Friday, March 25, 2016

समझदार को इशारा ही काफी है


     शेखचिल्ली जब छोटा था तो उसकी माँ ने उससे कहा कि बेटा, बाज़ार जाकर अठन्नी का तेल ले आ। तेल लाने के लिए उन्होंने शेखचिल्ली के हाथ में एक गिलास और अठन्नी दे दी। शेखचिल्ली दुकान पर पहुँचा। और दुकानदार से बोला- लाला, अठन्नी का खाने का तेल दे दो। ऐसा कहकर उसने पैसे और गिलास लाला के हाथ में दे दिए। लाला ने गिलास में तेल भर दिया। लेकिन गिलास छोटा था इसलिए उसमें सिर्फ छह आने का तेल ही आया। दो आने का तेल बाकी रह गया। लाला ने शेखचिल्ली से कहा-साहबजादे, तुम्हारा गिलास तो सिर्फ छह आने के तेल में ही भर गया। अब बाकी के तेल का क्या करूँ। तुम्हारे दो आने बच गए हैं। बोलो, उनका क्या दूँ? शेखचिल्ली-अरे! दो आने बच गए। लाला-हाँ मियाँ, कहो तो इनका कुछ दे दूँ या फिर दो आने वापस ले जाओ। शेखचिल्ली-नहीं लाला, पैसे वापस ले जाऊँगा तो माँ मारेगी क्योंकि उसने तेल मँगाया है, पैसे नहीं। इस पर लाला बोला-तो फिर कुछ और चीज़ ले लो। शेखचिल्ली-नहीं, माँ ने सिर्फ तेल मँगाया है। वह भी पूरे आठ आने का। तो फिर दूसरा बर्तन लाए हो? लाला ने पूछा। शेखचिल्ली-नहीं, माँ ने तो इसी गिलास में लाने को कहा है। लाला चिढ़कर बोला-अरे बेटा, जल्दी बता क्या करना है? मेरे पास इतना समय नहीं है कि दो आने के लिए इतनी मगज़मारी करूँ। और भी ग्राहक खड़े हैं। शिखचिल्ली-गुस्सा न करो लाला, मैने उपाय सोच लिया है।
     इसके बाद शेखचिल्ली ने गिलास को उलट दिया, जिससे गिलास में भरा तेल लाला के कनस्तर में गिर गया। तब शेखचिल्ली बोला-देखो लाला, इस गिलास की पेंदी कितनी गहरी है। इसमें दो आने का तेल आ जाएगा। हो गया ना अपनी समस्या का हल। अब जल्दी भरो, माँ इंतज़ार करती होगी। बहुत समय हो चुका है। शेखचिल्ली की बेवकूफी पर लाला को बहुत आश्चर्य हुआ। लेकिन उसने सोचा कि इसमें अपना क्या जाता है। उसने बाकी बचा तेल गिलास की पेंदी में भर दिया, जिसे लेकर शेखचिल्ली बड़ी ही प्रसन्नता के साथ घर लौटा। माँ ने गिलास में थोड़ा-सा तेल देखा तो उससे पूछा-इतना-सा तेल ही लाया है, वह भी पेंदी में भरवाकर। लगता है लाला ने तुझे ठग लिया। आठ आने में तो गिलास भर के तेल आता है। शेखचिल्ली बोला-नहीं माँ, लाला ने ठगा नहीं है। बाकी का तेल तो इसी गिलास में है। माँ बोली-इसी गिलास में कहाँ है? इस पर शेखचिल्ली ने गिलास को सीधा कर दिया। इससे पेंदी में भरा तेल भी गिर गया। बाकी का तेल तो वह पहले ही उड़ेल आया था। बेटे की मूर्खता पर माँ ने अपना सिर पीट लिया और आसमान की ओर देखते हुए बोली-या खुदा, मैने तेरा क्या बिगाड़ा था जो तूने मुझे इतनी मूर्ख औलाद दी। इस पर शेखचिल्ली बोला-माँ, मैने कौन-सी मूर्खता की? एक तो छोटा गिलास दिया और आठ आने का तेल मँगवाया। मुझे यह भी नहीं बताया कि पैसे बच जाएँ तो उनका क्या करूँ। पहले खुद ही मुझे ठीक तरह से बताती नहीं हो, ऊपर से खुदा से शिकायत भी करती हो। शेखचिल्ली की बात सुनकर माँ उसका मुँह देखती रह गई। और वह कर भी क्या सकती थी।
     दोस्तो, यह है किसी को भी कोई भी बात पूरी तरह से न समझाने का नतीज़ा। अकसर हम किसी भी व्यक्ति को पूरी तरह से बात समझाए बिना ही काम पर लगा देते हैं। हम सोचते हैं कि उसे हमारी बात पूरी तरह से समझ में आ गई होगी। लेकिन यह हमारी गलतफहमी होती है। दरअसल उसे आधी-अधूरी बात ही समझ में आई होती है और उसके आधार पर ही वह काम करना शुरु कर देता है। फिर क्या है, होता वही है जो होना चाहिए। यानी काम बनने की बजाय बिगड़ जाता है। तब आप सिर पकड़कर बैठने के सिवाय कुछ नहीं कर पाते क्योंकि जो बँटाढार होना था, वह तो पहले ही हो चुका होता है।
     यदि आप ऐसी स्थिति से बचना चाहते हैं तो हमेशा किसी भी बात को समझाने से पहले यह देख लें कि समझने वाले का बौद्धिक स्तर क्या है। यदि वह समझदार है और आपकी बात को कम शब्दों में ही समझ लेता है तो उसे कम शब्दों में समझाना उचित है। लेकिन यदि व्यक्ति कम समझदार है तो उसे काम के बारे में पूरी जानकारी दें कि आप क्या चाहते हैं और कैसे चाहते हैं। बात बताने के बाद उससे एक बार पूछकर तसल्ली भी कर लें कि आप जो कहना चाहते हैं, वह समझा कि नहीं। इससे आप बाद की परेशानियों से बच जाएँगे। यही तरीका आपको अपने साथ जुड़ने वाले किसी भी नए आदमी के साथ अपनाना चाहिए, फिर भले ही वह कितना ही समझदार क्यों न हो। क्योंकि नए व्यक्ति को आपके व्यक्तित्व, आपकी बातों को समझने में समय लगेगा। जब वह समझने लगेगा तो फिर कहने की तो छोड़ो, वह इशारों में ही काम समझने लगेगा। वो कहते हैं न कि समझदार के लिए तो सिर्फ इशारा ही काफी होता है।
    यही कारण है कि हम हमेशा ऐसे लोगों के साथ काम करना पसंद करते हैं जो हमारी बातों को इशारों में ही समझकर काम कर दें, इसलिए यदि आप अपने अधिकारी या बॉस का विश्वास जीतना चाहते हैं तो उनके इशारों को समझना सीखें। यदि आपने इन्हें समझ लिया तो आप कभी शेखचिल्ली जैसी गलतियाँ करके सारा किया-धरा यूं ही मिट्टी में नहीं मिलवा देंगे। यानी कोई गलती नहीं करेंगे। आप अच्छी तरह समझ गए न कि हम क्या कहना चाहते हैं? अरे भाई, बातों कोे इशारों में समझना सीखो।

Thursday, March 24, 2016

बदलती परिस्थितियों में भी बनाए रखें संतुलन


      बहुत समय पहले की बात है। एक राज्य का राजा बहुत ही विद्वान और न्यायप्रिय था। उसकी मंत्री परिषद में भी हर क्षेत्र के एक से बढ़कर एक निपुण मंत्री थे। इस कारण राजा के दरबार में जब भी कोई गुहार लगाता तो उसे पूरा न्याय मिलता था, क्योंकि सारे निर्णय बुद्धिमत्ता की कसौटी पर परख कर लिए जाते थे और सही साबित होते थे।
     धीरे-धीरे राज दरबार की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। ख्याति फैलते-फैलते दूर देश के एक जौहरी के कानों तक पहुँची। जौहरी यूँ तो रत्नों का व्यापारी था लेकिन था वह बहुत ही बुद्धिमान। उसे विद्वानों से सत्संग करने में बहुत आनंद मिलता था।
     राज दरबार की ख्याति सुनकर ऐसे विद्वानों के सत्संग का लाभ उठाने से वह अपने आपको रोक नहीं पाया। लेकिन उसने सोचा कि पहले वह यह तो तय कर ले कि दरबारी वाकई विद्वान है भी या नहीं। हो सकता है कि दरबार की ख्याति झूठी हो। इसके लिए उसने तय किया कि पहले वह राजा के दरबारियों की परीक्षा लेगा।
     ऐसा विचार कर वह उस राज्य की ओर निकल पड़ा। कई दिनों की यात्रा के बाद वह उस राज्य में पहुँचकर एक सराय में ठहर गया। अगले दिन प्रातः वह तैयारी के साथ सीधे राज दरबार पहुँचा। राज दरबार में राजा का अभिवादन करता हुआ बोला- राजन्! मैं आपके दरबार की ख्याति सुनकर बहुत दूर से आपके दर्शनों के लिए आया हूँ। आप और आपके दरबारियों की विद्वता का यश चारों ओर फैला हुआ है। लेकिन मेरी एक समस्या है। यदि आज्ञा हो तो कहूँ। उसकी बात सुनकर राजा ने कहा-आज्ञा है, निडर होकर कहें। इस पर वह बोला- राजन्! मैं एक जौहरी हूँ। इस कारण जब तक किसी वस्तु को अपनी कसौटी पर कस के नहीं देख लेता, उसकी सत्यता पर विश्वास नहीं करता। इसी तरह जब तक आपके दरबारियों को परख न लूँ, मैं उन्हें विद्वान नहीं मान सकता। और इसके लिए मैं आपके दरबारियों की विद्वत्ता की परीक्षा लेना चाहता हूँ।
    राजा ने कहा- कैसी परीक्षा लेना चाहते हैं? जौहरी बोला- हुज़ूर! मेरे पास हीरों की एक जोड़ी है। दोनों हीरे बिल्कुल एक जैसे दिखते हैं। इसमें से केवल एक असली है। यदि आपके दरबारियों में से किसी ने इस असली-नकली की पहचान कर ली तो मुझे इस दरबार की ख्याति पर विश्वास हो जाएगा। जौहरी की बात सुनने के बाद राजा ने कहा-ठीक है। हमें तुम्हारी चुनौती स्वीकार है।
     इसके बाद हीरे एक ऊँची जगह पर रख दिए गए। राजा ने अपने दरबारियों से इस पहेली को हल करने के लिए कहा। एक के बाद एक दरबारी हीरों के पास जाते और उन्हेंं उठाकर अपनी तरह से उनका परीक्षण करते। लेकिन असली हीरा पहचानने में कोई भी सफल नहीं हो पा रहा था। जो कार्य प्रारंभ में आसान-सा लग रहा था, वह अब दुष्कर प्रतीत हो रहा था। इस प्रकार कई घंटे बीत गए। सुबह से दोपहर हो गई लेकिन किसी को सफलता नहीं मिली। बढ़ती गर्मी के साथ ही दरबार का माहौल भी गर्म हो चला था। जौहरी के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान दिखाई देने लगी थी। उसने राजा से कहा, लगता है आपके दरबार में कोई पारखी दृष्टि वाला व्यक्ति नहीं है और मेरे हाथ निराशा ही लगेगी। इससे पहले कि राजा कुछ बोलते, दरबार में उपस्थित एक बूढ़ा व्यक्ति बोला-ठहरिए महाशय! इतनी जल्दी निर्णय न करें। पहले मुझे कोशिश करके देख लेने दें। जौहरी ने घूमकर बूढ़े व्यक्ति की ओर देखा और हँस दिया। वह बूढ़ा व्यक्ति अँधा था। जौहरी बोला- बाबा! जब आँखों वाले असली हीरा नहीं पहचान पाए तो आप दृष्टिहीन होकर कैसे हीरा पहचान सकते हैं?
     इस पर वृद्ध व्यक्ति ने बड़ी ही सहजता से जवाब दिया- बंधु! पहले आप मुझे प्रयास करने दें। इसके पश्चात् ही मैं आपके प्रश्न का उत्तर दूँगा। ऐसा कहकर अपने साथी दरबारी की सहायता से वह वृद्ध व्यक्ति उस जगह तक पहुंचा जहाँ हीरे रखे थे। उसने दोनों हीरों को अपने हाथ में उठा लिया और बिना देरी किए बोला- मेरे सीधे हाथ में जो हीरा है, वह असली है और उल्टे हाथ का हीरा नकली है। वृद्ध की बात सुनकर जौहरी आश्चर्य में पड़ गया और बोला- बाबा! एकदम सही पहचाना आपने। लेकिन यह तो बताएँ कि आप अंदाज से बोल रहे हैं या इसका कोई आधार भी है। जौहरी की बात सुनकर वृद्ध बोला- श्रीमान्! असली हीरा पहचानना बहुत आसान काम था। असली हीरे पर वातावरण में परिवर्तन का प्रभाव नहीं होता, जबकि नकली हीरा वातावरण का तापमान बढ़ने या घटने से गर्म या ठंडा हो जाता है। इसलिए जैसे ही मैने हीरों को हाथ में लिया तो मुझे असली-नकली का पता चल गया, क्योंकि नकली हीरे का तापमान दोपहर की गर्मी के कारण बढ़ चुका था यानी गर्म था। जबकि असली हीरे पर तापमान का कोई प्रभाव नहीं था। और इसे परखने में मेरी दृष्टिहीनता आड़े नहीं आई, क्योंकि तापमान का पता, दृष्टि से नहीं, स्पर्श से लगाया जा सकता है। वृद्ध की बातें सुनकर जौहरी उनके पैरों में गिर पड़ा और अपनी धृष्टता के लिए क्षमा माँगता हुआ बोला कि मेरी किसी बात से आपको ठेस पहुँची हो तो मुझे क्षमा करें। यह सब मेरी परीक्षा का ही अंग था। आप जैसे विद्वान से भेंट कर मैं धन्य हुआ। इस पर राजा ने कहा कि ये वृद्ध और कोई नहीं, इस राज्य के राजगुरु हैं और इनके कुशल मार्गदर्शन में ही हम सब राजकाज चलाते हैं। राजा की बात सुनकर जौहरी ने उनसे कहा कि राजन्! अब मुझे विश्वास हो गया कि आपके दरबार की जो ख्याति चारों ओर फैली है, वह वाकई सच्ची है।
     ये कहानी हमें बताती है कि वातावरण के परिवर्तनों से जो अप्रभावित रहता है, वही असली हीरा है। यही बात व्यक्तियों पर भी लागू होती है। जो बदलती परिस्थितियों में भी संतुलन बनाए रखता है, वही व्यक्ति सही मायनों में असली या सच्चे हीरे की तरह है। ऐसे हीरे को कौन सहेजकर नहीं रखना चाहेगा। इसलिए आज से ही अपना आंकलन शुरु कर दें। देखें कि कहीं परिस्थितियाँ आपके संकल्पों को प्रभावित तो नहीं कर रहीं। यदि कर रही हैं तो उन पर विराम लगाएँ, क्योंकि आपको नकली हीरा साबित नहीं होना है। आपको बनना है सच्चा हीरा। इसलिए आज का मंत्र यह है कि "बदलती परिस्थितियों से अप्रभावित रहोगे तो बनोगे सच्चे हीरे।' तो जल्द से जल्द  सच्चा हीरा बनें और फिर कॅरियर की चिंता ज़्यादा न करें, क्योंकि संस्था में बैठे हैं पारखी दृष्टि रखने वाले हीरे के कद्रदान। वे आपको परख ही लेंगे।

Wednesday, March 23, 2016

वारिस होना ही गद्दी के लिए काफी नहीं


   अनाज के एक व्यापारी से एक दिन उसका बेटा बोला-पिताजी, मैं अब व्यवसाय में आपका हाथ बँटाना चाहता हूँ। व्यापारी बोला- ठीक है। कल से दुकान पर आ जाना। अगले दिन से वह तैयार होकर दुकान पर जाने लगा। व्यापारी उससे छोटे-मोटे सभी काम करवाने लगा। बेटे को यह ठीक नहीं लगता था। वह चाहता था कि उसे कोई बड़ी ज़िम्मेदारी दी जाए। उसने इस बारे में कई बार अपने पिता से कहा लेकिन व्यापारी हर बार टालता जा रहा था। एक दिन व्यापारी कहीं गया हुआ था कि लड़का जाकर उसकी गद्दी पर बैठ गया और नौकर से बोला- मेरे लिए पानी लाओ। चूँकि मालिक का लड़का था, इसलिए नौकर भाग कर पानी ले आया। तभी व्यापारी दुकान पर आ गया। इसके पहले कि नौकर पानी का गिलास उसके बेटे को देता, व्यापारी उसे रोकते हुये बोला- ठहरो, यह पानी का गिलास वापस ले जाओ। जब नौकर चला गया तो वह मुनीम से बोला-मुनीमजी इसे यहां बैठने की इजाजत किसने दी? मुनीमजी- भैयाजी सीधे आकर बैठ गए। व्यापारी- तो आप यहाँ क्या कर रहें थे? कल से कोई भी यहाँ आकर बैठ जायेगा और आप ऐसे ही देखते रहेंगे? मुनीम- मालिक भैयाजी की बात अलग है। ये तो इस गद्दी के वारिस हैं। व्यापारी- नही मुनीम जी, ये वारिस हो सकते है। लेकिन गद्दी पर बैठने के अधिकारी नहीं। इसके लिए पहले इन्हे खुद को साबित करके दिखाना होगा। तब तक व्यापारी का बेटा गद्दी से उतर चुका था। वह अपने पिता से बोला-पिताजी मै इतने दिनों से दुकान पर आ रहा हूँ। आप जो भी काम मुझसे करवाते हैं, वह मै सफलता पूर्वक करता हूँ। और मुझे क्या साबित करना होगा? मै अब कोई भी बड़ी जिम्मेदारी उठा सकता हूँ, लेकिन आप मौका ही नहीं देते।
     व्यापारी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और वह अपनी गद्दी पर बैठ गया। शाम को व्यापारी अपनी गद्दी से उठा और बेटे से बोला- चलो तुम्हें घुमाकर लाऊँ। दोनो साथ साथ घूमने निकल पडे़। बेटे के दिमाग में अब भी सुबह वाली घटना घूूम रही थी। वह कुछ बोल नही रहा था। चलते-चलते वे एक कुम्हार के घर पहुँचे। कुम्हार उस समय बर्तनो को आग में पका रहा था। आग धीरे धीरे सुलग रही थी। व्यापारी उससे बोला-अरे, तुम आग तेज क्यों नहीं करते। इससे तुम्हारे बर्तन जल्दी पक जायेंगे। कुम्हार बोला-नहीं लालाजी, आग तेज कर दी तो बर्तन चटक जायेंगे। इसलिए इन्हें धीरे-धीरे ही पकाया जाता है। धीमी आँच से ही इनमें चमक भी आ जाती है, वरना जलने जैसा निशान पड़ जाता है। इस पर व्यापारी अपने बेटे से बोला-बेटा जिस गद्दी पर तुम बैठना चाहते हो, उस पर बैठने से पहले तुम्हे भी इस मिट्टी के बर्तनो की तरह पकना होगा। जल्दबाजी करोगे तो उसी तरह चटक जाओगे जैसे तेज आंच में मिट्टी के बर्तन चटक जाते हैं। बेटे को बात समझ में आ गई और उसकी उदासी जाती रही। इसके बाद दोनों खुशी खुशी लौट आए।
     क्या बात है! उस व्यापारी ने अपने बेटे को कितने सही तरीके से अपने मन की बात समझा दी। निश्चित ही वह एक दिन उसका नाम रोशन करेगा, क्योंकि वह सीधे "बड़े बाप की औलाद' की तरह गद्दी पर नहीं बैठेगा। वह पहले हर स्तर के व्यक्ति के साथ काम करके अपने व्यवसाय की बारीकियों को समझेगा। अभी तो उसे अनुभवों की अग्नि में पकना है। कहते है ना कि आग में तपकर ही सोना कुन्दन बनता है। जब वह खुद संघर्ष करेगा तो समझेगा कि व्यवसाय कैसे चलता है। तभी वह जिम्मेदारीयों का भार कुशलता पूर्वक उठा पायेगा। इसलिए आप भी अपने बेटे को अपने व्यवसाय में भागीदार बनाने जा रहें हैं तो पहले उसे अपने व्यवसाय से संबंधित बारीकियों और ज़मीनी अनुभवों से गुजरने दें। उसे तपाएँ और इस काबिल बनाएँ कि वह अपनी जिम्मेदारीयों को समझ सके और उनका भार कुशलतापूर्वक उठा पाएगा। वरना यदि आपने उस पर एकदम जिम्मेदारियों का बोझ लाद दिया तो अनुभव हीनता के चलते वह उन्हे सह नही पायेगा और असफल हो जायेगा। हम जानते है कि आप निश्चित ही ऐसा नहीं चाहेंगे। तो फिर देर किस बात की? आज से ही आप भी तपाना शुरू कर दें अपनी गद्दी के वारिस को।

Monday, March 21, 2016

दुत्कार कर नहीं पुचकार कर सुधारें


     एक बार ईसा मसीह कुछ दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों के साथ बैठकर भोजन कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देखकर वहाँ उपस्थित लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ। उनकी नज़र में यह बहुत ही आपत्तिजनक बात थी। उन्होने ईसा मसीह के शिष्यों के सामने अपनी नाराज़गी जताई। वे बोले-तुम्हारा यीशु बातें तो बड़ी-बड़ी करता है, सही राह पर चलने का रास्ता बताता है और खुद गलत राह पर चलने वाले लोगों के साथ बैठकर खाता-पीता है। ऐसा नहीं होना चाहिए।
     शिष्यों ने जाकर यह बात यीशु को बताई। इस पर वे आपत्ति करने वाले लोगों के पास जाकर बोले-मैंने आपकी बात सुनी। इस बारे में मैं आप लोगों से कुछ कहूँ, इसके पहले आप मेरे एक सवाल का जवाब दीजिए। वह यह कि हकीम की सबसे ज्यादा ज़रूरत किसको होती है, एक अच्छे-भले सेहतमंद इन्सान को या फिर किसी बीमार को? सभी एक साथ बोले-सीधी-सी बात है, बीमार को। उनका जवाब सुनकर ईसा मसीह बोले- तो फिर मैं क्या गलत कर रहा हूँ। मैं भी इन दुर्जनों और अवाँछनीय लोगों के बीच बैठकर इसीलिए तो खाता-पीता हूँ, क्योंकि ये रोगी हैं और इन्हें हकीम की आवश्यकता है।
     दोस्तो, सही तो है। जो सही मार्ग से भटककर गलत राह पर चल पड़े हैं, बुरे कर्म करने लगे हैं, वे रोगी ही तो हैं। वे भी किसी वायरस की तरह समाज रूपी शरीर को अस्वस्थ कर सकते हैं, करते रहते हैं। यदि आप समाज को स्वस्थ प्रसन्न देखना चाहते हैं तो केवल अच्छी-अच्छी बातें करने से काम नहीं चलता। इसके लिए ज़रूरत है कि जो लोग राह भटक गए हैं, उन्हें सही राह दिखाई जाए। इसके लिए आपको उनके साथ उठना-बैठना पड़ेगा और उन्हें प्यार से समझाना पड़ेगा कि वे जो कर रहे हैं, वह गलत है। तभी तो वे आपकी बातों को सुनेंगे, समझेंगे और उन पर अमल करेंगे। इसकी बजाय यदि आप दूर से बैठकर ही उन्हें उपदेश देंगे तो फिर आपकी बात उन तक तो पहुँचने से रही। कुछ लोग मानते हैं कि गलत प्रवृत्ति के लोग दुत्कारने पर ही सुधरते हैं। नहीं, यह सोच बिलकुल सही नहीं है। इससे तो अधिकतर बात बनने की बजाय बिगड़ती ही है। यदि आप किसी को दुत्कार कर समझाने की बजाय उसे पुचकार कर समझाएँगे तभी वह आपकी बात पर ध्यान देगा और खुद को बदलने की कोशिश भी करेगा। इसलिए कभी भी किसी को नफरत की दृष्टि से मत देखो, नफरत से देखो उसकी बुराई को, उसके दुर्गुणों को। क्योंकि यदि वह दुर्गुुण उस व्यक्ति के अंदर नहीं होता तो फिर वह व्यक्ति भी आपके जैसा ही होता न। तो दुर्गुण को एक रोग समझकर और उससे पीड़ित व्यक्ति को रोगी समझकर उसका उपचार करें। जैसा कि यीशु और उनके ही जैसे महापुरुष करते आए हैं।
     दूसरी ओर, कुछ लोग यह सोचकर दुर्जनों या गलत लोगों से दूरी बनाकर रखते हैं कि यदि उनके नज़दीक जाएँगे तो उनकी संगत का असर हो सकता है, उनकी बुरी आदतों का वे भी शिकार हो सकते हैं। ऐसा सोचने वाले निश्चित ही डाँवाडोल प्रवृत्ति के होते हैं। उन्हें खुद पर भरोसा नहीं होता। तभी तो वे ऐसा सोचकर करते हैं। यदि उन्हें खुद पर भरोसा होता तो मजाल है कि दूसरों की बुरी आदतें उन्हें छू भी जाएँ। इसलिए सकारात्मक तरीके से सोचो कि जब आप सामने वाले से घुलोगे-मिलोगे तो आपके सद्गुणों का प्रभाव उन पर पड़ेगा। हो सकता है वे सुधर जाएँ और सही राह पर चल निकलें। यदि ऐसा हो गया तो आपकी ओर से समाज के लिए इससे अच्छी सौगात कुछ और हो ही नहीं सकती। इसलिए कभी भी न तो सामने वाले की और न ही अपनी बुराई से भागो। क्योंकि बुराई भागने से नहीं सामना करने से खत्म होती है। वैसे ही जैसे कि आप यह सोचें कि आप अपनी बीमारी से भागकर उससे मुक्ति पा सकते हैं, यह तो हास्यस्पद बात ही है। उससे मुक्ति तो उपचार से ही संभव है। ऐसे ही व्यक्ति के दुर्गुण रुपी रोग को सद्गुण रूपी औषधि से ही खत्म किया जा सकता है।

Saturday, March 19, 2016

व्यक्तित्व की श्रेष्ठ योग्यता, कुशल नेतृत्व क्षमता


     कुछ समय पहले की बात है। मोहन नाम का एक व्यक्ति खरीदी करने नगर में लगने वाले साप्ताहिक हाट में गया। जब वह हाट में  घूम रहा था तो उसकी दृष्टि एक तोते वाले पर पड़ी, जिसके पास एक ही प्रजाति के कई तोते थे। उसे देखकर मोहन के मन में विचार आया कि क्यों न मैं एक तोता खरीदकर अपने घर ले जाऊँ। तोते को देखकर बच्चे खुश हो जाएँगे। ऐसा सोचकर वह तोते वाले के पास पहुंचकर बोला, क्या कीमत है तोते की? तोते वाला बोला हुज़ूर! सभी तोतों की कीमत अलग-अलग है। आपको किस तोते की कीमत बताऊँ? मोहन बोला लेकिन तुम्हारे सारे तोते तो एक ही प्रजाति के हैं, फिर कीमत अलग अलग क्यों? जी हुज़ूर! कीमतें तोतों की शिक्षा और योग्यता के अनुसार हैं। तोते वाला बोला। उसकी बात सुनकर मोहन ने बड़ी ही जिज्ञासा से पूछा क्या शिक्षा और योग्यताएँ हैं इनकी?
     इस पर तोते वाला बोला- सा'ब! नीचे की पंक्ति वाले तोते मैट्रिक पास हैं। ये सभी की सेवा बहुत अच्छी तरह से करते हैं। इनकी कीमत है पचास रूपए। उसके ऊपर वाली पंक्ति के तोते बीए पास हैं। ये अपना सारा काम बड़ी ही मेहनत से करते हैं। इनकी कीमत है सौ रूपये। उसके भी ऊपर की पंक्ति के तोते एमए पास हैं। ये अपना कार्य मेहनत के साथ-साथ सलीके से भी करते हैं। इनकी कीमत दो सौ रूपये और ऊपर की पंक्ति के तोते एमबीए हैं। किसको क्या काम करना चाहिए और कैसे करना चाहिए, ये इसकी योजना बनाते हैं। इनकी कीमत है पाँच सौ रूपये। और सबसे ऊपर की पंक्ति पर जो एक तोता बैठा है, उसकी कीमत है पाँच हज़ार रूपये। पाँच हज़ार रूपये? ऊपर वाले तोते की कीमत सुनकर मोहन आश्चर्य से बोला, क्या यह तोता बाकी सब तोतों से ज़्यादा शिक्षित है और सभी के बराबर अकेला काम करता है?'
     इस पर तोते वाला बोला इसकी शिक्षा के बारे में तो नहीं मालूम, लेकिन इसकी कीमत इसलिए ज़्यादा है, क्योंकि बाकी सभी तोते इसे "सर' कहते हैं। कुछ रूककर वह आगे बोला इसकी एक आवाज़ पर सारे तोते कोई भी कार्य करने को तैयार हो जाते हैं और बड़ी से बड़ी समस्या का मिल-जुलकर सामना करते हैं। इस प्रकार इसके अंदर है नेतृत्व का गुण। अब आप तो समझते हो ना सा'ब। यह गुण तो अनमोल है। मैं तो सिर्फ पाँच हज़ार रूपए माँग रहा हूँ।
     अब मोहन ने तोता खरीदा कि नहीं, यह तो हमें नहीं मालूम, लेकिन जो हमें चाहिए था, वह हमें मिल गया। वैसे भी आज की कहानी सांकेतिक है। अकसर लोग किसी व्यक्ति की नेतृत्व क्षमता को कम करके आँकते हैं, जब कि यह क्षमता अनमोल होती है। इस बात को और अच्छी तरह चार्लस श्वेब के उदाहरण से समझा जा सकता है।
     श्वेब की गिनती दुनियां के सर्वाधिक वेतन पाने वाले अधिकारियों में होती है। अपने जमाने के इस्पात किंग एण्ड्रयू कारनेगी उऩ्हें दस लाख डॉलर मासिक वेतन देते थे। एक बार जब उनसे पूछा गया कि तुम्हें इतना अधिक वेतन क्यों मिलता है? क्या तुम विलक्षण प्रतिभा वाले हो या इस्पात बनाने का ज्ञान तुम में दूसरों की अपेक्षा अधिक है? इस पर श्वेब ने जवाब दिया था कि मेरे पास ऐसे अनेक विशेषज्ञ हैं जो इस्पात बनाने की जानकारी मुझसे कहीं अधिक रखते हैं। मुझे इतना अधिक वेतन इस बात के लिए मिलता है कि मैं उनसे उत्साह के साथ काम लेना जानता हूँ। अच्छा काम करने पर मैं उनकी प्रशंसा करता हूँ। गलत करने पर प्यार से समझाता हूँ। इसके साथ ही मैं हर सुख-दुःख में उनके साथ खड़ा रहता हूँ।
     इस प्रकार श्वेब अपने साथी कर्मचारियों पर अपनी श्रेष्ठता नहीं थोपते थे। वे सह्मदय थे और सबके साथ समान व्यवहार करते थे। यही उनके व्यक्तित्व के श्रेष्ठ गुण थे, जिनकी वजह से वे कर पाते थे अपनी टीम का कुशल नेतृत्व।
    यदि आप सबसे ऊपर वाला तोता बनना चाहते हैं तो आप में होनी चाहिए कुशल नेतृत्व क्षमता। और इस क्षमता को प्राप्त करने के लिए आप में किन गुणों का होना आवश्यक है, यह भी आप जान ही गए होंगे श्वेब के उदारण से। तो फिर आज से ही शुरु कर दें अपने व्यक्तित्व में उन श्रेष्ठ गुणों सो समाहित करने का अभ्यास जिनके माध्यम से आप में पैदा होती है कुशल नेतृत्व क्षमता, क्योंकि यह वर्तमान समय की माँग भी है। 

Friday, March 18, 2016

डसना नहीं पर फुंफकारना अवश्य

एक गाँव में एक बहुत ही पुराने बरगद के पेड़ के नीचे बने बिल में एक काला नाग रहता था। उसके भय से लोग वहाँ से गुजरने में डरते थे। एक बार एक साधु को उस रास्ते पर जाते देख गाँव के बच्चे चिल्लाए- महाराज, उधर से मत जाओ। बरगद के नीचे भयंकर साँप रहता है। वह आपको डंस लेगा। इस पर साधु बोला-परेशान मत हो मेरे बच्चो! वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जब साधु बरगद के नीचे पहुँचा तो आहट सुनकर नाग अपने बिल से बाहर आ गया। साधु को देखकर उसने अपना फन फैलाया और फुँफकारता हुआ उसकी ओर बढ़ा। इतने में साधु की दृष्टि उस पर पड़ी तो वह आशीर्वाद का हाथ उठाकर शांत भाव से उसकी और देखने लगा। साधु के चेहरे के भाव और निर्भयता देखकर नाग को तो जैसे सांप सूँघ गया। ऐसा उसके साथ पहली बार हुआ था। वह साधु के पैरों में झुक गया।
     साधु बोला-हे नागदेव! तुम लोगों को नुकसान क्यों पहुँचाते हो? तुम्हें शांति व प्रेम से रहना चाहिए। नाग बोला-स्वामी जी, चाहता तो मैं भी हूँ, लेकिन अपनी प्रवृत्ति के कारण ऐसा नहीं कर पाता। इसे कैसे बदलूँ। इस पर साधु ने उसे एक गुरुमंत्र दिया और कहा-इस मंत्र का जाप करो। किसी को काटना मत। नाग-मैं वैसा ही करूँगा जैसा आपने कहा है। इसके बाद नाग सात्विक जीवन जीने लगा। अकसर वह बिल के बाहर शांत पड़े रहकर मंत्र का जाप करता रहता। इसी स्थिति में गाँव के बच्चों ने जब एक बार उसे देखा तो वे उसे मरा समझकर उसके पास पहुंचे। तभी नाग हिला। इस पर एक बच्चा चिल्लाया-देखो, वह हिला। शायद बीमार होगा। अच्छा मौका है। हम इसे मार देते हैं। और बच्चों ने उस पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। लेकिन नाग चोट खाकर भी चुपचाप पड़ा रहा। थोड़ी देर बाद बच्चे वहाँ से चले गए। अगले दिन सुबह साधु वहां से गुजरा। नाग की हालत देखकर वह हैरान रह गया। उसने नाग से इसका कारण पूछा तो उसने सारी बात बतला दी। इस पर साधु बोला- पुत्र! मैं खुश हूँ कि तुमने अपनी प्रवृत्ति बदल ली। लेकिन मैने तुम्हें काटने के लिए मना किया था, फुँफकारने के लिए नहीं। यदि तुम फुँफकारने लगोगे तो कोई तुम्हारे पास नहीं फटकेगा। इसके बाद उस नाग ने फुँफकारना शुरू कर दिया और शांतिपूर्वक रहने लगा।
     दोस्तों, उस साधु की सलाह उन लोगों को भी मानना चाहिए जो बहुत ही क्रोधी होते हैं। क्रोध आने पर उस पर नियंत्रण न रख पाने की वजह से जो हाथ आता है, उसे उठाकर सामने वाले को मार देते हैं। फिर भले ही इससे उसे गहरी चोट क्यों न लग जाए। उनका यह हमला कई बार जानलेवा भी साबित हो जाता है, जबकि उनका उद्देश्य ऐसा कुछ नहीं होता। ऐसे क्रोध पर काबू पाना बहुत ज़रूरी है। हम यह नहीं कहते कि क्रोध बिलकुल ही न करें। करें, लेकिन ऐसा जो आवश्यक और नियंत्रित हो। यानी काटें नहीं, सिर्फ फुँफकारें। ऐसी ही फुँफकार हर उस अफसर को भी मारते रहना चाहिए जो बहुत ही व्यवहारकुशल होने की वजह से अपने मातहतों पर ज्यादा गुस्सा नहीं करता। तब मातहत उसे कमजोर समझकर उसकी बातों को नज़रअंदाज़ करने लगते हैं। ऐसे में उसे फुँफकारना ज़रूरी हो जाता है, ताकि  उसकी विनम्रता को कमज़ोरी न समझा जाए और कोई उसका नाज़ायज फायदा न उठाए।

Wednesday, March 16, 2016

जिसके कारण फलो-फूलो, उसे कभी न भूलो


     एक बार असुरों से पराजित होकर देवताओं ने ईश्वर से याचना की। इस पर ईश्वर ने उन्हें दिव्य शक्तियाँ दीं जिनके बल पर उन्होने दानवों को हरा दिया। जीत के नशे में चूर देवता खुद को परम शक्तिशाली समझने लगे और यह भूल गए कि उनकी जीत में किसी और का हाथ है। उनका अहंकार दूर करने के लिए एक दिन ईश्वर विशाल यक्ष के रूप में उनके सामने प्रकट हुए।
     इंद्र ने अग्निदेव को यक्ष का परिचय जानने भेजा। यक्ष ने उलटे उन्हीं से परिचय पूछ लिया। इस पर अग्नि हैरान रह गए, क्योंकि उन्हें लगता था कि उन्हें किसी को अपना परिचय देने की ज़रूरत नहीं। वे बोले-अरे! आप मुझ महान अग्निको नहीं जानते? मैं संसार की हर वस्तु को जलाकर राख कर सकता हूँ। यक्ष ने कहा-अच्छा, तो क्या आप इस तिनके को भी भस्म कर सकते हैं? ऐसा कहकर उन्होने एक छोटा-सा तिनका अग्नि के सामने रख दिया। अग्नि ने उस तिनके को जलाने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा दी, लेकिन तिनका नहीं जला, क्योंकि ईश्वर ने उनकी शक्ति जो छीन ली थी। वे सिर झुकाकर इंद्र के पास लौट गए। उनकी बात सुनकर सभी देवता हैरान रह गए। इसके बाद इंद्र ने वायु को भेजा। वे यक्ष से बोले- मैं दुनियाँ की सभी वस्तुओं को उड़ा सकता हूँ। लेकिन वे भी तिनके को नहीं उड़ा पाए और चुपचाप लौट आए। दोनों के असफल होकर लौटने पर इंद्र स्वयं उस यक्ष के बारे में जानने पहुँचे। लेकिन तब तक यक्ष अंतध्र्यान हो गया। इंद्र हैरानी से इधर-उधर देखने लगे। तभी आत्मज्ञान की देवी उमा वहाँ प्रकट हुर्इं। इंद्र ने उनसे यक्ष के बारे में पूछा। वे बोलीं-इंद्र, अपनी जीत के दंभ में तुम यह भूल गए कि यह जीत तुम्हें किसके बल पर मिली। तुम सबको सबक सिखाने के लिए ही ईश्वर यक्ष रूप में आए थे, लेकिन तुम उन्हें पहचान नहीं पाए। इस पर सभी देवताओं को अपनी गलती का अहसास हो गया और उनका अंहकार जाता रहा।
     दोस्तो, कहा गया है कि जिसकी वजह से फलो-फूलो, उसे कभी न भूलो। जिसने आपको महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सौंपी, उन्हें निभाने के लिए शक्तियाँ दीं, जिसके बल पर आप सफलता की ऊँचाइयों पर पहुंचे और अपनी झाँकी जमाई यदि आप उसी व्यक्ति को भूल जाएँगे तो कैसे काम चलेगा। आप इस सफलता को सिर्फ अपनी ही सफलता समझ लें, तो यह तो गलत हुआ न। तब तो आपके साथ भी वही होगा जो देवताओं के साथ हुआ। यानी शक्ति देने वाला आगे बढ़कर आपको इस बात का अहसास करा ही देगा कि असलियत में सारा खेल किसका है।
     ऐसा कई बार होता है कि किसी संस्था के प्रबंधन को अपने किसी कर्मचारी को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस बात का अहसास कराना पड़ता है कि उसे किसी कार्य विशेष में सफलता अकेले के दम पर नहीं मिली है। इसमें उससे जुड़े संस्था के सभी लोगों का योगदान है। लेकिन कुछ लोग हर सफलता को सिर्फ अपनी सफलता मानते हैं। और तो और, वे तो प्रबंधन को भी भूल जाते हैं। सोचें कि क्या किसी संस्था में कोई व्यक्ति बना मैनेजमेंट की सहमति के अपने दम पर कोई बड़ा काम करके दिखा सकता है? नहीं ना। तो फिर कोई यह मुगालता क्यों पालें कि सब कुछ उसकी वजह से है।
     यहाँ हम यह नहीं कहते कि किसी व्यक्ति विशेष का किसी संस्था की प्रगति में कोई योगदान नहीं होता। ऐसा कहना भी गलत होगा। लेकिन यदि आप यह सोचने लगें कि किसी काम को करने की योग्यता और क्षमता केवल आप में ही है, आपके अलावा कोई दूसरा यह काम नहीं कर सकता और आपका कोई विकल्प हो ही नहीं सकता, तो यह आपके दंभ के सिवाय कुछ नहीं। और यह दंभ कोई भी मैनेजमेंट पसंद नहीं करता। इसलिए याद रखिए, मालिक का मालिक कोई नहीं होता। मालिक को हमेशा मालिक की तरह ही इज्ज़त दें। और अपने काम को विनम्रता से करते रहें, तभी आपको आपके योगदान का श्रेय मिलेगा, मिलता रहेगा। लेकिन यदि आप श्रेय देने वाले को ही श्रेय देने के काबिल नहीं समझेंगे तो फिर वह आपकी ऐसी स्थिति कर देगा कि आप अपनी मर्ज़ी से एक तिनका भी नहीं सरका पाएँगे।
     अंत में, बड़ों की तो छोड़ें कभी किसी तिनके को भी न भूलें, क्योंकि ज़रूरत के समय वह भी बड़े काम आता है। वो कहते हैं न कि डूबते को तिनके का सहारा। ठीक है न।

Tuesday, March 15, 2016

सिर्फ करने के लिए न करें कोई काम


     एक बादशाह को टहलने का बड़ा शौक था। एक बार वह टहलते हुए काफी दूर निकल गया। इस बीच नमाज़ का समय हो गया। बादशाह ने रास्ते के एक ओर कपड़ा बिछाकर नमाज़ अदा करना शुरु कर दिया। तभी वहाँ से बौखलाई हुई एक महिला गुज़री। वह अपने पति को खोज रही थी, जो दो दिन से घर नहीं लौटा था। किसी अनर्थ की आशंका से ग्रस्त उस महिला की आँखें सिर्फ अपने पति की खोज में थीं। इस कारण उसे यह दिखाई नहीं दिया कि कोई व्यक्ति वहाँ कपड़ा बिछाकर नमाज़ अदा कर रहा है और वह कपड़े पर पैर रखते हुए आगे बढ़ गई। उसकी इस गुस्ताखी से बादशाह तिलमिला उठा, लेकिन वह नमाज़ अदा कर रहा था इसलिए चुप रहा।
     कुछ समय बाद वह महिला उसी रास्ते से लौटी। उसके साथ उसका पति भी था। वह बहुत खुश नज़र आ रही थी। उसे देखकर बादशाह बोला- "ऐ गुस्ताख, तूने मेरे जाए-नमाज़ पर पाँव रखने की हिमाकत कैसे की? मैं नमाज़ कर रहा था। क्या तुझे यह सब दिखाई नहीं दिया? महिला बोली- "ऐ हुज़ूर! मैं तो अपने पति की खोज में खोई थी। उस समय मुझे न तो कुछ सूझ रहा था, न दिख रहा था। परंतु आप भी तो खुदा की इबादत में खोए थे, फिर आपने मुझे देखकर कैसे पहचान लिया कि मैं ही वह स्त्री हूँ, जिसने कपड़े पर पाँव रखा था? लगता है, आप करना है, इसलिए नमाज़ करते हैं, खुदा के प्रेम में खोकर नहीं।'
     भई वाह, क्या बात है। उस महिला की बात को सुनकर निश्चित ही बादशाह अवाक् रह गया होगा। वह कह भी क्या सकता था। सच ही तो कहा उस महिला ने। उसने बता दिया कि नमाज कैसे अदा करनी चाहिए। साथ ही यह भी कि सिर्फ नमाज़ पढ़ने से या भजन करने से ईश्वर नहीं मिलता। ईश्वर तभी मिलता है जब आप उसके प्रेम में खो जाते हैं। फिर आपको यह ध्यान नहीं रहना चाहिए कि कौन आया, कौन गया, कौन क्या कह रहा है, कौन क्या सुन रहा है। आप तो बस मगन हैं प्रभु भक्ति में। लेकिन अधिकतर लोग प्रभु भक्ति उस बादशाह की तरह ही करते हैं और शिकायत करते हैं कि न जाने क्यों ईश्वर मेहरबान ही नहीं होता। अब सिर्फ करने के लिए भजन करोगे तो ऐसा ही होगा न भाई!
     वैसे यह बात कार्यक्षेत्र में भी लागू होती है। अधिकतर लोग किसी भी काम को सिर्फ इसलिए करते हैं कि उन्हें वह काम करना है। और काम पूरा होने के बाद जब मनचाहे परिणाम नहीं मिलते तो फिर दूसरों को कोसते हैं। खुद भी परेशान होते हैं और दूसरों को भी करते हैं। अब सिर्फ करने के लिए ही करोगे काम तो कैसे बनेगा काम और कैसे मिलेगें अच्छे दाम। यानी जो काम पूरी शिद्दत से , पूरी लगन से नहीं किया जाता, तो उसमें कोई न कोई कमी रह ही जाती है। जब कमी रह जाती है तो फिर उसके नतीज़े भी उतने बेहतर नहीं होते जितने आपने सोच रखे थे। इसलिए काम को करो तो फिर मन लगाकर करो। मन तभी लगेगा, जब आप सोचोगे कि यह आपका अपना काम है। अपनेपन की भावना से किया गया काम बेहतर परिणाम न दे, ऐसा हो ही नहीं सकता। तब यदि काम में चूक हो जाए या कोई कमी भी रह जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि आपकी भावना सभी को दिखाई देती है। वह किसी से छिपती नहीं है। यही कारण है कि कई बार भारी गलती हो जाने पर भी अधिकारी ऐसे कर्मचारी को माफ कर देता है जो मन लगाकर काम करता है, जबकि छोटी-मोटी गलती करने पर भी ऐसा कर्मचारी बलि चढ़ जाता है जो सिर्फ करने के लिए काम को करता है। इसलिए कभी किसी काम को टालू अंदाज़ में अंजाम न दें। यह सोचकर काम शुरू न करें कि काम पूरा हो जाए और आप गंगा नहाए। ऐसे में आप गंगा में तो नहीं नहाएँगे, हाँ, अपने ही आँसुओं में आपको ज़रूर नहाना पड़ सकता है।
     दूसरी ओर, कई बार हमें ज़िंदगी में ऐसा काम करना पड़ता है, जो हमें पसंद नहीं होता। ऐसी स्थिति में भी यदि हमने उस काम को करना स्वीकार कर लिया है, तो फिर वह पसंद का हो या नहीं, हमें उस काम को पूरी तरह मन लगाकर करना चाहिए। क्योंकि यदि आपको वह काम पसंद नहीं था तो फिर आपको उसे हाथ में लेना ही नहीं था। और यदि ले लिया है तो फिर उसे पूरा करने में अपनी सारी शक्ति लगा दो। यदि आप ऐसा करेंगे तभी आपकी एक अच्छे कर्मचारी की छवि बनेगी, जिसका सीधा लाभ संस्था के साथ आपको भी मिलेगा।

Sunday, March 13, 2016

अगर हो विष का वास तो न करें विश्वास

     एक कुत्ता गन्ने के खेत की रखवाली करता था। एक दिन एक भूखी सेही ने आकर उससे गन्ने खाने की इज़ाज़त माँगी। कुत्ते के मना करने पर वह रोने लगी। इस पर कुत्ते को उस पर दया आ गई। वह बोला-ठीक है, तुम कुछ गन्ने खा सकती हो, लेकिन उनकी जड़ों को नुकसान मत पहुँचाना, नहीं तो दौबारा गन्ने नहीं उगेंगे। जिससे मेरे मालिक का नुकसान होगा। सेही ने वैसा ही किया। उसे गन्ने खाने में बहुत मज़ा आया। उसने कुत्ते से दोस्ती गाँठ ली और रोज़ खेत में आकर गन्ने खाने लगी।
     एक दिन उसने यह सोचकर एक गन्ने की जड़ खा ली कि यह गन्ने से अधिक स्वादिष्ट होगी। उसे वह ज्यादा अच्छी लगी। फिर तो वह चुपके से जड़ भी खाने लगी। इस बीच एक दिन किसान खेत देखने आया तो उसे वह अंदर से कई जगह उजड़ा हुआ नज़र आया। उसने कुत्ते को कड़ी फटकार लगाई। कुत्ते ने सेही को उसके सामने खड़ा कर दिया। इस पर वह बोली-दोषी मैं नहीं, कुत्ता ही है। विश्वास न हो तो मामला अदालत में ले चलो। किसान तैयार हो गया।
     अदालत में सेही ने एक माह बाद सुनवाई का आग्रह किया जिसे जज ने मान लिया। सेही चाहती थी कि जोरदार ठंड पड़ने लगे। तय समय पर सभी अदालत में आए। ठंड के मारे कुत्ता थरथर काँप रहा था, जबकि काँटेदार खोल के कारण सेही सामान्य थी। वह जज से बोली- देखिए हुज़ूर, अपराधी डर से कैसे थरथर कांप रहा है। इस पर जज ने कुत्ते से सफाई माँगी तो वह जबान भी नहीं खोल पाया। उसकी चुप्पी को दोष स्वीकृति मानकर जज ने उसे कड़ा दंड सुना दिया। निर्दोष कुत्ता बेघर होकर गलियों में घूमता और रात में अपनी किस्मत पर रोता। आज भी अफ्रीका में जब कोई कुत्ता रात में रोता है, तो वहां के लोग कहते हैं कि ज़रूर किसी सेही ने गन्ने का खेत खा लिया है और सजा इसे मिली है।
     दोस्तो, इसी को कहते हैं करे कोई और भरे कोई। यानी जुर्म किसी ने किया और सजा कोई भुगते। बेचारा कुत्ता भलाई करने चला था और उसे ही भुगतना पड़ गया। इसीलिए कभी भी किसी से दोस्ती गाँठने से पहले देख लें कि वह आपकी दोस्ती के काबिल है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह अपने किसी फायदे के लिए आपसे दोस्ती बढ़ा रहा है। वह आपकी आँखों में धूल झोंककर या अपनी बातों में लगाकर आपसे कोई फायदा उठा रहा हो और आप अनभिज्ञ हों। इस तरह के मामलों में जब भेद खुलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और आप ठगे से रह जाते हैं। कोई कुछ कहे या पूछे तो आपकी जबान नहीं खुलती, क्योंकि उसके झटके ने आपको कँपकँपा दिया होता है, आपकी भावनाओं को इस तरह से कुचला होता है कि आप उससे उबरने में कठिनाई महसूस करते हैं। इसलिए ऐसी स्थिति आने से पहले सामने वाले को परख लें कि क्या वाकई वह आपके भरोसे के काबिल है। तभी आप उसे अपने खेत में जाने की इज़ाज़त दें यानी भरोसे का काम सौंपें। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपको भी रोना पड़ सकता है।
     दूसरी ओर, किसी मामले में किसी को दोषी करार देने से पहले हमें यह देख लेना चाहिए कि सामने वाला कहीं किसी षड¬ंत्र का शिकार तो नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि गुनाह किसी और ने किया है और घड़ा उसके माथे फूट रहा है। ऑफिस की चहारदीवारी में ऐसी घटनाएँ आए दिन घटती रहती हैं जब कोई निर्दोष व्यक्ति इसी तरह से किसी दूसरे की गलतियों का खामियाज़ा भुगतता है। इसके साथ ही आपको अपने आसपास उस सेही जैसे बहुत से लोग मिल जाएँगे जो जिस खेत से गन्ना खा रहे हैं यानी जिस संस्था में काम कर रहे हैं उसी का अहित करते हैं। ऊपर से वे संस्था के हितैषी नज़र आते हैं लेकिन अंदर ही अंदर उसकी जड़ों को चट कर रहे होते हैं। जैसे दीमक लकड़ी को ऊपर तो नुकसान नहीं पहुँचाती लेकिन अंदर ही अंदर उसे खोखला कर देती है, वैसे ही ये अपना काम इतनी सफाई से करते हैं कि किसी को इन पर शक ही नहीं होता। इसलिए किसी भी व्यक्ति को विश्वास का काम सौंपने से पहले यह देख लें कि कहीं उसके मन में विष का वास तो नहीं यानी वह धोखेबाज़ तो नहीं। यदि परखने के बाद वह कसौटी पर खरा उतरे, तो ही उसे महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियाँ सौंपें।

Saturday, March 12, 2016

आप हैं कब के? अब के या फिर तबके....।


     एक बार कुछ दरबारी अकबर से बोले कि "आप बीरबल को कुछ ज्यादा ही महत्व देते हैं, जबकि ऐसा कुछ नहीं है कि जो वे कर सकते हैं, हम नहीं। आप हमारी परीक्षा लेकर तो देखिए।' अकबर बोले-ठीक है। तो एक काम करो। मेरे सामने दो अबके ले आओ, दो तबके ले आओ और दो ऐसे ले आओ, जो न अबके हों न तबके।' उनकी बात दरबारियों की समझ में नहीं आई। उन्होने उसे दोहराने की गुजारिश की। अकबर ने दोबारा वही बात कह दी, लेकिन बात इस बार भी सभी के सिर के ऊपर से निकल गई। सभी चुप हो गए। इस बीच बीरबल भी वहाँ आ गए। उन्होने अकबर से वहाँ पसरे सन्नाटे का कारण पूछा तो अकबर ने उन्हें सारी बात बताकर उनसे भी वही लाने को कहा। इस पर बीरबल बोले-"जी हुज़ूर, मैं कल आपके सामने सबके सब ला दूँगा।'
     अगले दिन सुबह बीरबल यमुना तट पर पहुँचे। वहाँ कई राजाओं के तम्बू लगे थे। कुछ साधु भी धूनी रमाए जप-तप में लीन थे। उन्होने दो राजाओं और दो साधुओं को यह कहकर अपने साथ ले लिया कि बादशाह उनसे मिलना चाहते हैं। इसके बाद उन्होने शहर से दो व्यापारियों को भी साथ ले लिया। वे उन सभी को साथ लेकर दरबार में पहुँचे। उन्हें देखते ही अकबर बोले। "क्या हुआ बीरबल? आज तो तुम सबके सब लाने वाले थे।' बीरबल ने कहा, हाँ, मैं वह अपने साथ ही लाया हूँ। ये जो दो राजा हैं, ये ही दो अबके हैं। पिछले जन्मों के पुण्यों का फल ये इस जन्म में भोग रहे हैं। ये दो साधू आज जो जप-तप कर रहे हैं, कष्ट सह रहे हैं, उसका सुख इन्हें आगे मिलेगा। इसलिए ये तबके हैं। और ये दो व्यापारी न अबके हैं न तबके हैं। इन्होने न पहले कुछ अच्छा किया और न अब कर रहे हैं। हमेशाा माया के पीछे भागने वाले इन व्यापारियों को न आज सच्चा सुख है और न कल होगा।' बीरबल की बात सुनकर अकबर फूले नहीं समाए।
     दोस्तो, बीरबल ने तो अकबर की पहेली को हल कर दिया, लेकिन क्या आप खुद को बता सकते हैं कि आप कबके हैं? अबके हैं या तबके हैं या फिर न अबके हैं और न तबके। कठिन सवाल है न। चलिए सोचिए, तब तक हम आगे बढ़ते हैं। सबसे पहले हम बात करेंगे अबके की। अबके माने वे लोग, जिन्होने पहले खूब मेहनत और संघर्ष कर एक मुकाम हासिल किया और आज उस मेहनत के फल का आनंद ले रहे हैं। यानी भूतकाल के परिश्रम से इनका वर्तमान सुधरा है। इन्हें हक है कि ये अपना वर्तमान के सुखों को भोगें। लेकिन इनसे हमारा कहना है कि आज सुख है तो कल दुःख भी आ सकता है इसलिए आज के आनंद में कल को न भूल जाएँ। यदि आप हमेशा ही अबके बने रहना चाहते हैं तो कभी भी अपनी कामयाबी का नशा अपने सिर पर मत चढ़ने देना वरना आप अबके बने नहीं रहेंगे, सिर्फ अबके बनकर ही रह जाएँगे। आज जो लोग आपको अबका मानकर आगे-पीछे घूमते हैं, वे बाद में मिलेंगे तो कहेंगे कि अब इनको कौन पूछे। ये अबके नहीं, ये तो तबके थे।
     दूसरी ओर, जो तबके हैं यानी जो आज संघर्षों के दौर से गुज़र रहे हैं, लक्ष्य प्राप्ति में पूरी लगन से लगे हैं, जो वर्तमान में तकलीफें उठा रहे हैं ताकि उनका भविष्य सुधरे, ऐसे लोगों से हम कहेंगे कि भैया, बिना हिम्मत हारे लगे रहो। और इस तबके को अबके में बदल दो। यानी जो आज आपके अंदर भविष्य की संभावनाएँ देख रहे हैं, उन्हें बता दो कि वे सही थे और बाद में लोग कहें कि ये अबके हैं। यहाँ हम आपको भी यही सलाह देंगे कि लोग भले ही आपको बाद में अबके कहने लगें, लेकिन आप अपने अंदर तबके के चरित्र को हमेशा बनाए रखना। तभी आप आगे चलकर लगातार अबके बनकर रह पाएँगे। जो न अबके हैं और न तबके यानी ऐसे लोग जिन्होने न पहले संघर्ष किया और न अब कर रहे हैं तो ऐसे लोगों का न भूत था, न वर्तमान है और न भविष्य होगा। ऐसे लोगों के बारे में तो बात करना बेमानी है और कोई करता भी नहीं। यदि ये चाहें कि इन्हें भी पूछा जाए, इनके बारे में भी बात की जाए तो इन्हें अपने हाथ-पैर मारने होंगे और सबसे पहले तबके बनकर दिखाना होगा, तभी ये अबके बन पाएँगे।
     अंत में, हमें उम्मींद है कि आप अब तक यह जवाब खोज चुके होंगे कि आप कबके हैं और यह भी ठान चुके होंगे कि यदि आप अबके नहीं हैं तो ज़रूर बनकर दिखाएँगे।

Friday, March 11, 2016

इच्छायें दुख रूप हैं।


     एक सेठ अपने विवाह योग्य बेटे कुमार पर शादी के लिए दबाव डाल रहा था, लेकिन वह तैयार नहीं था। दबाव ज्यादा बढ़ने पर कुमार ने एक युक्ति अपनाई। वह अपने पिता को एक रूपवती युवती की स्वर्ण प्रतिमा दिखाते हुए बोला-यदि इस प्रतिमा जैसी युवती मिल जाए तो मैं शादी के लिए तैयार हूँ। सेठ ने अपने सेवकों को मूर्ति लेकर कन्या को तलाशने भेज दिया।
     कई माह बीतने के बाद एक गाँव में वैसी ही कन्या मिल गई। सूचना मिलने पर सेठ ने रिश्ता पक्का करने के लिए कन्या सहित आने का प्रस्ताव उसके परिवार को भेजा। इधर कुमार के मन में भी लड्डू फूटने लगे। उसे उम्मींद न थी कि मूर्ति जैसी रूपवती कन्या हो भी सकती है। अब वह बस उसी के ख्वाबों में खोया रहता। कन्या के इंतज़ार में वह एक-एक पल बड़ी मुश्किल से गुजार रहा था। इस तरह कई दिन बीत गए लेकिन कन्या नहीं आई। वह यह सोचकर चिंतित हो गया कि कहीं कन्या ने विवाह प्रस्ताव ठुकरा तो नहीं दिया।
     उसकी उदासी देखकर माँ से रहा नहीं गया और उसने उसे अंततः बता ही दिया कि जिस कन्या का वह इंतज़ार कर रहा है, वह यहाँ आते समय रास्ते में बीमार होकर चल बसी। यह सुनते ही कुमार पछाड़ खाकर गिर पड़ा। तभी दरवाज़े पर बुद्ध आए। उन्होने कुमार से पूछा-युवक, तुम्हें कौन-सा दुःख खाए जा रहा है? कुमार बोला- दुनियाँ की सबसे रूपवती युवती और मेरी होने वाली पत्नी के मरने का मुझे बहुत दुःख है। उसके बिना मैं कैसे जी पाऊंगा। बुद्ध ने कहा-तुम्हें उस युवती के मरने का दुःख होता तो शायद तुम जी नहीं पाते। तुम्हें दुःख तो इस बात का है कि तुमने एक युवती को पाने की इच्छा की और जब वह इच्छा पूरी नहीं हुई तो तुम दुःखी हो उठे। इसलिए अपने आपको इच्छामुक्त बनाओ, तुम्हारा दुःख स्वतः ही दूर हो जाएगा।
     दोस्तो, सही तो है। उस युवक को युवती का नहीं, उसकी अधूरी रह गई इच्छा का दुःख था जिसे वह युवती से जोड़कर देख रहा था। जब उसे दुःख का कारण पता चल गया तो उसका दुःख भी जाता रहा। लेकिन अब बात यह आती है कि उस युवक के जैसी स्थिति तो लगभग हम सभी की होती है। हम सब भी तो इच्छाओं के शिकार हैं जो हमें दुःख पहुँचाती रहती हैं। हमारा ध्यान इनकी ओर न जाकर कहीं और अटका रहता है और हम उस व्यक्ति या वस्तु को लेकर परेशान होते रहते हैं जो हमें मिल न सकी।
     चूंकि हम असली गुनहागार के बारे में सोचते ही नहीं, इसलिए हमारे दुःखों का अंत नहीं होता। यदि आप दुःखों से, तनावों से मुक्त होना चाहते हैं तो इनका ठीकरा किसी और के सिर फोड़ने या मढ़ने से पहले एक बार अपने अंदर झाँककर देख लें कि कहीं मुसीबत की जड़ आपके अंदर ही तो नहीं बैठी है। यदि बैठी है तो उस जड़ को काट दें यानी इच्छा को मार दें। आप हो जाएँगे तनावमुक्त।
     कहा गया है कि मनुष्य के जीवन की दो दुःखांत घटनाएँ हैं। एक उसकी इच्छा की पूर्ति न होना और दूसरी इच्छा की पूर्ति हो जाना। यहाँ जानने-समझने वाली बात यह है कि इच्छा पूरी न होने से ज्यादा दुःखदायी है इच्छा पूरी हो जाना। इसका कारण यह है कि जब आप किसी चीज़ की इच्छा करते हैं तो वो जब तक पूरी नहीं होती, तब तक आप तनाव में रहते हैं। आपके अंदर एक भय पैदा हो जाता है कि यदि इच्छा पूरी नहीं हुई तो मेरा क्या होगा। इसी भय और तनाव के चक्कर में आपका सुख-चैन सब खो जाता है। फिर तो आपको न खाना, न पीना, न सोना न जागना, न उठना, न बैठना अच्छा लगता है। ऐसे में जब आपकी इच्छा पूरी नहीं होती तो आप टूट जाते हैं, निराश-हताश हो जाते हैं। इससे ऊबरने का एक ही तरीका है कि आप संभल जाएँ और वैसी इच्छा से बचें।
     दूसरी ओर, यदि एक बार इतनी सब मानसिक वेदनाएँ उठाने के बाद आपकी इच्छा पूरी हो गई तो फिर तो गई भैंस पानी में। क्योंकि तब आपके अंदर कोई दूसरी इच्छा पनपेगी और फिर चालू हो जाएगा तनावों से भरा वैसा ही दौर। इस तरह आपके भीतर एक के बाद दूसरी इच्छा जन्म लेती रहेगी और आपके जीवन को दूभर बनाती रहेगी। यहाँ हम यह नहीं कह रहे कि आप इच्छाएँ करें ही नहीं। ज़रूर करें, लेकिन उन्हें मर्यादा में रखें यानी इच्छाएँ आप पर नहीं, आप इच्छाओं पर हावी हों, तभी आप तनाव मुक्त होकर अपनी उचित और अनुचित इच्छा में भेद कर उनमें से उचित को पूरा कर पाएँगे।

Thursday, March 10, 2016

मन की मानो, मन से मत मनवाओ!


     एक गाँव में कालू नामक बढ़ई रहता था। एक दिन उसकी पत्नी बोली-सुनो जी, आज मैं टमाटर की लौंजी बनाना चाहती हूँ। इसलिए बाज़ार से जाकर टमाटर खरीद लाओ। कालू झोला लेकर बाज़ार की ओर चल दिया। रास्ते में उसकी नज़र टमाटर के एक खेत पर पड़ी। लाल-लाल टमाटरों को देखकर उसने सोचा कि क्यों न यहीं से टमाटर ले जाऊँ। खेत में जाकर जैसे ही उसने टमाटर तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया, उसके मन ने कहा कि यह तो चोरी है। चोरी करना पाप है। उसने तुरंत अपना हाथ पीछे खींच लिया। अब वह क्या करे। तभी उसे एक उपाय सूझा। वह बड़ी ही विनम्रता से खेत से बोला-खेत भैया, खेत भैया, मेरी पत्नी आज टमाटर की लौंजी बनाना चहती है। यदि आपकी इजाज़त हो तो मैं एक-दो टमाटर तोड़ लूँ। कुछ देर रुकने के बाद उसने खेत की ओर से खुद ही उत्तर दे दिया। हाँ-हाँ, कालू भाई, पूरा खेत ही आपका है। एक-दो क्यों झोला भरकर टमाटर ले जाओ। खेत से अनुमति मिलने पर बढ़ई ने तेज़ी से अच्छे-अच्छे टमाटर तोड़कर अपने झोले में भर लिए और घर चल दिया। कछ समय बाद उसकी पत्नी ने उसे फिर से टमाटर लाने को कहा। इस पर वह खुशी-खुशी दोबारा उस खेत में जा पहुँचा और वही कहानी दोहरा दी। और फिर तो यह कहानी गाहे-बगाहे दोहराई जाने लगी।
     उस खेत का मालिक किसना बहुत मेहनती किसान था। एक दिन खेत में घूमते समय उसे शक हुआ कि हो न हो कोई उसके खेत से टमाटर चुरा रहा है। इस पर उसने खेत की चौकसी बढ़ा दी। एक दिन उसने कालू को रंगेहाथों पकड़ लिया और उसका गिरेबान पकड़कर सीधे गाँव के तालाब पर ले गया। वहाँ किसना ने तालाब की ओर देखकर कहा-तालाब काका, तालाब काका, मैं इस चोर को आपके सहयोग से सजा देना चाहता हूँ। क्या मैं इसको एक-दो डुबकी लगवा दूँ। कुछ देर रुकने के बाद वह खुद बोला-क्यों नहीं किसना, इस बदमाश को एक-दो क्यों पूरी सौ-दो सौ डुबकी लगवाओ। तालाब की अनुमति मिलने के बाद उसने वैसा ही किया।
     दोस्तो, इसे कहते हैं जैसे को तैसा। निश्चित ही इसके बाद कालू को सबक मिल गया होगा कि इस तरह से मन को बहलाने से पाप पुण्य में नहीं बदलता। लेकिन कालू ने ही ऐसा किया हो, ऐसा नहीं है। हममें से भी बहुत से लोग अकसर इस तरह की हरकतें करते रहते हैं। यकीन नहीं हो रहा न। अरे भई, जब आप अपने मन की न मानकर उससे अपनी बात मनवाते हैं या यूँ कहें कि मन की न सुनकर उससे अपनी मनचाही कहलवाते हैं तो यह क्या हुआ? यह भी तो वही हुआ जो वह बढ़ई कर रहा था। ऐसे ही बहुत से लोग जो यह सोचते हैं कि उन्होने जो कुछ भी किया वह अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर किया, अपने मन की सुनकर किया। मन की सुनना कोई गलत बात नहीं है। ऐसा सोचने वाले तभी सही ठहराए जा सकते हैं जबकि वे वास्तव में वैसा ही करते जैसा कि उनका मन कह रहा था। उन्होंने मन की मानने की बजाय उसे तो डरा-धमकाकर, बहला-फुसलाकर या फिर उलटे-सीधे तर्क और दलीलें देकर चुप ही करा दिया था। और उसकी चुप्पी को अऩुमति मानकर चल पड़े गलत राह पर। यानी यहाँ मन का दोष नहीं, दोष है आपकी धौंस का, जिसके चलते मन ने कुछ भी कहने से मना कर दिया। इस तरह न जाने कितने लोग अपने अपराधों को, अपने पापों को या किसी गलत काम को उलटे-सीधे तर्क या दलीलें देकर ही जायज़ ठहराते रहते हैं या ठहराते आए हैं।
     यदि आप भी अपने गोरख-धंधों को इसी तरह जायज़ करार देते हैं और यह सब करके भी आपको लगता है कि आप सुखी रह पाएँगे तो यह आपकी गलतफहमी है। आज भले ही आपको इस बात का अहसास न हो लेकिन एक न एक दिन ज़रूर होगा कि आपकी लाख कोशिशों के बाद भी आपके मन ने आपकी किसी भी दलील को नहीं माना। तभी वह खामोश रहकर भी वक्त-बेवक्त आपके द्वारा किए गए गलत कामों के लिए आपको कचोटता रहता है। इसलिए बेहतर यही है कि मन की चुप्पी को उसकी मूक सहमति न मानें। यदि आप मन से मनमानी करेंगे तो अंदर ही अंदर वैसे ही घुटेंगे जैसे कि गलत राह पकड़ने वाले लोग घुटते हैं। यदि आप इस घुटन से बचना चाहते हैं तो यह बात घोंटकर पी लें कि मन की मानना अच्छा है, मन से मनवाना बुरा। ठीक है।


Wednesday, March 9, 2016

आती हैं कई भाषा तो काहे की निराशा


     एक बार चीन में एक बहेलिए ने दुर्लभ जाति के छः रंग-बिरंगे तोते पकड़े। उसने नगर में ले जाकर उन्हें एक व्यापारी को बेच दिया। उस व्यापारी की वहाँ के राजा से घनिष्ठ मित्रता थी। उसके मन में विचार आया कि इन तोतों को राजा को भेंट कर देता हूँ। निश्चित ही उन्हें यह उपहार पसंद आएगा। वह अपने विचार पर अमल करने की सोच ही रहा था कि तभी उसे ध्यान आया कि राजा बड़ा ही अंधविश्वासी है। चूँकि वहाँ पर कोई भी चीज़ छः की संख्या में लेना-देना अपशकुन माना जाता था, इसलिए उसने एक जापानी तोता उनके साथ मिला दिया। इस प्रकार सात तोते हो गए और यह एक शुभ अंक था।
     इसके बाद उसने वे तोते ले जाकर राजा को भेंट कर दिए। राजा को व्यापारी का उपहार बहुत पसंद आया। वह ध्यान से एक-एक तोते को देखता और व्यापारी से उसकी प्रशंसा  करता। अंत में उसकी नज़र जापानी तोते पर पड़ी। वह बोला-अरे, यह तोता तो जापानी लगता है। क्या ये सब अपने यहाँ के तोते नहीं हैं? राजा की बात सुनकर व्यापारी की समझ में नहीं आया कि अब वह क्या कहे। यदि वह कहता है कि एक अलग है तो फिर चीनी तोते संख्या में छः हो जाएँगे और झूठ वह राजा से बोलना नहीं चाहता था। उसकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी कुछ कहने की। राजा ने दोबारा अपना प्रश्न दोहराया तो इसके पहले कि व्यापारी कुछ कहता, जापानी तोता चीनी भाषा में बोला-महाराज, मैं चीन का भी हूँ और जापान का भी क्योंकि मैं दोनों भाषाएँ जानता हूँ यानी एक दुभाषिया हूँ।
     दोस्तो, यह होता है दुभाषिया होने का फायदा कि आप सामने वाले से उसी की भाषा में बात कर सकते हैं और वह आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। फिर तो वह भूल जाएगा कि आप कौन और कहाँ के हैं। आप तो उसे अपने लगेंगे। इसलिए कहा भी गया है कि सामने वाले से जल्दी सामंजस्य बैठाना चाहते हो तो उससे उसी की भाषा में, उसी की बोली में बात करो। तब आपकी बात वह ज्यादा ध्यान और अपनत्व से सुनेगा-समझेगा यानी सामने वाले की भाषा का ज्ञान आपके काम को आसान बना देगा, बना देता है।
     वैसे भी कुछ नया और हटकर सीखने में बुराई भी नहीं होती। यदि आप कोई दूसरी भाषा सीखेंगे तो इसके आपके ज्ञान और सोच में वृद्धि ही होगी। तब आप एक ही विषय पर अलग-अलग तरीके से मंथन कर पाएँगे। साथ ही आपके संबंधों का दायरा भी बढ़ेगा। एक से अधिक भाषा जानने से आपके शब्दकोश में बहुत से नए-नए शब्द जुड़ते जाते हैं। ये शब्द कहीं न कहीं काम आते ही रहते हैं। इसलिए जितना ज्यादा हो सके, उतने नए-नए शब्द सीखें, उन्हें एड करें। कहते हैं कि यदि आप रोम में हैं तो रोमन की तरह व्यवहार करें। यह ठीक है, लेकिन बिना रोमन भाषा जाने वहाँ के निवासी की तरह व्यवहार कैसे किया जा सकता है। यानी आप किसी दूसरी भाषा वाले क्षेत्र में तभी घुल-मिलकर सफल हो सकते हैं जब आप वहाँ की बोली में बात कर सकें। वरना सामने वाला आपसे बात कर रहा है और आपकी बोलती बंद।
     यह बात कई रिसर्च से साबित भी हुई है कि किसी व्यक्ति से उसी की भाषा में बात की जाए तो संदेश की ग्रहणशीलता और उसी के अऩुरूप प्रतिक्रिया की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। यही कारण है कि आज लगभग हर छोटी-बड़ी कंपनी लोगों तक अपना संदेश या अपने उत्पादों की जानकारी उन्हीं की भाषा में पहुँचाना चाहती है। यह इसलिए भी ज़रूरी हो गया है कि आज का दौर ग्लोबलाइजेशन का है। ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ किसी दूसरे देश में जाकर तभी सफल हो सकती हैं जब उनका कामकाज स्थानीय भाषा में  हो। कई बार तो इन कंपनियों के विज्ञापन देखकर अहसास ही नहीं होता कि ये किसी विदेशी कंपनी का विज्ञापन या उत्पाद है। अपनी भाषा में होने के कारण ही वह हमें अपील करता है। स्थानीय भाषा के इसी बढ़ते महत्व के कारण उन लोगों का बोलबाला हो गया है जो अपनी भाषा के साथ ही कोई दूसरी भाषा या बोली भी जानते हैं। उनके लिए इन कंपनियों में अपार संभावनाएँ हैं। इसलिए यदि आप भी अपने करियर में बहुत कुछ करना चाहते हैं तो कोशिश करें कि अपनी भाषा के अलावा कोई और भाषा भी सीखें। इससे आपके करियर में अवसरों की वृद्धी ही होगी और दुभाषिए होने के बाद आप कभी हाशिए पर नहीं जाएँगे।

Monday, March 7, 2016

हाथ ऊपर उठें।

ऐसा करो कि हाथ ऊपर उठें, ऊपर न उठें!
     न्यूरेमबर्ग के पास के एक गाँव में एक गरीब सुनार अपने अठारह बच्चों वाले परिवार का भरण-पोषण बड़ी मुश्किल से करता था। यह बात उसके बच्चे जानते थे। इसी कारण उसके दो बड़े बेटे अल्ब्रोट और अल्ब्रोच उदास रहते थे। वे कला के क्षेत्र में उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहते थे, लेकिन तंगहाली के चलते यह संभव न था। एक रात अल्ब्रोच अपने भाई से बोला-इस तरह हमारा सपना कभी पूरा नहीं होगा हमें कुछ करना चाहिए।
     इस पर दोनों ने तय किया कि वे सिक्का उछालकर अपने भाग्य का फैसला करेंगे। जो हारेगा वह न्यूरेमबर्ग के पास की खदान में काम करके जीते हुए भाई की पढ़ाई में आने वाला पूरा खर्च उठाएगा। और चार साल बाद जब उसकी पढ़ाई पूरी हो जाएगी तब वह दूसरे भाई को उसका सपना पूरा करने में मदद करेगा। यह तय होने के बाद सिक्का उछाला गया। इसमें अल्ब्रोच की जीत हुई। उसने न्यूरेमबर्ग जाकर कला अकादमी में दाखिला ले लिया और अल्ब्रोट खदान में काम करने लगा।
     दोनों भाई अपने-अपने क्षेत्र में जी-तोड़ मेहनत कर रहे थे। अल्ब्रोट इसलिए ताकि उसके भाई को पैसे की कमी न हो और अल्ब्रोच इसलिए कि उसके भाई की मेहनत बेकार न जाए। अल्ब्रोच का पैतृक व्यवसाय चूँकि सुनारी का था, इसलिए उसके अंदर रचनात्मकता पैतृक गुणों के रूप मे मौजूद थी। वह जो भी कलाकृति बनाता वह अनोखी होती थी। फिर भले ही वह तैलचित्र हो, नक्काशी का काम हो या लकड़ी की बनी वस्तुएँ। इस तरह पढ़ाई पूरी करते-करते वह एक स्थापित कलाकार बन गया। उसे काम भी खूब मिलने लगा। पढ़ाई पूरी कर जब वह गाँव पहुँचा तो सभी ने उसका गर्मजोशी से स्वागत किया। सभी उसकी तारीफों के पुल बाँध रहे थे। तब अल्ब्रोच बोला-तारीफ के काबिल मैं नहीं, मेरा भाई है। आज मैं जो कुछ हूँ, उसी की बदौलत। इसके बाद वह अल्बर्ट की ओर मुड़कर बोला-भाई, अब तुम्हारी बारी है। अब तुम न्यूरेमबर्ग जाकर अपना सपना पूरा करो। इस पर अल्बर्ट भाव-विभोर हो उठा। उसके आँसू बह निकले। सिसकियाँ लेते हुए वह बोला-नहीं, अल्ब्रोच! अब यह संभव नहीं। अब बहुत देर हो चुकी है। खदान में काम करते-करते मेरे हाथ इतने रूखे हो गए हैं कि अब यह हथौड़ा ही उठा सकते हैं, ब्राश नहीं।
     दोस्तो, वह कलाकार भाई था अल्ब्रोच ड¬ूरेर, जिसकी बनाई अनेक कलाकृतियाँ आज लगभग 500 साल बाद भी विश्व के कई मयूजियमों की शोभा बढ़ा रही हैं। लेकिन उसकी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति है आकाश की ओर उन्मुख रूखे, खुरदुरे, पतली-पतली अँगुलियों वाले हाथ। इस मास्टरपीस को लोगों ने नाम दिया है "प्रेर्इंग हैंड्स' यानी प्रार्थनारत हाथ। ये हाथ अल्ब्रोच ने इसलिए बनाए थे ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जब भी इस पेंटिंग को देखें तो वे अल्ब्रोच की तारीफ करते समय यह न भूलें कि उसकी सफलता के पीछे किसी और का भी हाथ था। इस पेंटिंग का निर्माण सिर्फ उसने नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से अल्ब्रोट ने भी किया था।
     वैसे हम सबको भी सफलता सिर्फ अपने हाथों की बदौलत हासिल नहीं होती, बल्कि उसमें कई और भी हाथ होते हैं। कुछ हाथ ऐसे होते हैं जो हमारे लिए दुआ करते हैं, प्रार्थना करते हैं। कुछ हाथ सहयोग, सहायता के रहते हैं। कुछ हाथ हमारी पीठ थपथपाकर हमें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, तो कुछ हाथ आशीर्वाद के रूप में हमारे सिर पर रखे होते हैं। कुछ हाथों की अँगुली पकड़कर हम आगे बढ़ते चले जाते हैं, तो कुछ हाथ बराबरी के होते हैं जो मिलकर बड़े से बड़े और कठिन से कठिन काम को आसानी से अंजाम दे देते हैं। इस तरह हम सबकी सफलता में हमारे ही नहीं औरों के भी हाथ होते हैं। हम सबको उन हाथों के योगदान को अल्ब्रोच ड¬ूरेर की तरह ही याद रखना चाहिए। इस तरह आप उन हाथों के अहसान को तो नहीं उतार सकते, लेकिन उनके योगदान को याद रखकर उनके प्रति एक आदर और स्नेह का एक भाव तो रख ही सकते हैं। इससे वे हाथ और भी उत्साह से आपके साथ रहेंगे, आपके लिए उठेंगे। यदि आप उन हाथों को भूल जाएँगे तो फिर वे आपके लिए नहीं बल्कि आपके ऊपर उठेंगे। यह तभी संभव है, जब आप सभी को साथ लेकर सभी के साथ चलेंगे।

Saturday, March 5, 2016

गुरु पर न आजमाएँ गुरु से सीखें गुर


     पहलवानी सीख रहे शागिर्दों में से एक शागिर्द उस्ताद का बहुत चहेता था। वह उस्ताद की सारी बातें मानता था। और उसके अंदर सीखने की भी बहुत ललक थी। इस सबके चलते उस्ताद ने उसे सारे दाँव-पेंच सिखा दिए, जिनके सहारे जल्द ही उसने पहलवानी की दुनियाँ में खूब नाम कमा लिया। वह देखते ही देखते चुटकियों में अपने प्रतिद्वंद्वी को धूल चटा देता था। इससे उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई।
     इससे प्रभावित होकर बादशाह ने उसे मिलने के लिए बुलाया। शुरुआती गुफ्तगू के बाद वह बादशाह से बोला- हुज़ूर! आज पूरी दुनियाँ में कोई पहलवाल मेरे सामने नहीं ठहरता।' बादशाह ने पूछा, "क्या वाकई में ऐसा है?' शागिर्द बोला- हाँ।' बादशाह ने पूछा- क्या तुम्हारे उस्ताद भी नहीं?' शागिर्द ने जवाब दिया," हाँ वे भी नहीं।' बादशाह ने कहा," क्या तुमने कभी उस्ताद से मुकाबला किया है?' शागिर्द ने कहा, "नहीं। लेकिन जब दुनियाँ के बड़े-बड़े बल्लम मेरे सामने नहीं टिके तो वे कैसे टिक पाएँगे।' शागिर्द की बातें सुनकर बादशाह समझ गए कि इसे अपनी कामयाबी का गुरूर हो गया है। वे बोले- हम तुम्हें नूर-ए-मुल्क का खिताब देना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए तुम्हें अपने उस्ताद को पछाड़ना होगा।' शागिर्द तैयार हो गया। दंगल वाले दिन सभी एक मैदान में जमा हो गए। सबको यकीन था कि शागिर्द के आगे उस्ताद ठहर नहीं पाएगा। देखते ही देखते दोनों भिड़ गए। लेकिन ये क्या! उस्ताद ने एक दाँव मारा और शागिर्द चारों खाने चित्त। सभी दर्शक हैरानी से उसे धूल चाटते हुए देखने लगे। बादशाह खुशी से नाच उठा, क्योंकि उसे भरोसा था कि ऐसा ही होगा। इस पर उस्ताद बादशाह से बोला- हुज़ूर! इस हार में इसकी नहीं, मेरी ही गलती है, क्योंकि यह दाँव मैने अभी तक इसे सिखाया ही नहीं था। सच कहूँ तो आज के जैसे ही दिन के लिए बचा रखा था।' उस्ताद की बातें सुन शागिर्द पानी-पानी हो गया।
     दोस्तो, इसीलिए कहते हैं कि उस्ताद से उस्तादी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि करोगे तो नतीज़ा ऐसा ही रहेगा यानी मुँह की खाओगे। वह आपको एक ही दाँव में धूल चटा देगा, क्योंकि आप जो भी दाँव-पेंच जानते होंगे, वह आपने उसी से तो सीखे होंगे। जब वही दाँव आप उस पर आजमाएँगे तो वह तो पहले से ही उसके लिए तैयार रहेगा और आपका दाँव बेकार चला जाएगा। इसके बाद वह ऐसा दाँव मारेगा जो आप जानते भी नहीं होंगे और आप चारों खाने चित्त हो जाएँगे यानी नतमस्तक हो जाएँगे। इसलिए दुनियाँ से पंगा ले लो, लेकिन उससे कभी मत लो जिससे आपने सीखा हो, जो आपका गुरु हो। कहते भी हैं कि गुरु की विद्या गुरु पर नहीं चलाई जाती। इससे नुकसान आपका ही होता है। वैसे भी जिस गुरु से गुर सीखकर आप गुड़ से शक्कर हुए हैं, गुरूर में आकर यदि उसी गुरु पर गुर आजमाओगे तो सब गुड़-गोबर हो जाएगा।
     हम यह बात बार-बार इसलिए दोहरा रहे हैं कि अकसर लोग यह बात भूल जाते हैं। कामयाबियाँ उनके सिर चढ़कर ऐसे बोलती हैं कि वे उनका सारा श्रेय खुद ही लेने लगते हैं। यहाँ तक कि कई बार वे अपने गुरु को ही नीचा दिखाने की सोचने लगते हैं। यदि आप भी ऐसा ही कुछ करते हैं और सोचते हैं कि आप अपने गुरु से बहुत आगे निकल चुके हैं, अब आपको किसी की ज़रूरत नहीं है, तो आप गलत हैं, क्योंकि ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं है। आज सब कुछ आपके पक्ष में जा रहा है तो कल विपरीत भी जा सकता है। तब ऐसी परिस्थितियाँ खड़ी हो सकती हैं, जिनसे निपटने का आपको अनुभव नहीं होता है। ऐसे में एक गुरु, गाइड या उस्ताद ही आपके काम आता है। श्री कबीर साहिब जी ने कहा भी है- “
कबिरा ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
                   हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।।
     अर्थात् वे लोग अंधे हैं, अज्ञानी हैं, जो गुरु को ईश्वर से कमतर आँकते हैं, जबकि ईश्वर के रूठने पर तो गुरु का आसरा मिल जाता है, लेकिन यदि गुरु रूठ जाए तो कहीं भी आसरा नहीं मिलता। और आपको ऐसे अनेक लोग मिल भी जाएँगे, जो अपनी ऐसी ही गलती की सजा भुगत रहे होंगे। यानी जिन्होंने उसी को डुबाने की कोशिश की होगी, जिसने उन्हें तैरना सिखाया। इस तरह अपनी मूर्खता के चलते वे खुद ही डूब गए। इसलिए आप कितने भी आगे बढ़ जाएँ, कभी खुद को अपने गुरु से बेहतर, उससे आगे न समझें, क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता।

Thursday, March 3, 2016

मंत्र के सहारे ही नहीं चलता तंत्र


     वाराणसी का राजपुरोहित जंगल में सम्मोहन मंत्र की सिद्धि के लिए जाप कर रहा था। तभी वहाँ से एक गीदड़ गुज़रा। वह भी झाड़ी में छिपकर मंत्र को दोहराने लगा। इधर मंत्र सिद्ध होने पर पुरोहित खुशी से चीख पड़ा कि इस मंत्र पर मेरा ही अधिकार है। तभी गीदड़ हँसता हुआ उसके सामने आया और बोला-पुरोहित जी, इस मंत्र पर मेरा भी अधिकार है। अब आप देखना मैं इस मंत्र के सहारे दुनियाँ पर राज करूंगा। इस पर पुरोहित ने उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन वह भाग निकला। बाद में उस मंत्र से उसने जंगल के सभी जानवरों को अपने वश में कर लिया। यहाँ तक कि शेर जैसे खूँखार और हाथी जैसे विशालकाय जानवर भी उसकी जी-हुज़ूरी करने लगे।
     इस तरह वह जंगल का राजा बन गया। अब वह वाराणसी पर कब्ज़ा करने की सोचने लगा। एक दिन उसने दो हाथियों के ऊपर शेर को खड़ा किया और उस पर बैठकर अपनी फौज सहित वाराणसी पहुँच गया। किले को चारों ओर से घेरने के बाद उसने वहाँ के राजा को संदेश भिजवाया कि वह उसकी अधीनता स्वीकार कर ले अन्यथा मरने को तैयार हो जाए। संदेश पाकर राजा चिंतित हो गया। उसे चिंतित देखकर पुरोहित बोला-महाराज, आप परेशान न हों। उस गीदड़ से मैं निपटता हूँ। इसके बाद किले की प्राचीर पर जाकर उसने गीदड़ से पूछा कि आखिर वह नगर पर अधिकार करेगा कैसे, क्या उसे युद्ध का तरीका पता है? गीदड़ बोला- मैं शेरों से दहाड़ने को कहूँगा। इससे अफरा-तफरी मच जाएगी और मैं नगर पर अधिकार कर लूँगा। मन ही मन मुस्कुराकर पुरोहित बोला-तुम्हारी योजना अच्छी तो है लेकिन क्या ये खूँखार पशु तम्हारा आदेश मानेगे। गीदड़ पुरोहित की बातों में आ गया और उसने शेरों को दहाड़ने का आदेश दे दिया। शेरों की दहाड़ सुनकर जानवरों में अफरा-तफरी मच गई। हाथी भी घबराकर भागे जिससे उनके ऊपर खड़ा शेर और उस पर बैठा गीदड़ जमीन पर आ गिरा और हाथी के पाँव तले कुचलकर गीदड़ मर गया।
     दोस्तो, कहते हैं मंत्र से ही नहीं चलता तंत्र। लेकिन शायद उस गीदड़ को यह पता नहीं था। वह यह भी नहीं जानता था समूह बनाकर ही व्यक्ति नेता नहीं बन जाता। इसके लिए तो नेतृत्व क्षमता का होना आवश्यक है। यदि आप में नेतृत्व क्षमता ही नहीं होगी तो समूह का सही संचालन कैसे कर पाओगे। तब तो वही समूह आपके लिए विनाशकारी सिद्ध हो जाएगा, जिसका कि आप नेतृत्व कर रहे होते हैं। वैसे यह सामान्य सी बात है, लेकिन बड़ी सफलता पाने का इरादा रखने वाले कुछ लोग यह नहीं समझते। उनके लिए तो कुशल नेतृत्व का मतलब है कि बड़ी-बड़ी बातें कर लोगों को प्रभावित करना और अकसर लोग इनकी बातों में आकर इनके पीछे हो लेते हैं। इनमें कई लोग तो इनसे भी ज्यादा योग्य और क्षमतावान होते हैं। इनकी बातों से वे इतने भ्रमित हो जाते हैं कि उन्हें लगने लगता है कि उनका नेतृत्व करने के लिए इनसे बेहतर व्यक्ति कोई हो नहीं सकता, लेकिन जब कुछ करके दिखाने का समय आता है तो डींग हाँकने वाले ऐसे लोगों की पोल खुल जाती है।
     तब पता चलता है कि ये केवल बातों के धनी थे, हाथो के नहीं। तब इनकी स्थिति उस गीदड़ जैसी ही हो जाती है। यदि आप भी किसी मंत्र के सहारे या यूं कहें कि भाग्य के सहारे किसी बड़े पद को पाने में सफल हो गए हैं तो खुद का आंकलन करिए कि क्या आप उस पद से जुड़ी हुई ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने की स्थिति में हैं? क्या आप लोगों को साथ लेकर चल सकते हैं? यदि नहीं तो सबसे पहले अपने अंदर नेतृत्व क्षमता का विकास करें। एक अच्छा लीडर उसी को कहा जाता है जो हर परिस्थिति में अपनी टीम के अंदर उत्साह का संचार कर सके। वह अपने विवेक से चले न कि कोई उसे चलाए। क्योंकि जिसके अंदर नेतृत्व क्षमता नहीं होती वह खुद से ज्यादा दूसरों पर भरोसा करता है। वह इस गलतफहमी में रहता है कि कमान उसके हाथ में है जबकि उसकी अयोग्यता और कमजोरी का फायदा उठाकर कोई दूसरा ही उसे चला रहा होता है जैसे कि उस पुरोहित ने गीदड़ को अपने हिसाब से चला लिया। ऐसा लीडर अपना और अपनी टीम दोनों का ही नुकसान करता है। इसलिए बेहतर यह है कि लीडर बनने से पहले अपने अंदर लीडरशिप क्वालिटी पैदा की जाए। ठीक कहा न।

Wednesday, March 2, 2016

करोगे मिथ्या अभिमान तो चला जाएगा मान


     गोकुल में इंद्राज यज्ञ की तैयारियों को देखकर कृष्ण ने नंद बाबा से इंद्र की ही पूजा किए जाने का कारण पूछा। नंद बाबा बोले- बेटा, इंद्र मेघों के स्वामी हैं। वे वर्षा कर सभी को तृप्त करते हैं। उन्हीं की वजह से खेती आदि के हमारे प्रयत्न सफल होते हैं। इसलिए यज्ञ कर हम उन्हें प्रसन्न करते हैं। इस पर कृष्ण बोले-बाबा, व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार ही फल मिलते हैं, न कि किसी की पूजा-उपासना से। यदि पूजन करना ही है तो हम गोवर्धन पर्वत का करें, क्योंकि हम बनवासी हैं और हमारा भरण-पोषण वनों के माध्यम से ही होता है। कृष्ण की बात सभी को जंच गई और अन्नकूट बनाकर गोवर्धन की पूजा की गई। यह बात जब इंद्र को पता चली तो उनकी त्यौरियाँ चढ़ गर्इं। इंद्र को अपने पद का बड़ा घमंड हो गया था। उन्हें लगने लगा था कि मैं ही सर्वशक्तिशाली हूँ और सबका पालनहार हूँ। कृष्ण ने इंद्र के इसी अहंकार को दूर करने के लिए उनकी पूजा बंद कराई थी।
     तिलमिलाए इंद्र ने अपने प्रलयकारी मेघों को आदेश दिया कि गोकुल जाकर सभी कुछ बहा दो। इस पर मेघ व्रजभूमि में जाकर मूसलधार बारिश करने लगे। इससे बाढ़ की स्थिति बन गई। भयभीत लोग कृष्ण के पास पहुंचे। कृष्ण ने सभी को गोवर्धन पर्वत की शरण में जाने को कहा। कृष्ण ने वहाँ जाकर अपनी किनिष्ठा उंगली पर गोवर्धन को उठा लिया। सभी लोग पर्वत के नीचे आकर बैठ गए। तब मेघों ने और तेज़ बरसना शुरू कर दिया लेकिन उनकी एक न चली। अंततः सात दिनों बाद इंद्र ने हार मान ली और मेघों को थमने का आदेश दिया। जल्दी ही सारे बादल छँट गए। कृष्ण ने सभी लोगों को बाहर निकलने को कहा। इसके बाद उन्होने पर्वत को अपने स्थान पर रख दिया। तभी इंद्र वहां आए और अपनी मूर्खता के लिए क्षमा याचना करने लगे।
     दोस्तो, इसीलिए कहते हैं कि व्यक्ति को कभी अपने पद और शक्तियों का घमंण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि जिन पद और शक्तियों को हासिल करके आप यह सोचते हैं कि अब सब कुछ आपके हिसाब से होगा, तो ऐसा नहीं होता। यह मिथ्या बातें हैं। इसीलिए पद और शक्तियों के अभिमान को मिथ्या अभिमान की संज्ञा दी गई है। यह अभिमान एक न एक दिन व्यक्ति के मान-मर्दन का कारण बनता ही है, जैसे कि इंद्र के लिए बना। इंद्र की ही तरह उच्च पद पर बैठे बहुत से लोगों को यह अहं हो जाता है कि सारी संस्था उनकी वजह से चल रही है, आगे बढ़ रही है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इनके पद के कारण लोगों से मिलने वाले सम्मान से इनका दिमाग खराब हो जाता है। ऐसे में "कर्म ही पूजा है' को मानने वाला कोई व्यक्ति जब इनके दरबार में हाज़िर होने की बजाय अपने काम से अपने आपको साबित करने की कोशिश करता है तो ऐसे लोग उससे चिढ़कर उसका नुकसान करने का प्रयास करने लगते हैं। ये भूल जाते हैं कि जो काम करता है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ऐसे में उस व्यक्ति का तो कुछ नहीं बिगड़ता, अभिमानी को ज़रूर अपने किए के लिए नीचा देखना पड़ता है।
     दूसरी ओर, लोग व्यक्ति की नहीं कुर्सी की पूजा करते हैं। इसलिए किसी कुर्सी पर बैठकर यह मत सोचो कि अब आप सब कुछ कर सकते हैं, आप नहीं करेंगे तो कोई नहीं कर पाएगा, यह सोच गलत है। इंद्र यही सोचते थे कि वर्षा उनकी वजह से होती है, क्योंकि मेघ उनके अधीनस्थ थे। लेकिन शास्त्रों में ऐसे अनेक उल्लेख हैं जब इंद्र को अपना आसन खोना पड़ा। लेकिन ऐसे में बारिश होना बंद नहीं हो गई थी। तब मेघ उसके अधीन आ गए जो उस समय सिंहासन पर था। फिर भले ही वह महिषासुर जैसा असुर ही क्यों न हो। इसलिए अपने पद के मद में ऐसा कुछ न करें, जिसका परिणाम आपको भुगतना पड़े।    

Tuesday, March 1, 2016

भूल ना जाना स्वयं को गिनना

     एक गाँव के बारह लोग एक साथ चारधाम यात्रा पर निकले। रास्ते में उन्हें एक नदी मिली। अब समस्या खड़ी हो गई कि नदी को पार कैसे करें, क्योंकि कोई साधन नहीं था। तभी एक व्यक्ति बोला-चलो हम सब एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नदी पार कर लेते हैं। इसके बाद सभी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर आगे बढ़ते गए। बीच में एकाध बार उनका संतुलन भी बिगड़ा, लेकिन वे हर बार संभले और नदी पार कर ली।
     पार पहुँचने के बाद उनमें से एक बोला-चलो अब अपनी गिनती कर लेते हैं, ताकि पता चल जाए कि हममें से कोई नदी में तो नहीं बह गया। इस पर सभी ने हामी भर दी। इसके बाद सभी को एक पंक्ति में बैठाकर उसने गिनना शुरू कर दिया। वह चौंककर बोला-अरे, ये तो ग्यारह ही हैं। एक आदमी कहाँ गया? मुझे दिख तो सभी रहे हैं। ये क्या चक्कर है? कोई और गिनो। और वह दूसरे व्यक्ति को खड़ा कर पंक्ति में बैठ गया। दूसरे ने गिना तो उसकी गिनती भी ग्यारह पर ही अटक गई। इस तरह सभी ने गिनती कर ली, लेकिन गिनती में आए ग्यारह ही। फिर क्या था, सभी लगे रोने कि उनका एक साथी नदी में बह गया।
     तभी वहाँ ले गुज़र रहे एक यात्री ने उनसे रोने का कारण पूछा। इस पर उन्होने कारण बताया। यात्री समझ गया कि सभी ने अपने आपको छोड़कर बाकी को गिन लिया होगा। वह बोला-यदि मैं तुम्हारे बारहवें साथी को वापस ला दूँ तो तुम मुझे क्या दोगे? वे सब बोले- हम तुम्हें देवता मान लेंगे। इसके बाद उसने सभी को बैठाकर कहा कि मैं सभी के मुँह पर एक-एक चाँटा लगाऊँगा। सब बढ़ते क्रम में गिनती बोलना। सभी राजी हो गए और उसने चपत लगाना शूरु कर दिया और बारह के बारह गिन डाले। सभी उस यात्री को चमत्कारी मानकर उसके पैरों में गिर पड़े।
     दोस्तो, यही होता है खुद को न गिनने का परिणाम। जो खुद को नहीं गिनता उसे रोना ही पड़ता है। क्योंकि जब आप खुद को गिनेंगे नहीं, तो अपने आपमें सुधार कैसे कर पाएँगे। फिर तो आप जैसे हैं, वैसे ही रह जाएँगे। आपकी कमियाँ, कमजोरियाँ सब आपके अंदर बनी रहेंगी। आपकी खूबियाँ शक्तियाँ उजागर नहीं हो पाएँगी। वे दबी ही रह जाएँगी। तब ऐसे में आपके आगे बढ़ने के, कामयाबी हासिल करने के ख्वाब सिर्फ ख्वाब ही रह जाएँगे। इसलिए यदि आप चाहते हैं कि आप भी गिनती में आएँ, तो आपको पहले खुद को गिनना पड़ेगा।
     दूसरी ओर, कुछ लोगों की आदत होती है कि उनका ध्यान हमेशा दूसरों में ही अटका रहता है कि दूसरे क्या गलत कर रहे हैं। वैसे ऐसा अकसर हम सभी के साथ होता है। हम चाहते हैं कि दूसरे खुद को सुधारें। वे जो करें, अच्छा करें। लेकिन हम खुद को सुधारना नहीं चाहते। इसका कारण यह है कि हमारा अपनी गलतियों की ओर ध्यान ही नहीं जाता और न ही हमें इससे मतलब होता है। यह गलत है। यदि आप सामने वाले को सुधारना चाहते हैं तो ज़रूरी है कि पहले खुद को सुधारें। क्योंकि अधिकतर होता यह है कि हम खुद गलत होने के बावजूद दूसरे को गलत समझते रहते हैं। यहाँ भी वही खुद को न गिनने वाली प्रवृत्ति ही काम करती है।
     वैसे खुद की गिनती न करने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण यह भी होता है कि हम गलतफहमी में, रहते-जीते हैं कि हम खुद को अच्छी तरह जानते हैं। हमारे अन्दर यह भाव काम करता है कि खुद को भी कोई भूलता है भला। कहते हैं याद उन्हे किया जाता है जिन्हें भूल जाते हैं। हम खुद को यही सोचकर याद नही करते। जबकि हम दुनियाँदारी में फँसकर वाकई में स्वयं से अपरिचित से हो गए हैं। हमे बाकी सब तो याद रहता है, लेकिन हमारी याददास्त अपने बारे कम हो गई है। अधिकतर असफल लोग इसी कारण गिनती से बाहर हो गए हैं। साथ ही छोटी मोटी कामयाबी हासिल करने वाले सिर्फ यह सोचकर चुप बैठ गए कि अब तो वे गिनती में आ गए हैं। अब उन्हें कुछ करने की क्या जरूरत। और इस तरह वे किसी बड़े मुकाम तक नहीं पहुँच पाए।
     यानी कुल मिलाकर गिनती में आने के लिए पहले खुद को गिनो यानी खुद को पहचानो। अपनी कमजोरियों पर काबू पाओ, खूबियों को तराशो और फिर गिन-गिन कर कदम आगे बढाओ। यदि आप ऐसा करेंगे तो सभी की गिनती आपसे ही शुरू होगी।