालना चाहिए कि उसके मातहत काम कर रहे लोगों का भविष्य उसके हाथ में है। वह चाहे जिसका भविष्य बना सकता है और चाहे जिसका बिगाड़ सकता है। ऐसा न कभी हुआ है और न कभी होगा। बनाना-बिगाड़ना तो ऊपर वाले के हाथ में है। वैसे भी आदमी के साथ वही घटता है जो उसकी किस्मत में होता है। यानी सारा खेल भाग्य का है। आप तो सिर्फ निमित्त मात्र हैं और उस भाग्य के खेल के केवल एक पात्र भर होते हैं।
     इसलिए यदि आप किसी सच्चे व्यक्ति को, जिससे आपकी नहीं पटती, यह सोचकर नौकरी से निकालते हैं कि घर बैठेगा तो आटे-दाल का भाव समझ में आएगा तो यह आपकी भूल है। आप भले ही उसके लिए दरवाज़ा बंद कर दें, लेकिन उसके अच्छे कर्म, अच्छे विचार और उसका भाग्य उसके लिए बहुत-से नए दरवाज़े खोल देंगे। इसलिए कभी किसी सच्चे आदमी को न सताएँ, क्योंकि इसके परिणाम उसे नहीं, आपको भुगतने पड़ सकते हैं।
     दूसरी ओर, यदि आपने कभी कोई गलत काम नहीं किया है और अपना काम हमेशा ईमानदारी से करते हैं, लेकिन इसके बाद भी यदि आपको अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़े, तो उस समय आपको भी भद्रजित की तरह धैर्य नहीं खोना चाहिए। क्योंकि जब आप गलत नहीं हैं तो आपके साथ गलत हो ही नहीं सकता है। यह बात मन में बैठा लें कि यदि आप सही हैं तो कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यदि बिगाड़ सकता है तो केवल आपका आत्मविश्वास। आप उसे कभी कमजोर न पड़ने दें और सोचें कि जो कुछ आपके साथ हो रहा है, वह आपके भले के लिए ही हो रहा है। आपको इसकी तात्कालिक पीड़ा भले ही हो, लेकिन कुछ समय बाद आपको पता चलेगा कि यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि आपको किसी बड़े काम का बीड़ा उठाना था, जिसके बारे में आपने कभी सोचा भी नहीं था। कहा भी गया है की पीड़ा उठाने वालों को ही मिलता है बड़े काम का बीड़ा। इसलिए जो कुछ घट रहा है, उसे हरि इच्छा मानकर धैर्य के साथ अपने पथ पर आगे बढ़ते रहें ताकि आपकी हर इच्छा पूरी हो सके।

Tuesday, February 16, 2016

समय पर ही मिलते हैं गुठलियों के आम


     एक नगर में बहुत विशाल बाग था। वहाँ पर आम के कई वृक्ष थे जो मौसम आने पर फलों से लद जाते थे। इन फलों को देखकर नगर में रहने वाला बंदरों का एक समूह बाग में आकर आम खाने का प्रयास करता था। इसमें वे सफल भी होते थे लेकिन इसकी उन्हें भारी कीमत भी चुकानी पड़ती थी। दरअसल माली बड़ी ही चौकसी से बाग की रखवाली करता था। यदि कोई बंदर बाग में प्रवेश करता तो वह उस पर हमला कर देता। इससे बंदरों को चोट लगती और वे चिल्लाते हुए भाग जाते। लेकिन आमों का लालच उन्हें फिर खींच लाता और पूरे मौसम यही भागदौड़ मारपीट चलती रहती।
     इन सबसे तंग आकर एक दिन बंदरों के सरदार ने अपने समूह की बैठक बुलाई। वह बोला-आमों के लिए यह बार-बार मार खाना मुझे रास नहीं आता। यह हमारे कुल की मर्यादा के विरूद्ध है। इस जिल्लत भरी ज़िंदगी से पीछा छुड़ाने के लिए मुझे एक तरकीब सूझी है। क्यों न हम खुद आम के वृक्ष लगाएँ। जब उन पर आम लगेंगे तो हम निÏश्चत होकर सुख से खाएँगे। तब कोई हमें मारेगा नहीं, कोई हमें रोकेगा नहीं। सरदार की बात सभी बंदरों को पसंद आई और वे इसके लिए तैयार हो गए। इसके लिए ज़मीन की तलाश की गई जहाँ पर कि आम के वृक्ष लगाए जा सकें। और फिर वहाँ पर ज़मीन खोदकर उन्होने आमों की गुठलियाँ दबा दीं। इसके  बाद पानी देकर वहीं बैठ गए। एक दिन बैठे रहे, दो दिन बैठे रहे, लेकिन थे तो आखिर बंदर। तीसरे दिन उन्होने ज़मीन खोदकर यह देखना शुरु कर दिया कि गुठलियों में आम लगे हैं या नहीं।
     दोस्तो, अब उन बंदरों को कौन समझाए कि गुठलियों में आम नहीं लगते। गुठलियों से तो अंकुरित होकर एक नन्हा-सा पौधा निकलता है जो धीरे-धीरे एक विशाल वृक्ष का आकार लेता जाता है और एक निश्चित समय के बाद ही उस पर आम लगने शुरु होते हैं। यानी अगर आप अपने द्वारा रोपी गई गुठली से उत्पन्न आम खाना चाहते हैं तो धैर्य के साथ इंतजार करें। समय आने पर आपको ढेर सारे आम खाने को मिलेंगे। लेकिन बहुत से लोग उन बंदरों की तरह अधीर होते हैं। इन्हें हर समय जल्दी रहती है। इन्हें हर चीज़ चुटकियों में चाहिए कि ये चुटकी बजाएँ और इनकी मनचाही चीज़ इनके सामने हाज़िर हो जाए।
     ऐसी सोच वाले लोगों से हम कहना चाहेंगे कि हर चीज़ को पूरा होने में एक निश्चित समय लगता है। जैसे कि यदि आपने कोई नया काम शूरु किया है और आप सोचें कि पहले दिन से ही आपका काम चल निकले, तो ऐसा नहीं होता। किसी भी नए काम या व्यवसाय को स्थापित  होने में समय लगता ही है। इसलिए अधीरता दिखाने की बजाय धैर्यपूर्वक अपने प्रयत्न जारी रखना चाहिए, उसे स्थापित करने के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी चाहिए। समय आने पर आपको आपकी मेहनत का फल अवश्य मिलेगा और आप निÏश्चत होकर खुशी-खुशी अपनी सफलता का आनंद उठा पाएँगे। इसके साथ ही, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो तेज़ी से सफलता हासिल करना चाहते हैं। लेकिन कहते हैं कि दौड़ने के लिए ज़रूरी है कि पहले चलना सीखा जाए। यदि आप सीधे दौड़ने की सोचोगे तो धड़ाम से गिरोगे। इसी प्रकार किसी व्यवसाय को शुरु करने के बाद यह नहीं सोचना चहिए कि आज शुरु किया है, कल दौड़ने लगे। नहीं, पहले उसे धीरे-धीरे चलाओ, फिर दौड़ाओ।
     कई बार आपने देखा होगा कि बहुत से लोग तेज़ी से व्यावसायिक सफलता प्राप्त करते हुए नज़र आते हैं। उनको देखकर लगता है कि अब इन्हें कोई नहीं रोक पाएगा। वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत आगे भी निकल जाते हैं, लेकिन एक दिन अचानक हम देखते हैं कि उनका तो दिवाला ही पिट गया। यह इसी कारण होता है कि उन्होने एकदम से दौड़ने की कोशिश की और हुआ भी वही, कि गिर पड़े। व्यवसाय में वे ही लंबी रेस के घोड़े साबित होते हैं जो धीरे-धीरे अपनी जड़ें मज़बूत कर आगे बढ़ते हैं। कहते हैं न कि जो आराम-आराम से चलता है, वही सही-सलामत पहुँचता है। इसलिए यदि आप छलाँग लगाना चाहते हैं तो इतनी लंबी ही लगाएँ, जितनी कि लाँघ पाएँ वरना अधिक के चक्कर में आपका क्या अंजाम होगा, यह बताने की ज़रूरत नहीं।

Monday, February 15, 2016

इसीलिए तो वे वहाँ हैं, जहाँ पर वे हैं


     एक राजा की सवारी को देखने के लिए रास्ते के दोनों तरफ जमा लोगों में एक अंधा फकीर भी था। सवारी से पहले गश्त लगाते हुए सिपाही आए, जो रास्ता खाली करवा रहे थे ताकि सवारी बिना अवरोध के आगे बढ़ जाए। सिपाही लोगों पर रौब जमाने के लिए बिना कारण ही डंडे घुमा रहे थे। फकीर भीड़ में थोड़ा आगे खड़ा था। एक सिपाही ने उसे देखकर गाली बकना शुरू कर दिया। जब फकीर की समझ में नहीं आया तो सिपाही ने उस पर डंडे बरसाते हुए कहा- "पीछे हट अंधे! मनहूस बनकर खड़ा है सबसे आगे।' फकीर पीछे हट गया और धीरे से बोला- "इसीलिए तो....। जब सिपाही चले गए तो वह धीरे से फिर से आगे सरक आया। तभी राजा के घुड़सवार वहाँ से गुजरे। उन्होने भी फकीर को भला-बुरा कहा। फकीर पीछे होते हुए फिर से बोला- "इसीलिए तो....। लेकिन जैसे ही घुड़सवार आगे बढ़े, फकीर फिर आगे आ गया। अब बारी थी राजा के मंत्रियों के आने की। फकीर को देखकर एक मंत्री बोला- "फकीर बाबा, राजा की सवारी आ रही है। कृपया थोड़ा-सा पीछे हटके खड़े हो जाइए। इससे न आपको असुविधा होगी, न हमें।' फकीर धीरे से फिर पीछे चला गया। लेकिन पीछे हटते-हटते बोला-इसीलिए तो....।
     अंत में राजा की सवारी आ गई। राजा के आने की आहट पाकर फकीर आगे आ गया। इतने में धक्का-मुक्की होने लगी। वह फकीर नीचे गिर पड़ा। उसे गिरते हुए राजा ने देख लिया। वह तुरंत सवारी से उतरा और खुद ही फकीर को उठाकर बोला-"आपको चोट तो नहीं आई बाबा।' फकीर ने कहा-नहीं बेटा। इसके बाद राजा फकीर से आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ गया। उसके जाने के बाद फकीर बोला- "इसीलिये तो....।
     फकीर के पास कुछ लोग खड़े थे। उन्हें उसके द्वारा बार-बार "इसीलिए तो' कहने का मतलब समझ में नहीं आ रहा था। एक व्यक्ति ने फकीर से इसका मतलब पूछा तो वह बोला- इसका मतलब है कि व्यक्ति का व्यवहार और चरित्र उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार ही होता है। वह सिपाही इसलिए ही सिपाही है क्योंकि उसका व्यवहार सिपाही की तरह अक्खड़ है। यही बात घुड़सवार मंत्री और राजा पर भी लागू होती है। सभी अपनी-अपनी जगह पर अपने व्यवहार के कारण ही पहुँचे हैं। इसीलिए तो वे वहाँ हैं, जहाँ पर वे हैं।
     दोस्तो, सही कहा उस फकीर ने। व्यक्ति को उसका चरित्र और व्यवहार ही ऊँचाइयों पर ले जाता है। क्योंकि यदि किसी व्यक्ति का चरित्र और व्यवहार अच्छा है, तो फिर उसके विरोधी नहीं होते या नगण्य ही होते हैं। जब अधिकतर उसके पक्ष में होंगे तो वह व्यक्ति उनके सहयोग से आगे बढ़ता ही चला जाएगा। इसके विपरीत यदि व्यवहार अच्छा नहीं होगा तो वह जहाँ है, वहीं बना रहेगा। इसका कारण यह है कि व्यक्ति का चरित्र उसका व्यवहार उसकी योग्यताओं और क्षमताओं का आईना होता है। योग्यता व्यक्ति को व्यवहारकुशल बनाती है। यदि व्यक्ति के अंदर योग्यता है तो वह उसके व्यवहार में झलकेगी। और किसी से छिपी नहीं रहेगी। तब उसे वह सब हासिल होता जाएगा जिसकी उसने तमन्ना की होगी। इसलिए आज आपको भले ही आपकी क्षमता से कम मिल रहा हो, लेकिन यदि आप बिना धैर्य खोए अपना व्यवहार अच्छा बनाए रखेंगे तो आपका व्यवहार आपको वहाँ तक पहुँचा देगा, जहाँ तक पहुँचने के लिए आप बने हैं।
     दूसरी ओर, कई बार आदमी के अंदर योग्यता तो होती है, लेकिन वह उसके व्यवहार में नहीं झलकती। दरअसल, वह अपने आपको बड़ा मानकर उल्टा व्यवहार करने लगता है। वह यह नहीं समझता कि आदमी जितना ऊँचा उठता जाता है, उतना ही शालीन होता जाता है या यूँ कहें कि उसे शालीन होना पड़ता है। कहा भी गया है कि जितना कुलीन, उतना शालीन। क्योंकि यदि बड़ा बनकर वह शालीन नहीं होगा, व्यवहारकुशल नहीं होगा, दूसरों को छोटा समझेगा, तो फिर दूसरे भी उसे छोटा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे यानी उसका सम्मान करना बंद कर देंगे। इसलिए व्यक्ति को पद की गरिमा के अनुरूप ही व्यवहार करना चाहिए। तभी तो लोग कहेंगे कि सही आदमी, सही जगह पर बैठा है। यदि आप लोगों के मुँह से अपने लिए यह सुनना चाहते हैं तो पद के बढ़ने के साथ व्यवहार में शालीनता भी बढ़ाएं ताकि आप जिस ऊँचाई पर खड़े हैं उससे भी अधिक ऊँचाई पर जाएँ।

Saturday, February 13, 2016

भला करने में थोड़ा झूठ चलता है


     एक बार अकबर अपने महल में टहल रहे थे कि अचानक उनकी नज़र एक दीवार पर पड़ी। दीवार पर एक जगह पुताई का चूना गिर गया था और वह भद्दी लग रही थी। अकबर ने एक नौकर को बुलाकर वहाँ चूना लगाने का आदेश दिया। नौकर चूना लगाना भूल गया। अगले दिन जब अकबर वहाँ से गुज़रे तो यह देखकर गुस्से से भर उठे। नौकर को जब बुलाया गया तो वह अपनी भूल पर माँफी माँगने लगा। अकबर बोले-अब फौरन जाकर एक सेर चूना ले आओ। नौकर चूना लाने के लिए दौड़ा। रास्ते में बीरबल मिल गए। उन्होने नौकर को घबराहट में देख इसका कारण पूछा। नौकर ने सारी बात बता दी। बीरबल बोले-चलो मैं तुम्हें चूना देता हूँ। इसके बाद बीरबल उसे अपने घर ले गए और उसे चूने से भरे दो दोने देते हुए बोले-अगर जहाँ पनाह तुम्हें चूना खाने को कहें तो तुम पहले लाल दोने में से खाना।
     जब नौकर चूना लेकर अकबर के पास पहुँचा तो उन्होने वही किया। जिसका बीरबल को अंदेशा था। वे बोले-तुम इस चूने को खाओ। नौकर घबरा गया। लेकिन यदि हुक्म नहीं मानता तो मारा जाता। इसलिए उसने चूना लाल दोने में से खाना शुरु कर दिया। जब वह बहुत सारा चूना खा गया तो अकबर ने यह सोचकर उसे रोक दिया कि और ज़्यादा खाने से कहीं उसकी हालत न बिगड़ जाए। अगले दिन नौकर को ठीक-ठाक  देखकर वे हैरान रह गए। उन्होने सोचा-इसका हाज़मा तो बड़ा तगड़ा है। उन्होने उससे फिर एक सेर चूना मँगाया। नौकर बीरबल के पास पहुँचा और दो दोने चूना लेकर लौटा। अकबर ने उसे सारा चूना खाने को कहा। उसने दोनों दोने खाली कर दिए और अपने काम में लग गया। उसे देखकर अकबर की हैरानी और बढ़ गई। उन्होने उसे बुलाकर पूछा कि यह चूना तुम कहाँ से लाए थे? नौकर ने उन्हें सारी बात बता दी। अकबर को यकीन हो गया कि बीरबल ने उनकी मंशा भाँप ली होगी कि वे नौकर को सजा देना चाहते हैं और उससे चूना खाने को कहेंगे। इसीलिए बीरबल ने कोई न कोई चतुराई की होगी, वरना इतना चूना एक साथ खाने वाला बच नहीं सकता। उन्होने खाली दोने मँगाकर जाँच की। उन्हें चूने की चिकनाई देखकर समझ में आ गया कि दोने चूने से नहीं मक्खन से भरे थे। दोस्तो, देखा आपने। बीरबल ने किस तरह अकबर को चूना लगाकर यानी बुद्धू बनाकर उस नौकर को बचा लिया। ऐसे चूना लगाने को गलत नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसमें किसी दूसरे का हित छिपा हुआ है। यदि आप भी किसी अच्छी भावना से सामने वाले को चूना लगाकर उसे गलती करने से रोकते हैं तो वह आप पर नाराज़ नहीं होगा, बल्कि नाज़ ही करेगा। इसके विपरीत यदि आप दूषित भावना से चूना लगाएँगे तो उसका अंजाम आपको ही भुगतना पड़ेगा।
     दूसरी ओर, बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जिन्होने दूसरों को चूना लगा-लगाकर यानी धोखा दे-देकर अपनी तिजोरियाँ भरी हैं। ये लोग ऐसा करके जो मक्खन खा रहे हैं, वह वास्तव में किसी और के हिस्से का था। ऐसे लोगों की मानसिकता होती है कि ये अकसर अपने घरों पर चूना नहीं लगवाते यानी पुताई नहीं करवाते। ये ऐसा इसलिए करते हैं ताकि वे लोग जिनको इन्होने चूना लगाया है, कहीं इनसे अपना हिसाब-किताब न करने बैठ जाएँ। ऐसे लोगों से हम कहना चाहेंगे कि अपनी इस आदत को बदल दें, क्योंकि जब आप चूना लगाएँगे तो यह अपना काटने का धर्म निभाएगा। यह अंदर से आपको भयग्रस्त कर आपकी ऊर्जा को काटेगा और बाहर से आपको लोगों से काटेगा, क्योंकि जब लोगों को यह पता लगेगा कि आप धोखेबाज़ हैं, तो वे आपसे दूर रहना ही श्रेष्ठ समझेंगे। इसलिए बेहतर यही है कि किसी को चूना न लगाया जाए।
     आप सभी अपने-अपने घरों पर चूना लगाते होंगे। वैसे चूना लगाने में कोई बुराई नहीं है, क्योंकि इससे तो घर की साफ-सफाई होती है। साफ-सुथरा घर मन को शांति देता है, जिससे आपकी कार्यक्षमता बढ़ती है। और जब कार्यक्षमता बढ़ेगी तो निश्चित ही आपकी कमाई दूनी होगी यानी आपकी आमदनी बढ़ेगी। इसीलिए कहते भी हैं कि लक्ष्मी उसी घर में आती है जो साफ-सुथरा, लीपा-पुता हो। तो फिर आप कब शुरू कर रहे हैं अपने घर में चूना लगवाना। नहीं तो लोग समझेंगे कि आप भी.....। अरे भाई, हम तो मज़ाक कर रहे हैं।

Friday, February 12, 2016

आपके खड़े रहने में है किसीका योगदान


     एक जंगल में दो घने वृक्ष थे। उनकी छाँव में जंगली जानवर विश्राम करते थे। उनमें अधिकतर शेर-चीते जैसे मांसाहारी जानवर होते थे। इन जानवरों द्वारा लाए गए शिकार को खा लेने के बाद बचे हुए मांस के टुकड़ों के सड़ने से बदबू फैलती थी। दोनों वृक्ष इस बदबू से परेशान हो चुके थे। एक दिन एक वृक्ष बोला- मित्र, इस दुर्गन्ध से मेरा दम घुटता है। दूसरा वृक्ष बोला- हाँ तुम सही कहते हो। अब यहाँ रहना दूभर हो गया है। लेकिन हम कहीं जा भी तो नहीं सकते, न ही कुछ कर सकते हैं। इस पर पहला वृक्ष बोला-कैसे कुछ नहीं कर सकते। मैं इन जानवरों को यहाँ बेठने ही नहीं दूँगा। दूसरा वृक्ष कहने लगा, अरे, ऐसा मत करना। जानते नहीं ये जंगली जानवर ही हमारे रक्षक हैं। तुम इन्हें ही भगा दोगे तो हम मारे जाएँगे। पहला वृक्ष बोला-क्या मूर्खतापूर्ण बात करते हो। इन जानवरों से हमारी कैसी सुरक्षा? उलटे हम ही इन्हें सुरक्षा और छाँव देते हैं। जब ये यहाँ आना छोड़ देंगे तो वातावरण कितना पवित्र हो जाएगा।
     इसके बाद जब भी रात में जानवर उस वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे होते, वह जोर-जोर से हिलने लगता। इससे डरावनी आवाज़ें पैदा होतीं, जिससे वहाँ सोए पशु डरकर भाग जाते। धीरे-धीरे जानवरों ने वहाँ आना बंद कर दिया। अपनी सफलता पर इतराकर पहला वृक्ष बोला-देखा मित्र, अब हम कितने आराम से रहते हैं। अब यहाँ कोई दुर्गन्ध और अशान्ति नहीं।
     इस तरह कई दिन बीत गए। एक बार एक ग्वाला अपनी गाय का पीछा करता हुआ वहां पहुँचा। वह बहुत डरा हुआ था कि कहीं कोई हिंसक जानवर हमला न कर दे। जब उसे वहाँ किसी जानवर के पैरों के निशान नहीं दिखे तो वह समझ गया कि अब यहाँ कोई हिंसक जानवर नहीं आता। वह तुरंत जाकर अपने गाँव वालों को बुला लाया। गाँव वाले वहाँ रहने की योजना बनाने लगे। इस पर दूसरा वृक्ष बोला-देखो, गाँव वाले यहाँ आकर रहेंगे। अब तो अपनी शामत आई समझो। इसलिए मैने तुम्हें जानवरों को भगाने से मना किया था। पहला वृक्ष कहने लगा- घबरा मत, मैं इन्हें भी डराकर भगा देता हूँ। और वह तेज़ी से हिलने लगा। इससे गाँव वाले डर गए। इस पर एक वृद्ध बोला-डरने की बात नहीं हवा चल रही है। हम इन पेड़ों को काट देंगे। जल्द ही उस जगह के सभी वृक्षों को काट दिया गया। इस तरह एक वृक्ष की मूर्खता का परिणाम सभी ने भुगता।
     दोस्तो, इसे कहते हैं सभी के साथ हिलमिलकर न रहने का नतीजा। उस वृक्ष ने अपने थोड़े से आराम के चक्कर में अपने साथ ही सभी का नुकसान कर डाला। ऐसा ही उन लोगों के साथ भी होता है, जो सोचते हैं कि उन्हें किसी की आवश्यकता नहीं। वे अपने अकेले के बल पर ज़िंदगी में सब कुछ हासिल कर सकते हैं। दूसरे की उपस्थिति उन्हे असहनीय लगती है। उन्हे लगता है कि वे उनके जीवन में अशान्ति पैदा करते हैं, उन्हे चैन से जीने नहीं देते। इसके चलते वे आसपास के लोगों से दूरी बना लेते हैं। बाद में जब वे विपत्ति में फँसते हैं तो उन्हे अहसास होता है कि उनके वजूद में उन लोगों का भी हाथ था, जिन्हे वे निरर्थक समझते थे। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और कोई सहयोग के लिए नहीं आता। इसलिए आप कितने ही बड़े आदमी क्यों न बन जाएँ, अपने आसपास के लोगों को निरर्थक न समझें। हर व्यक्ति का एक वजूद होता है और सभी एक दूसरे की प्रगति में सहायक होते हैं, सहायक बनते हैं। यदि आप किसी को कुछ दें रहें हों तो निश्चित ही वह भी आपको कुछ दे रहा होता है। हो सकता है प्रत्यक्ष रूप से यह आपको नजर नहीं आता हो, लेकिन आप अप्रत्यक्ष रूप से देखेंगे तो आपको अपने खड़े रहने में उसका भी योगदान दिखाई देगा। अब यदि इमारत यह दंभ भरे कि उसकी बुलंदी स्वयं उसकी वजह से है तो यह मूर्खता वाली  बात हुई न। इमारत को पता होना चाहिए कि उसकी बुलंदी टिकी है उस नींव पर, जो दिखाई भले ही न दे उसे अपने उपर थामे रहती है। जिस दिन इमारत नीव के बिना अपने वजूद के बारे में सोचेगी, उस दिन भरभराकर गिर पड़ेगी। तब उसे नींव का ध्यान भी आये तो किस काम का।
     इसलिए कभी किसी को महत्वहीन न समझें। हर एक व्यक्ति का अपना महत्व, अपनी भूमिका रहती है। सभी मिलकर किसी भी संस्था को सफलता की बुलंदियों तक पहुँचाते हैं। किसी को भी व्यर्थ समझोगे तो आप खुद ही अर्थहीन हो जाओगे।

Wednesday, February 10, 2016

मैदान में उतरे हो तो हारना भी सीखो


     कौरव-पांडव एक साथ खेल-कूदकर बड़े हो रहे थे। हर खेल में पांडव कौरवों से बाजी मार लेते थे। फिर वह दौड़ हो, तीरअंदाजी हो, कुश्ती हो या फिर कोई और खेल। कुश्ती में तो भीम का कोई मुकाबला ही नहीं था। यहाँ तक कि दुर्योधन और उसके भाई मिलकर भी भीम को नहीं पछाड़ पाते थे। भीम के हाथों बार-बार हारने की वजह से दुर्योधन के मन में हीन भावना बैठ गई। वह भीम से छुटकारा पाने के उपाय सोचने लगा।
          एक बार वे सभी गंगा तट पर जलक्रीड़ा के लिए गए थे। भीम खाने-पीने के बहुत शौकीन थे। उनकी इस कमजोरी को दुर्योधन जानता था। जब सभी भाई खाने बैठे तो दुर्योधन ने भोजन में विष मिलाकर भीम को परोस दिया। भीम बिना सोचे-विचारे सारा भोजन चट कर गए। जल्द ही भीम के शरीर में विष फैलने लगा और वे अपने तंबू में जाकर लेट गए। लेटते ही उन पर बेहोशी छा गई। मौका देखकर दुर्योधन ने उन्हें रस्सियों से बाँधा और गंगा में फेंक दिया। डूबते हुए भीम नागलोग पहुँच गए। वहाँ के विषैले नागों ने शत्रु समझकर उन्हें डसना शुरू कर दिया। ज़हर ने ज़हर को मारा और उनके शरीर में फैले विष का असर खत्म हो गया। चेतना लौटने पर भीम सारी रस्सियाँ तोड़कर नागों से भिड़ गए। इस बीच, आर्यक नामक नाग ने उन्हें पहचान लिया और उनकी खूब आव-भगत की। कुछ दिन नागलोक रहने के बाद भीम सकुशल हस्तिनापुर लौट आए।
     दोस्तो, जानते हैं दुर्योधन ने किस भाव की कमी से ऐसा किया? दरअसल, उसके अंदर खेल भावना का अभाव था। इसी कारण वह अपनी हार को बरदाश्त नहीं कर पाता था और अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ किसी भी हद तक चला जाता था। बचपन से ही हार नहीं मानने की उसकी यह प्रवृत्ति बाद में महाभारत का कारण बनी जिसमें कि जीतने की इसी धुन ने उसने अपना और अपनों का सर्वनाश करा दिया। वैसे इस प्रवृति के लोग आपको आज भी मिल जाएँगे, जो खेल को खेल की तरह नहीं मानते और सामने वाले को हराने के लिए मैदान के बाहर के खेल भी खेलने लगते हैं। यदि आप भी इसी प्रवृत्ति के हैं तो भैया दुर्योधन के अंत से सबक लें।
     किसी भी तरह जीतने की सोचने वाले हमेशा जीतकर भी हार जाते हैं। क्योंकि इस तरह से वे अपनी जीत की खुशी का आनंद पूरी तरह नहीं उठा पाते। दूसरों की नज़र में वे भले ही विजेता हों, लेकिन उनकी अंतरात्मा इसे स्वीकार नहीं कर पाती। ऐसे में जब कोर्ई इनको बधाई देता है तो इनका मन आत्मग्लानि से भर जाता है। इस तरह ये जीतकर भी हार जाते हैं। इसलिए बेहतर यही है कि खेल को खेल की तरह ही खेलो। मैदान में उतरे हो तो हारना भी सीखो और हार बरदाश्त करना भी। यदि आप यह करना सीख गए तो यकीन मानिए फिर आपको कोई हरा नहीं पाएगा। यानी कुल मिलाकर खेल भावना का होना हर दृष्टि से ज़रूरी है।
     अब हम ज़िंदगी की ही बात करें। कहते हैं कि ज़िंदगी भी एक खेल है। इस खेल को खेलते समय भी यदि आपके अंदर खेल भावना का अभाव होगा तो आप ज़िंदगी के खेल को कभी नहीं जीत पाएँगे। क्योंकि आज के प्रतियोगी दौर में तो वही मैदान में टिक पाता है जिसके अंदर पराजय स्वीकारने का भाव होता है। वरना तो प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने के लिए उलटे-सीधे खेल खेलने वाले व्यक्ति का एक दिन खुद ही खेल बिगड़ जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऐसे खेल खेलने वाला हो सकता है एक-दो बार अपने खेल में सफल हो जाए, लेकिन धीरे-धीरे लोग उसका खेल समझने लगते हैं। और वह दूसरों को खेल खिलाते-खिलाते एक दिन खुद ही अपने खेल में उलझ जाता है। यदि आप भी ऐसा ही कुछ कर रहे हैं तो समय रहते संभल जाएँ। हार को स्वीकार करना सीखें, क्येंकि जीत ही सब कुछ नहीं होती। आज हारे हो तो कल जीतोगे भी। कहा भी गया है कि जीत अपना पाला बदलती रहती है। आज किसी और के पाले में है तो कल आपके पाले में होगी। इसलिए हिम्मत मत हारो। क्योंकि हारकर जीतना संभव है, लेकिन हिम्मत हार जाओगे तो कभी नहीं जीत पाओगे।

Monday, February 8, 2016

अलग हटकर करें, अलग हटाकर नहीं


     एक नगर में धर्मबुद्धि व पापबुद्धि नामक दो मित्र रहते थे। दोनों अपने नाम के अनुसार ही विचार और आचरण वाले थे। एक बार पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा-"मित्र! मैं जीवन में कुछ हटकर करना चाहता हूँ। इसके लिए बहुत से धन की आवश्यकता होगी। क्यों न हम दोनों किसी दूसरे नगर में जाकर धन कमाएँ।' धर्मबुद्धि इसके लिए तैयार हो गया। दोनों धन कमाने दूसरे नगर गए और वहाँ मेहनत करके बहुत धन कमाया। एक दिन दोनों ने अपने नगर लौटने का फैंसला किया।
     लौटते समय रास्ते में पापबुद्धि के मन में पाप उत्पन्न हो गया। उसने सोचा कि ऐसा क्या किया जाए कि यह सारा धन मेरा हो जाए। वह धर्मबुद्धि को रास्ते से हटाने की तरकीब सोचने लगा। वह बोला-" मित्र! नगर में हमेशा धन के चोरी होने का खतरा बना रहेगा, क्यों न हम इस धन को किसी वृक्ष के नीचे गाड़ दें।' धर्मबुद्धि इसके लिए तैयार हो गया। धन को एक वृक्ष के नीचे गाड़कर दोनों चले गए। बाद में पापबुद्धि ने आकर सारा धन निकाल लिया। कुछ दिन बाद वह धर्मबुद्धि के पास जाकर बोला- "मुझे कुछ धन की आवश्यकता है, चलो चलकर निकाल लाएँ।' दोनों वहाँ पहुँचे, लेकिन वहाँ धन होता तो मिलता। इससे पहले कि धर्मबुद्धि कुछ कहता पापबुद्धि ने उस पर ही चोरी का आरोप मढ़ दिया। इससे मामले ने तूल पकड़ लिया और बात न्यायाधीश के पास तक जा पहुँची। न्यायाधीश ने जब दोनों से पूछताछ की तो पता चला कि चोरी का कोई गवाह ही नहीं है। इस पर धर्मबुद्धि बोला- "श्रीमान्! हमने जिस वृक्ष के नीचे धन गाड़ा था, उस पर वन देवता का निवास है। वही गवाही देंगे।' उसकी बात सुनकर पापबुद्धि चकरा गया। उसने सोचा-वृक्ष कैसे गवाही देगा। फिर उसकी बुद्धि तेज़ी से चली। अगले दिन न्यायाधीश के वहाँ पहुँचने से पहले ही उसने वृक्ष की खोह में अपने पिता को समझा-बुझाकर बैठा दिया। न्यायाधीश ने वहाँ पहुँचकर जब पेड़ से चोरी के बारे में पूछा तो वहाँ बैठे पापबुद्धि के पिता ने धर्मबुद्धि को चोरी का दोषी बताया। न्यायाधीश को शक हुआ और उसने उस पेड़ के चारों तरफ आग लगवा दी। कुछ ही देर में आग की लपटों से घिरा पापबुद्धि का पिता चिल्लाता हुआ बाहर निकला। पाप बुद्धि की पोल खुल गई। उसे पकड़कर कारागार में डाल दिया गया। दोस्त को रास्ते से हटाने के चक्र में पापबुद्धि खुद ही रास्ते से हट गया।
     दोस्तो, कहते हैं यदि व्यक्ति को अपनी अलग पहचान बनानी है तो उसे कुछ हटकर  करना चाहिए या यूँ कहें कि कुछ हटकर करने वाले ही अपनी अलग पहचान बना पाते हैं। वो कहते हैं कि धारा के साथ बहने वालों को कोई नहीं पूछता, क्योंकि धारा के साथ बहने में अनोखा क्या है? कोई भी बह सकता है। दुनियाँ में तो वे ही अपना नाम करते हैं या कमाते हैं, जो धारा के विरूद्ध बहते हैं, क्योंकि धारा के विरूद्ध बहना आसान नहीं होता। और जो आसान काम नहीं करता, शान तो उसी की बढ़ती है। यह बात भी सही है कि ऐसा करने वालों को बहुत-सी तकलीफों का सामना करना पड़ता है। लेकिन इन तकलीफों से गुज़रकर जब सफलता आपके हाथ लगती है तो फिर जो रिलीफ मिलता है उसकी तो बात ही क्या। फिर तो आप ही आप होते हैं। सबकी नज़र आप पर होती है। अचानक आप हीरो बन जाते हैं। इसलिए आपको जो काम दिया गया है या आप जो काम कर रहे हैं, उसे परंपरागत तरीके से करने की बजाय कुछ अलग हटकर करके दिखाएँ। यदि आप ऐसा करते हैं तो आपकी भी अपने लोगों के बीच में अलग पहचान बन जाएगी। तो फिर जो करें हटकर करें।
     यहाँ एक बात हम ज़रूर कहना चाहेंगे कि हटकर करने का मतलब यह नहीं है कि आप लोगों को हटाकर सफलता की सोचें। यदि आप अपने साथियों को अलग हटाकर करने की सोचेंगे तो पापबुद्धि की तरह खुद ही हट जाएँगे। यानी सफल नहीं हो पाएँगे और यदि हो भी गए तो कोई पूछने वाला नहीं होगा। ऐसे में कुछ करके भी आप कुछ नहीं कर पाएँगे। कुछ पाकर भी कुछ नहीं पा सकेंगे। इसलिए आज से प्रण करें कि आप हमेशा कुछ अलग हटकर करेंगे, लेकिन किसी को हटाकर नहीं। यदि आप ऐसा करेंगे तभी लोग आपसे सटकर खड़े रहेंगे, हटकर नहीं।

Sunday, February 7, 2016

दिल जीतोगे तभी जीत पाओगे सम्मान


     खलीफा मामू ने अपने शहजादों की तालीम के लिए एक काबिल उस्ताद को लगाया। उस्ताद रोज आकर शहजादों को पढ़ाने-लिखाने लगे। उनके पढ़ाने के तरीके से शहजादे उनकी सिखाई बातों को जल्दी ही सीख जाते थे। धीरे-धीरे शहजादों के मन में उस्ताद के लिए इज्ज़त बढ़ती चली गई। एक दिन जब वे शहजादों को पढ़ा रहे थे, तभी किसी काम से वे अपनी जगह से उठे। उन्हें उठते देख दोनों शहजादे हरकत में आ गए और उनकी जूतियों की ओर दौड़े। दोनों एक साथ वहाँ पहुँचे। जूतियाँ उठाने के लिए झगड़ने लगे। फैसला न होते देख दोनों ने तय किया कि वे एक-एक जूती लेकर जाएँगे। और वे जूतियाँ लेकर बड़े ही आदर भाव से उन्हें पहनाने लगे, जिसे देखकर उस्ताद भी भावुक हो उठे।
     यह बात खलीफा के कानों तक पहुँची। उन्होने उस्ताद को बुलाकर पूछा-आज दुनियाँ में सबसे ज्यादा सम्माननीय कौन है? उस्ताद बोले- मुसलमानों के खलीफा मामू के अलावा और कौन हो सकता है? खलीफा-नहीं, यह सही नहीं है। यह सम्मान तो उसे मिलना चाहिए जिसे जूतियाँ पहनाने के लिए शहजादे आपस में झगड़ते हों। उस्ताद-मैं शहजादों को रोकना चाहता था। खलीफा-यह तो आपने ठीक ही किया। यदि आप उन्हें रोकते तो मैं बहुत नाराज़ होता। इससे इस बात का पता चलता है कि शहजादों की तालीम के लिए जिसे चुना गया है वह वाकई कितना काबिल है। वह शहजादों को सही बातें सिखा रहा है। और उनकी आदतें सुधार रहा है। उस्ताद का सम्मान करके शहजादों ने अपनी भी इज्ज़त बढ़ाई है। इसलिए हम उस्ताद और चेलों को हज़ार-हज़ार दिरहम इनाम केरूप में देने का ऐलान करते हैं।
     दोस्तो, कितना सही फैसला रहा खलीफा का। यह निश्चित ही उस उस्ताद की सफलता थी जिसने शहजादों को इस तरह से पढ़ाया कि उनके मन में अपने उस्ताद के प्रति आदर भाव पैदा हो गया। यह बहुत ज़रूरी भी है क्योंेंकि छात्र अपने शिक्षक का सम्मान नहीं करेगा तो उससे सीखेगा कैसे? यानी सीखने के लिए ज़रूरी है सिखाने वाले के प्रति आदर का भाव होना। आदर भाव होगा तो उसकी बातों पर विश्वास भी होगा। तब वह जैसा कहेगा उसके कहे अनुसार शिष्य करता जाएगा। इसलिए ज़रूरी है कि शिक्षक ज्ञान देने से पहले, सिखाने से पहले अपने छात्रों के दिल में जगह बनाए। हालाँकि यह काम सबसे कठिन होता है लेकिन एक बार दिल में जगह बन गई तो फिर उसके बाद छात्र आपकी हर बात को सीखता चला जाएगा।
     दूसरी ओर, बहुत से शिक्षकों की यह पीड़ा रहती है कि उन्हेें प्रयाप्त सम्मान नहीं मिलता। ऐसा उन्हीं अध्यापकों के साथ होता है जो सिर्फ अध्यापन कार्य करके ही संतुष्ट हो जाते हैं। ऐसे गुरुजनों से हम कहना चाहेंगे कि यह तो सिर्फ नौकरी बजाना हुआ। अपने छात्रों का स्नेेह और आदर पाने के लिए आपको अपने छात्रों का बनकर उन्हें भी अपना बनाना हेागा। और ऐसा सिर्फ शिक्षक होने से नहीं बल्कि सही शिक्षकीय दायित्व निभाने से ही संभव होगा। आप ऐसा करेंगे तो वे आपको भरपूर सम्मान देंगे और आप भी अपने छात्रों पर गर्व कर सकेंगे।
     भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी एक शिक्षक के रूप में इसीलिए सफल रहे क्योंकि उन्होने यही तरीका अपनाया। वे हमेशा अपने छात्रों के सुख-दुःख में साथ खड़े रहते थे और उनकी हरसंभव सहायता करते थे। वे कहते भी थे कि एक आदर्श शिक्षक वही है जो अपने छात्रों के दिलों पर राज करे। तभी वह अपने पेशे के साथ न्याय कर सकता है। अपने काम से प्यार करने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी जब उनके जन्म दिन को "शिक्षक दिवस' के रूप में मनाए जाने की बात आई तो उन्होने सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि इससे निश्चित ही मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करूँगा। इसलिए आज हम सभी शिक्षकों का सम्मान करते हुए उनसे आग्रह करना चाहेंगे कि वे भी डॉ. राधाकृष्णन की तरह ही समर्पित और प्रतिबद्ध होकर अपनी भूमिका निभाएँ। तभी आप भी अच्छे शिक्षक बनकर अपने छात्रों में आदर्श स्थापित कर पाएँगे। वैसे भी आपके कंधों पर इस राष्ट्र की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। आप राष्ट्र के भविष्य को जो तैयार कर रहे हैं। अब बस, वरना आप कहेंगे कि सिखाने वालों को ही सिखा रहा है।

Friday, February 5, 2016

छोटों की सलाह को कभी न समझें छोटा


    एक पंडित अपने शिष्य के साथ जंगल से गुज़र रहा था कि अचानक डाकुओं ने उन्हें पकड़ लिया। उन्होने पंडित को एक पेड़ से बाँध दिया और शिष्य को घर से फिरौती की रकम लाने को कहा। जाने से पहले शिष्य पंडित के पास जाकर धीरे से बोला-"गुरु जी! मैं जल्द ही वापस लौटूँगा। आप गलती से भी इन्हें अपनी योग्यता के बारे में मत बता देना। दरअसल वह पंडित वैदर्भ मंत्र का ज्ञाता था। इस मंत्र का ग्रह-नक्षत्रों की विशेष युति में जप करने पर आसमान से रत्नों की बारिश होने लगती है।
    शिष्य चला गया। इधर पेड़ से बँधे पंडित की हालत धीरे-धीरे बिगड़ने लगी। अचानक उसकी नज़र आकाश में पड़ी। तारों को देखकर वह जान गया कि वह शुभ घड़ी आ रही है, जब वह वैदर्भ मंत्र का प्रयोग कर सकता है। उसने यह बात डाकुओं को यह सोचकर बता दी कि वे खुश होकर उसे छोड़ देंगे। सरदार ने उसे मंत्र का जप करने की इज़ाज़ दे दी। पंडित पास ही की नदी में नहा-धोकर मंत्र का जप करने लगा। जब पूर्ण होते ही आसमान से रत्नों की बारिश होने लगी सभी डकैत रत्नों पर झपट पड़े। तभी वहाँ डाकुओं के दूसरे गिरोह ने हमला कर सभी को पकड़ लिया। पहले गिरोह का सरदार बोला- "हम तो भाई-भाई हैं। हमें क्यों पकड़ते हो। ये रत्न तो हमें इस पंडित की वजह से प्राप्त हुए हैं। तुम भी इसके माध्यम से ढेरों रत्न प्राप्त कर सकते हो।' दूसरे सरदार ने पहले सरदार की बात पर विश्वास कर पंडित को छोड़कर सभी को मुक्त कर दिया। इसके बाद उसने पंडित से रत्नों की बारिश करने को कहा। पंडित बोला-"यह विशेष नक्षत्र के उदयकाल में ही संभव है। यह समय अब एक साल बाद ही आएगा।' यह सुनकर सरदार को गुस्सा आ गया। उसे लगा कि उसे मूर्ख बनाया गया है। उसने पंडित की खूब धुनाई की और उठाकर ज़मीन पर पटक दिया। अपने शिष्य की सलाह न मानने का अफसोस करते हुए पंडित ने प्राण त्याग दिए।
     दोस्तो, इसीलिए कहते हैं कि छोटों की सलाह को भी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए, क्योंकि कई बार छोटे भी बड़े पते की बात कहते हैं ऐसी बात जो कि आपके ज़ेहन में आई ही नहीं होगी। ऐसा अकसर होता है कि जो बात आप नहीं सोच पाते वे आपसे छोटे सोच जाते हैं। अब इसमें आप अहंकार के कारण उनकी बात को न मानें या उनका मज़ाक उड़ाएँ तो अंत में आपका ही मज़ाक बन सकता है, क्योंकि उनके कहे अनुसार ही घटना घट गई है या उनकी कही बात सही निकल गई तो नुकसान तो आपका ही होगा। इसलिए कभी यह मत सोचो कि सलाह किसने दी। यह देखो कि जो सलाह दी गई है, वह कितनी सही है। यदि सही सलाह है तो उसे अमल में ले आएँ। यकीन मानिए कई बार छोटों की सलाह से बड़े-बड़े काम बन जाते हैं। यदि आप सोचते हैं कि वरिष्ठ व्यक्ति ही ज़्यादा बुद्धिमान होता है तो यह ज़रूरी नहीं। बुद्धिमत्ता का उम्र से नहीं, दिमाग से संबंध होता है। इसलिए छोटों की सलाह लेने में कभी खुद को छोटा न समझें। यदि आप उनकी बातों का आंकलन करके निर्णय लेंगे तो फायदे में ही रहेंगे।
     दूसरी ओर, कुछ काम ऐसे होते हैं जिनको शुरू करने का एक उचित समय होता है। समय निकलने के बाद उस काम को करने का कोई मतलब नहीं होता। इसलिए यदि आप कुछ करने की सोच रहे हैं तो पहले देख लें कि समय अनुकूल है कि नहीं। यदि है तो फिर हाथ आए अवसर  का लाभ उठाएँ। क्योंकि यदि अवसर निकल गया तो फिर आप चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएँगे। कहते हैं न कि जब हवा अनुकूल हो तभी अपने जहाज़ के पाल खोलना चाहिए। तब उस हवा की सहायता से आप अपने जहाज़ को आसानी से गंतव्य तक ले जा सकते हैं। इसके विपरीत यदि हवा प्रतिकूल होगी तो आपका जहाज़ आगे बढ़ने की अपेक्षा डूब भी सकता है। इसलिए शुभ अवसर आने पर देर नहीं करनी चाहिए। ऐसे में देर घातक ही सिद्ध होती है।

भगाओ सुस्ती, लाओ चुस्ती और करो मस्ती


     इंडोनेशिया में कियाई सेंतार नाम का एक विद्वान हुआ। उसकी बुद्धिमत्ता के किस्से वहाँ पर उसी तरह कहे-सुने जाते हैं जैसे कि हमारे यहाँ तेनालीराम या मुल्ला नसरूद्दीन के। कियार्इं सेंतार को अपने काम के सिलसिले में कई बार बहुत दूर-दूर तक की यात्राएँ करनी पड़ती थीं। चूँकि उसके पास कोई साधन नहीं था इसलिए उसे अक्सर पैदल जाना पड़ता, जिसमें उसका बहुत अधिक समय लग जाता था। एक बार उसके दोस्त ने उसकी समस्या हल करने के लिए उसे एक गधा भेंट किया। गधा बहुत ही तंदुरुस्त था। उसे पाकर कियार्इं फूला नहीं समाया। उसने अपने दोस्त का जी-भर के शुक्रिया अदा किया। उसे लगा कि खुदा ने उसकी सुन ली। अब उसके सारे काम फटाफट हो जाएँगे। वह खुशी-खुशी गधे को लेकर घर गया और पूरे उत्साह और लगन से उसकी देखभाल करने लगा।
     वह अपने से ज़्यादा गधे की चिंता करता था। लेकिन धीरे-धीरे उसे समझ में आने लगा कि गधा दिखने में भले ही कितना भी ह्मष्ट-पुष्ट हो, स्वभाव से वह बहुत ही सुस्त और आलसी है। अब गधा अगर आलसी हो तो उसका होना न होना बराबर है। एक बार कियार्इं को जुमे की नमाज़ पढ़ने जाना था। वह भरी दोपहर में घर से निकल गया। रास्ते में उसे एक परिचित व्यक्ति मिला। वह बोला-"इतनी धूप में कहाँ जा रहो हो कियाई?' कियाई बोला-जुमे की नमाज़ पढ़ने। इस पर वह व्यक्ति बड़े आश्चर्य से बोला- अरे, लेकिन आज तो मंगलवार ही है। अभी तो ढाई दिन बाकी है। इस पर कियाई बोला-वो तो मुझे भी पता है, लेकिन क्या करूँ? मेरा गधा इतना सुस्त है कि आज चलूंगा, तभी जुमे को मस्जिद तक पहुँच पाऊंगा।
     दोस्तो, बेचारा कियाई! उसे क्या पता था कि "हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती।' यानी जिस गधे को देखकर उसे लग रहा था कि अब उसकी समस्या का हल हो गया, वही अब उसकी बड़ी समस्या बन गया। वैसे ऐसा अक्सर हम सभी के साथ होता है जब किसी व्यक्ति को ऊपरी तौर पर देखकर हमें लगता है कि यह हमारे बहुत ही काम का होगा। लेकिन बाद में जब हमारा उससे काम पड़ता है, तो पता चलता है कि वह किसी काम का नहीं। दूसरी ओर, कुछ लोग बातों के इतने धनी होते हैं कि उनकी बातों से यह गलतफहमी हो जाती है कि वे बहुत कुछ कर सकते हैं। हम उनकी बातों में आकर उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी सौंप देते हैं। बाद में हमें इस हकीकत से दो-चार होना पड़ता है कि वे सिर्फ बातों के धनी हैं। उन्हें ज़ुबान तो बहुत अच्छी तरह चलानी आती है, लेकिन उनसे हाथ-पाँव नहीं चलते। उनकी आवाज़ में जितनी तेज़ी है, शरीर में नहीं। काम में तो वे बहुत ही ढीले-ढाले हैं। किसी काम की डेडलाइन से उनका दूर-दूर तक का नाता नहीं होता। ऐसे लोगों को कोई भी महत्वपूर्ण काम सौंपना मुसीबत मोल लेना है, क्योंकि ये उसे समय पर पूरा कर ही नहीं सकते। इनकी गति इतनी सुस्त होती है कि काम समय पर पूरा हो जाएगा, इसकी गारंटी तो ये खुद भी नहीं दे सकते। ऐसे ही लोगों के लिए ही कहा गया है कि "नौ दिन चले अढ़ाई कोस।'
     यदि आप भी ऐसी ही प्रवृत्ति के हैं, तो हम आपसे कहना चाहेंगे कि यदि आप सफल होना चाहते हैं, तो सबसे पहले अपने व्यवहार की सुस्ती को भगाएँ, आलस को दूर करें। क्योंकि यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो सिर्फ सफलता के सपने ही देखते रह जाएँगे और दुनियाँ आपसे बहुत आगे निकल जाएगी। आज जमाना तेज़ी का है और ऐसे में घोंघे की चाल से चलकर दौड़ नहीं जीती जा सकती। यदि आपको आगे रहना है, तो नौ दिन में ढाई नहीं ढाई सौ कोस चलने की क्षमता होनी ज़रूरी है इसलिए अपनी गति बढ़ाएँ। यदि आप अपनी सुस्ती को भगाकर चुस्ती लाने में कामयाब हो गए तो आपके जीवन में मस्ती ही मस्ती है। यदि सुस्त गति से ही चलते रहे तो फिर आपकी हस्ती सस्ती हो जाएगी यानी आप सफलता की दौड़ में पिछड़ जाएँगे और कोई आपको नहीं पूछेगा।

Thursday, February 4, 2016

उल्टा चलने वाले को चलाओ उलटा


     शरद पूर्णिमा की कोजागरी कथा से मिलती-जुलती एक कथा है। एक बार एक व्यापारी को बहुत घाटा हुआ। देनदारी चुकाने के लिए उसे अपनी हवेली बेचना पड़ी और उसका परिवार छोटे से मकान में जाकर रहने लगा। व्यापारी की पत्नी इस सबके लिए अपने पति को दोषी मानती थी और गाहे-बगाहे उसे ताने भी मारती रहती थी। इसके चलते वह व्यापारी की कोई भी बात मानना तो दूर जो कुछ वह कहता, उससे बिलकुल उलटा ही करने लगी। उसकी इस आदत से व्यापारी की परेशानी और बढ़ गई। एक तो व्यापार का घाटा और दूसरा पत्नी का व्यवहार। पत्नी के आचरण ने उसे बुरी तरह तोड़ दिया और वह उदास रहने लगा। एक दिन उसका एक अभिन्न मित्र उससे मिलने आया। उसने व्यापारी से उदासी का कारण पूछा। जब उसने मित्र को इसका कारण बताया तो वह बोला-अरे, तुम इतनी-सी बात पर उदास बैठे हो। इसका तो बड़ा ही आसान-सा हल है। जल्दी बता। मित्र ने कहा-तुझे अपनी पत्नी से जो काम करवाना हो, उसे उसका उल्ट करने को कहना। तेरी समस्या हल हो जाएगी। व्यापारी ने ऐसा ही किया। जैसा व्यापारी कहता, विपरीत व्यवहार करने वाली पत्नी उसका उलटा करती। इस प्रकार वह अपनी पत्नी से अपने मनमाफिक काम करवाने लगा।
     दोस्तो, जब काम सीधी तरह से नहीं बनता तो उल्टी तरह से करना ही पड़ता है। आखिर काम तो करना है। ऐसे में कोई उल्टा चल रहा है तो उसकी वजह से काम रोककर, सिर पकड़कर तो नहीं बैठ सकते। तब कोई ऐसा तरीका ढूँढना चाहिए कि वह उल्टी खोपड़ी भी जैसा आप चाहते हैं, वैसा ही काम करने लगे। ऐसे में यदि वह आपके एकदम विपरीत चलता है, जैसा आप कहते है, उसका एकदम उलटा करता है तो आप खुद ही उससे उलटा करने को कहें ताकि वह सीधा काम करे। आप कहेंगे कि यह सब करने की ज़रूरत ही क्या? यदि किसी को हमारा व्यवहार पसंद नहीं है, उसकी हमसे पटती नहीं है तो उसे निकाल बाहर करो। आप सही कहते हैं। लेकिन यह बात किसी अधीनस्थ के लिए नहीं कही जा रही है। अधीनस्थ तो बेचारा ऐसी गुस्ताखी कर ही नहीं सकता। यह बात तो उस स्तर के व्यक्ति के लिए लागू होती है जिसका आप चाहकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते। क्योंकि या तो वह व्यक्ति आपके समान स्तर का होगा या आपसे ऊँचे पद का यानी आपका बॉस या मालिक होगा। अब यदि ऐसा कोई व्यक्ति आपकी बात मानने को तैयार नहीं है तो आपको उल्टे तरीके से ही अपनी बात मनवानी पड़ेगी न। यदि आपको लगता है कि कुछ गलत हो रहा है तो आपको उसे सही बताना होगा जिससे ये उसे गलत करार दें। इससे आपका भी काम बन जाएगा और संस्था का भी भला होगा। हालांकि यह तरीका ठीक नहीं है लेकिन जब सीधी अँगुली से घी न निकले तो अँगुली टेड़ी करनी ही पड़ती है। नीति भी इसका विरोध नहीं करती बशर्ते आप सत्य की राह पर हों। यदि आप इस मंत्र का प्रयोग गलत उद्देश्य के लिए करेंगे तो आपको परिणाम भी भुगतने पड़ेंगे।

Wednesday, February 3, 2016

घृत पीकर व्रत रखने से नहीं होता फायदा


     राजा रंतिदेव के पास से कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं लौटता था। एक बार देवताओं ने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। उस समय उनके राज्य में भयंकर सूखा पड़ा था। उन्होने अड़तालीस दिनों का कठोर उपवास किया। उपवास समाप्ति के दिन जब वे प्रसाद ग्रहण करने ही जा रहे थे कि एक ब्रााहृण उनके पास आया। उसने उनसे भोजन माँगा। उन्होने तुरंत भोजन का आधा हिस्सा उसे दे दिया। वह भोजन लेकर चला गया। इसके बाद रंतिदेव ने अपने हिस्से से कौर तोड़ा ही था कि एक किसान वहाँ आ गया। वह भी भूखा था। राजा ने बचे हुए भोजन का आधा हिस्सा उसे दे दिया। वह गया ही था कि एक व्यक्ति अपने कुत्तों के साथ आया और उनसे बोला- "राजन्! बड़ी कृपा होगी यदि खाने को कुछ मिल जाए।' राजा ने बचा हुआ सारा भोजन उसे दे दिया। सारा भोजन समाप्त होने के बाद भी रंतिदेव के चेहरे पर असीम शांति थी। अब उनके पास जल ही शेष था। उन्होने जल पीकर ही पारायण का विचार किया। लेकिन उनके पानी पीने से पहले ही एक चांडाल वहाँ आ गया। वह बहुत प्यासा था, उसने उनसे पानी माँगा। राजा ने बिना झिझके पानी का पात्र उसकी ओर बढ़ा दिया। इस पर वह बोला" आपका पात्र अपवित्र हो जाएगा और उपवास भी निष्फल हो जाएँगे।' राजा बोले-" मैने उपवास जनकल्याण की भावना से किया है। यदि मैं पानी खुद पी जाऊँगा तब निश्चित ही मेरा व्रत निष्फल हो जाएगा।' ऐसा कहकर उन्होने उसे सारा जल पिला दिया। राजा परीक्षा में खरे उतरे और देवताओं के आशीर्वाद से उनके राज्य में फिर से खुशहाली लौट आई।
     दोस्तो, इसे कहते हैं सच्चा उपवास, जिसमें सबके लिए सोचा जाता है, सिर्फ अपने लिए ही नहीं, क्योेंकि सबका कल्याण होगा तो आपका भी होगा ही। आखिर सभी में तो आप भी आ ही जाएँगे न। इसलिए आप दूसरों की सोचो, ऊपर वाला आपकी सोचेगा। यदि सिर्फ अपने भले के लिए व्रत करोगे तो वह कभी सफल नहीं होगा और अधिकतर होता भी नहीं है। फिर लोग कहते हैं कि इतने व्रत किए लेकिन क्या फायदा, फल तो मिला ही नहीं। कैसे मिलेगा फल जब व्रत स्वार्थ की भावना से किया जाएगा। वह व्रत तो अर्थहीन ही रहेगा न। जबकि सच्चा उपवास व्यक्ति को सभी इच्छाओं से मुक्ति दिलाता है।
     यह तभी संभव है जब व्यक्ति शारीरिक उपवास तक ही सीमित न रहे बल्कि वह मन और बुद्धि से भी उपवास करे। वैसे भी मन पर नियंत्रण रखे बिना व्रत किया ही नहीं जा सकता। ऐसे में व्यक्ति व्रत तो करता है, लेकिन उसका मन खाने की चीज़ों में ही रमा रहता है। ऐसे लोग फलाहार के नाम पर दिनभर कुछ न कुछ खाते रहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे लोग "करते तो व्रत है, लेकिन पीते घृत हैं।' ऐसा उपवास रखना न रखने के बराबर होता है, क्योंकि इस तरह तो व्यक्ति रोज के भोजन से भी ज्यादा मात्रा में खा जाता है।
       दूसरी ओर, व्रत रखने से कई फायदे होते हैं। इससे व्यक्ति का संयम बढ़ता है और इच्छा शक्ति यानी विल पॉवर का विकास होता है। साथ ही इससे व्यक्ति में सतर्कता और अनुशासन की भावना बढ़ती है, क्योंकि व्रत वाले दिन वह इस बात को लेकर सतर्क रहता है कि किसी कारण उसका व्रत न टूट जाए। यदि व्यक्ति नियमित उपवास रखता है तो वह उस नियम का कठोरता से पालन करता है। ऐसा व्यक्ति कार्यक्षेत्र में भी नियमों पर चलने वाला होता है। कहते हैं उपवास शुद्धि का एक महत्वपूर्ण साधन है। यह शुद्धि शारीरिक भी होती है और मानसिक भी। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी देखें तो व्रत रखने से व्यक्ति के पेट को एक दिन का आराम मिल जाता है। यानी एक तरह से पेट की सर्विसिंग हो जाती है। और वह ठीक से काम करने लगता है, जिससे अपच और गैस जैसी समस्याओं से मुक्ति मिलती है। इसलिए हम सभी को व्रत अवश्य रखना चाहिए।
     अंत में, ऐसे में आपसे अनुरोध है कि आप यह व्रत लें कि आज से आप जब भी व्रत रखें तो रंतिदेव जैसी भावना आपके भीतर हो। तभी आपको उसका फल मिलेगा वरना तो नाम मात्र के व्रत करने से तो आपका उपवास निष्फल ही जाएगा। यदि आप सच्चे दिल से यह व्रत लेकर व्रत करेंगे तो यकीन मानिए, ईश्वर आपकी सभी मनोकामनाओं को अवश्य पूर्ण करेगा।

Monday, February 1, 2016

पापी को नहीं उसके पाप को मारो..


     जापान के एक शहर में जेन आम (आश्रम) था। वहाँ वान्केई नाम के आचार्य अपने शिष्यों के साथ रहते थे। शिष्य वहाँ पर रहकर जीवन से जुड़े विभिन्न विषयों पर मार्गदर्शन लेते थे। उन्हीं में से एक शिष्य को चोरी करने की आदत थी। एक बार वह चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा गया। शिष्य उसे आचार्य के सामने ले गए। एक शिष्य बोला- "आचार्य जी, इसे हमने चोरी करते हुए पकड़ा है। इसलिए यह आम में रहने का अधिकारी नहीं है। इसे निकाल दीजिए।' शिष्यों की बात सुनकर आचार्य बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए चले गए। इस पर सभी शिष्य हैरान रह गए। उनमें से एक शिष्य चोर से बोला- "आचार्य ने इसे तुम्हारी पहली गलती समझकर माफ कर दिया है। इसलिए अब कभी चोरी मत करना वरना अबकी बार तुम्हें माफी नहीं मिलेगी। तुम्हें आम से धक्के मारकर बाहर कर दिया जाएगा।'
     लेकिन वह शिष्य नहीं सुधरा और कुछ दिन बाद एक बार फिर चोरी करते पकड़ा गया। फिर से उसे आचार्य के सामने ले जाया गया। उनकोे इस बार पूरा भरोसा था कि आचार्य इस बार उसे माफ नहीं करेंगे। वान्केई ने इस बार भी कुछ नहीं कहा। चुप खड़े रहे। उनके मौन से शिष्यों के मन में तरह-तरह के विचार उठने लगे। एक शिष्य से जब रहा नहीं गया तो वह बोल पड़ा- "आचार्य, यदि आपने इस चोर को आम से तत्काल बाहर नहीं किया तो हम सभी आम छोड़कर चले जाएँगे। हम एक चोर के साथ नहीं रह सकते।' सभी शिष्य उसकी बात से सहमत थे। यह देखकर आचार्य अपना मौन तोड़कर बोले- "तुम सभी समझदार हो और जानते हो कि अच्छा क्या है और बुरा क्या। इसलिए तुम कहीं पर भी जाकर शिक्षा ग्रहण कर सकते हो। लेकिन इसको तो अभी भी भले-बुरे का भेद समझना शेष है। यदि यह सब मैं इसे नहीं सिखाऊँगा तो कौन सिखाएगा? इसलिए अब यह आप पर निर्भर है कि आप क्या निर्णय लेते हैं। मैं तो इसे यहाँ से बाहर नहीं करूँगा बल्कि इसकी बुरी आदत को बाहर निकालने में इसका सहयोग करूँगा। सभी शिष्यों को बात समझ में आ गई।
     दोस्तो, जिसे यह पता है कि चोरी करना गलत बात है, उससे ज्यादा तो चोर को शिक्षित करने की आवश्यकता है। यदि आप उसे बाहर कर देंगे तो उसे सुधरने का मौका ही नहीं मिलेगा। तब तो उसकी चोरी करने की आदत कभी नहीं छूटेगी। कहा भी गया है कि गलती करने वाले को सुधरने का एक मौका ज़रूर देना चाहिए। हाँ, पर मौका देते समय उसे इस बात का अहसास अवश्य कराना चाहिए कि उसे एक अवसर दिया जा रहा है। जिससे वह यह जान ले कि अवसर देने वाले से कुछ भी छिपा नहीं है। यदि वह चुप है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह कुछ जानता नहीं। यह चुप्पी ही उसके लिए सुधरने का एक मौका है। यदि ऐसे में वह सच्चे दिल से निर्णय कर अपनी कारस्तानियों से बाज आ जाता है और दिल से सुधर जाता है तो इससे अच्छी बात क्या होगी। किसी राह या लाइन से भटके इंसान को लाइन पर लाने का यही तरीका सबसे श्रेष्ठ है। दंड तो उसे राह से और भी भटका देगा। फिर तो वह सुधरने की बजाय और भी बिगड़ता चला जाएगा।
     यदि आपकी संस्था में भी कोई ऐसा व्यक्ति है जो ऐसी गलती कर चुका है, या करता जा रहा है तो आप उसे एक बार भी समझाए या चेताए बिना अपनी संस्था से निकाल देते हैं तो यह गलत होगा। पहले आप पास बिठाकर उससे बात करें, उसे समझाएँ कि वह जो कर रहा है, वह गलत है और आप यह बात जानते हैं। फिर उसे एक अवसर दें। इस तरह आप किसी व्यक्ति को संस्था से बाहर करने के पहले उसे अवसर देते हैं कि वह अपने दुर्गुणों को निकाल बाहर करे। इसके बाद देखें कि क्या वह वास्तव में सुधर गया है या आपको दिखाने के लिए अभिनय कर रहा है। यदि उसे वास्तव में अपनी गलती का अहसास हो गया हो तो फिर आप मान लें कि आपके लिए उससे श्रेष्ठ कर्मचारी हो ही नहीं सकता, क्योंकि फिर तो उसके  मन में आपके लिए सम्मान की भावना भी उत्पन्न हो जाएगी। और वह संस्था के लिए पूरी निष्ठा से काम करेगा। हाँ, यदि मौका दिए जाने के बाद भी वह नहीं सुधरता और कुछ दिन ठहरकर फिर से अपना रूप दिखाने लगता है तो फिर वह आदतन बुरी प्रवृत्ति का है और ऐसे व्यक्ति को तो दंडित करना ही चाहिए। इसलिए बेहतर है कि मिले हुए मौके का फायदा उठाकर अपने आपको सुधार लिया जाए।

निमित्त हो, खुद को निर्मित मत करो


     विनोबा भावे की माँ रखुबाई बहुत ही सद्चरित्र और सह्मदय महिला थीं। विनोबा भावे के व्यक्तित्व पर उनका बहुत प्रभाव था। उनके घर पर हर समय एक-दो ज़रूरतमंद विद्यार्थी रहते थे। वे उन्हें भोजन भी कराती और पढ़ाई-लिखाई में भी पूरा सहयोेग करतीं। वे उन बच्चों के साथ कभी परायों जैसा व्यवहार नहीं करती थीं, बल्कि उन्हें भी अपने बच्चे की तरह मानतीं, स्नेह करतीं। वे उन बच्चों को कभी भी बासी रोटियाँ नहीं खिलाती थीं। बासी रेटियाँ या तो वे खुद खाती या विनोबा को दे देती थीं। इस पर एक दिन चिढ़कर विनोबा बोले-"माँ, तुम कहती हो कि सबमें एक ही भगवान बसते हैं। किसी से भी भेदभाव नहीं करना चाहिए। तुम सबको एक ही दृष्टि से देखती हो, लेकिन यहाँ तुम हमारे साथ ही भेदभाव करती हो। उन विद्यार्थियों को तो तुम हमेशा ताज़ी रोटी बनाकर ही खिलाती हो और जब भी बासी रोटी बचती है, वह मुझे दे देती हो। तुम ऐसा क्यों करती हो?' इस पर रखुबाई बोली-" बेटा, सही कहता है तू। मैं तुझसे भेदभाव करती हूँ, क्योंकि अभी भी मेरा मोह नहीं गया है। तेरे अंदर मुझे अभी भी अपना पुत्र नज़र आता है और उन विद्यार्थियों में मैं अपने आराध्य ईश्वर को देखती हूँ। इसलिए तुझ पर अपना अधिकार समझकर बासी रोटी दे देती हूँ। जिस दिन तू भी बेटे जैसा नहीं दिखेगा, तुझे भी हमेशा ताज़ी-ताज़ी रोटियाँ बनाकर खिलाऊँगी।' विनोबा को माँ की बात समझ में आ गई और उनकी शिकायत दूर हो गई। उनके मनमें अपनी माँ के प्रति आदर और भी बढ़ गया।
     दोस्तो, दूसरों की सेवा-सहायता करने में यही भाव होना चाहिए, जहाँ दूसरों को अपने से भी बढ़कर समझा जाए और उनकी तकलीफों को अपना समझा जाए। लेकिन समाजसेवा करने वाले बहुत कम लोग सेवा करते समय ऐसा दृष्टिकोण रखते हैं। उनके लिए तो अपना अपना होता है और पराया पराया। उनका सेवाभाव रखुबाई से एकदम विपरीत भाव लिए होता है। जहाँ वे सेवा भावना से सेवा नहीं करते बल्कि इसलिए करते हैं कि उन्हें इसके माध्यम से मेवा मिलता है और जिनकी वजह से वे मेवा खाते हैं, उनको खिलाते हैं सूखी-बासी रोटियाँ। इस तरह समाजसेवा इनके लिए सेवा नहीं धंधा होती है। निश्चित ही आप भी ऐसे कई धंधेबाजों को जानते होंगे जो बने ही इस सेवा के धंधे से हैं और जिनके नाम पर ये बने हैं, उन्हें तो यह अहसास भी नहीं है कि ये इनके सामने दो-चार सूखी रोटियाँ डालकर खुद घी पी रहे हैं। आप कहेंगे कि समाजसेवा में घी कैसा? अरे भाई, समाजसेवा के नाम पर मिलने वाली सहायता राशि, दान-दक्षिणा, चंदा आदि कहाँ जाता है? उसका हिसाब-किताब किसके पास है? किसी के पास नहीं।
     यदि आप भी ऐसी ही सेवाओं में लिप्त हैं तो हम आपसे कहना चाहेंगे कि एक न एक दिन इसका आपको हिसाब देना ही होगा। यहाँ नहीं तो वहाँ तो हिसाब देना ही पड़ेगा। इसलिए बेहतर है कि ऐसी नौबत आने से पहले ही ज़रूरतमंदों को ईश्वर का रूप समझकर, उन्हें अपना समझकर, उनकी सहायता करें, सेवा करें। जो जिसका है, उसे उस तक पहुँचाएं भी। आप किस्मत वाले हैं कि ऊपर वाले ने आपको सेवा करने के लिए निमित्त बनाया है। इसलिए निमित्त ही बने रहें, अपने आपको निर्मित करने में न लग जाएँ। यानी सेवा के नाम पर धन-दौलत न बटोरने लगें।