Saturday, September 24, 2016

दुरपयोग न करें पद व सुविधाओं का


     चंद्रगुप्त के मगध के सिंहासन पर बैठने के बाद चाणक्य महामंत्री बनकर राजकाज में उनका हाथ बँटाने लगे। वे राजनीति व अर्थशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। एक बार चीन का राजदूत चंद्रगुप्त से मिलने आया। वह बहुत ही शाही प्रवृत्ति का अहंकारी व्यक्ति था
और पूरे राजसी ठाठबाट से रहने का आदी था। उसने चाणक्य से भेंट का समय माँगा। चाणक्य चूंकि बहुत ही व्यस्त रहते थे, इसलिए उन्होने रात्रि में मिलनेे का समय दिया।
     राजदूत नियत समय पर चाणक्य से मिलने पहुँचा। वहाँ जाकर उसने देखा कि जिस व्यक्ति से वह भेंट करने आया है, वह तो एक साधारण-सी-कुटिया में रहता है। उसे बहुत आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगा कहीं वह गलत आदमी से मिलने तो नहीं आ गया। ऐसा सोचता हुआ वह कुटिया के अंदर पहुंचा। वहां एक दीए की लौ के सामने बैठे चाणक्य कुछ पढ़ रहे थे। राजदूत की हैरानी और बढ़ गई। वह सोच रहा था कि महान सम्राट चंद्रगुप्त का महामंत्री चाणक्य छोटे-से दीए की लौ में अपनी आँखें फोड़ रहा है। इससे तो मैं अच्छा हूँ। एक राजदूत होकर भी सभी राजसी सविधाएं मुझे प्राप्त हैं।
     इस बीच चाणक्य की दृष्टि राजदूत पर पड़ी। उन्होने उठकर उसका अभिवादन किया और आसन ग्रहण करने को कहा। इसके पहले कि उन दोनों के बीच वार्तालाप प्रारंंभ हो, चाणक्य ने एक दूसरा दीया जलाया और पहले वाले दीए को बुझा दिया। राजदूत की समझ में यह बात नहीं आई। इसके पहले कि वह कुछ पूछता, उनके बीच औपचारिक बातें शुरू हो गई। उसने दोनों देशों के आपसी संबंधों और राजनीति पर बहुत-सी बातें चाणक्य से की। अंत में जब उनकी बातें खत्म हो गर्इं तो चाणक्य ने पहले वाला दीया फिर से जला दिया और जो जल रहा था, उसे बुझा दिया। अब तो राजदूत से रहा नहीं गया। उसने चाणक्य से दीया जलाने-बुझाने का रहस्य पूछा।
     चाणक्य ने कहा-कोई विशेष बात नहीं। जब आप यहाँ आए थे, तब मैं स्वाध्याय कर रहा था। उस समय जो दीया जल रहा था, वह मेरा व्यक्तिगत था। यानी अपने काम के लिए मैं अपने दीए का उपयोग कर रहा था। जब मैं आपसे बातचीत करने लगा तो मैने अपना दीया बुझाकर दूसरा दीया जला दिया। यह काम राजकीय था, इसलिए राजकीय दीया जलाना ज़रूरी था। जब मैं स्वाध्याय कर रहा था, तब मैं चाणक्य था और जब आपसे चर्चा कर रहा था, तब महामंत्री चाणक्य था। मैं महामंत्री और आम आदमी के बीच का अंतर और उनके उत्तरदायित्व अच्छी तरह समझता हूँ। चाणक्य की बात सुनकर चीन का राजदूत पानी-पानी हो गया। उसका सारा अहंकार जाता रहा। वह चाणक्य से बोला-महात्मन्! आपके जैसे महापुरुष से मिलकर मैं धन्य हो गया। आज आपने मुझे राजनीति का सबसे बड़ा पाठ सिखा दिया। राजनेता को अपने पद और सुविधाओं का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।
     चीनी राजदूत तो चाणक्य से राजनीति की शिक्षा लेकर अपने देश लौट गया, लेकिन विडम्बना यह है कि उसके देश के अधिकांश राजनेता आज तक राजनीति का यह पाठ नहीं सीख पाए। सवाल यह उठता है कि क्या यह बात सिर्फ राजनेताओं तक ही सीमित है? नहीं, बिलकुल नहीं। यह हम सभी पर लागू होती है। हममे से कितने लोग ऐसे हैं, जो अपनी संस्था द्वारा दी जा रही सुविधाओं का दुरुपयोग नहीं करते। निश्चित ही बहुत कम हैं। मुफत की सुविधाओं का तो हम बिना सोचे-विचारे उपभोग करते हैं, उन्हें बर्बाद करते हैं। इस प्रकार जाने-अनजाने में संस्था की संपत्ति को नुकसान पहुँचाते हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि ये सुविधाएँ उन्हें इसलिए दी जाती हैं ताकि इनके अभाव के कारण उनका कार्य प्रभावित न हो। जब आप इनका दुरुपयोग करेंगे तो इसका तात्कालिक असर आप पर भले ही न पड़े, लेकिन इसके दूरगामी परिणामों से आप बच नहीं सकते। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि प्रबंधन की नज़र में आपका चारित्रिक ग्राफ गिरता है। इसकी जगह जो लोग इन बातों को ध्यान में रखकर व्यवहार करते हैं, प्रबंधन की नज़र में वे ऊपर चढ़ते हैं और तरक्की पाते है। इस प्रसंग में चाणक्य ने हर स्थिति में एक ही दीये से काम चलाया। क्यों? क्योंकि जहाँ एक दीये के प्रकाश से काम चल सकता है, वहाँ अतिरिक्त दीये जलाकर ऊर्जा का दुरुपयोग करने का क्या लाभ।

Wednesday, September 21, 2016

शिष्य की गढ़त


     स्वामी रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को हमेशा एक माँ की तरह ही स्नेह से रखते थे। वे अपने शिष्यों के साथ खेलते, हँसी-ठिठोली करते, भोजन करते और अपने स्वभावानुसार बहुत ही सहज तरीके से उन्हें व्यावहारिक व आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा भी देते। उनके शिष्य भी अपने गुरु के प्रति पूरी तरह समर्पित थे।
     एक बार उनका निरंजन नामक शिष्य नाव में बैठकर गंगा पार कर रहा था। नाव में और भी लोग सवार थे। अचानक दो व्यक्ति रामकृष्ण के बारे में बातें करने लगे। एक बोला-तुमने रामकृष्ण को देखा है? वह पागलों की तरह व्यवहार करता है। इस पर दूसरा व्यक्ति बोला-नहीं, देखा तो नहीं, लेकिन सुना ज़रूर है। सुनते हैं कि एक पहलवान से ज्यादा खुराक है उसकी। उन दोनों से अपने गुरु की निंदा सुनकर निरंजन को क्रोध आ गया। वह उन्हें टोकते हुए बोला- हे महाशय! सुनो, उनके बारे में अब एक शब्द भी उलटा मत बोलना। मैं उनका शिष्य हूँ, मैं जानता हूँ वे क्या हैं। वे पहुँचे हुए महात्मा हैं।
     इस पर एक व्यक्ति बोला-तुम भी पागल हो जो उस पागल की बातें मानते हो। उसकी बात सुनकर निरंजन का क्रोध और बढ़ गया। वह चेतावनी देते हुए बोला-यदि तुमने मेरे गुरु के विरुद्ध अब एक शब्द भी बोला तो मैं तुम्हें उठाकर नदी में फेंक दूँगा। बात बढ़ती देख अन्य यात्रियों ने बीच-बचाव करके जैसे-तैसे मामला शांत किया। जब निरंजन अपने गुरु के पास पहुँचा तो उसने नाव वाली घटना उन्हें बताई। उसकी बात सुनकर रामकृष्ण बोले- तुम्हें इतनी-सी बात पर इतना अधिक नाराज़ होने की क्या आवश्यकता थी? क्या उनके कहने का मुझ पर कोई असर हुआ? तुम्हें कभी भी दूसरों के द्वारा कही गई अनर्गल बातों को सुनकर अपना आपा नहीं खोना चाहिए। हमेशा हर स्थिति में अपना संतुलन बनाकर रखना चाहिए। निरंजन ने गुरु की बात को अपने मन में उतार लिया और बात आई-गई हो गई।
     इस घटना के कुछ समय बाद स्वामी जी का जोगिन नामक एक और शिष्य कहीं खड़ा था कि अचानक उसके पास ही खड़े दो व्यक्ति रामकृष्ण का उपहास उड़ाने लगे, लेकिन जोगिन ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। वह चुपचाप खड़ा उनकी बातें सुनता रहा। वैसे भी वह बहुत ही शांत व शर्मीला प्रकृति का युवक था। बाद में जब रामकृष्ण को इस बात का पता चला तो उन्होने जोगिन को बुलाकर समझाया-पुत्र! जब वे लोग तुम्हारे गुरु का, अनादर कर रहे थे तो तुमने मेरे पक्ष में एक शब्द भी नही कहा। क्या तुम्हारे मन में मेरे लिए इतनी ही श्रद्धा व सम्मान है? जोगिन को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसे भविष्य में इसे न दोहराने का विश्वास दिलाया।
     जब यह घटना निरंजन को पता चली तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। उसे समझ में ही नहीं आया कि गुरु ने उसे कुछ और कहा और जोगिन को कुछ और! यह बात उसने अपने गुरुभाई नरेन को बताई तो उसने उसे समझाया अरे! तुम्हें इतनी-सी बात समझ में नहीं आई। जानते नहीं, वे हम सभी का व्यक्तित्व सुधार रहे हैं। तुम्हारा स्वभाव बहुत ही तेज़ है। तुम ज़रा सी बात पर गर्म हो जाते हो, तो वे चाहते हैं कि तुम शांत रहना सीखो। उधर जोगिन एकदम दब्बू व डरपोक है।  उसकी हिम्मत ही नहीं होती किसी के सामने मुँह खोलने की। इसलिए गुरु जी चाहते हैं कि उसके व्यवहार में थोड़ी दृढ़ता आए, जिससे कि उसकी कायरता दूर हो। निरंजन को नरेन की बात समझ में आ गई। कैसे न आती समझ में, जब समझाने वाला अपने गुरु का प्रिय शिष्य नरेन हो, जिसे बाद में दुनियाँ ने स्वामी विवेकानंद के रुप में जाना।
     ऐसे होते हैं सच्चे गुरु, जो अपने शिष्यों के व्यक्तित्व की छोटी-छोटी कमियों पर भी बड़ी बारीकी से ध्यान देते हैं। और न केवल ध्यान देते हैं, बल्कि बड़ी ही सहजता से उन्हें दूर कर उनके व्यक्तित्व में निखार लाते हैं। जहाँ तक रामकृष्ण जी की बात है, तो उन्हें बचपन से ही मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने का बड़ा शौक था। वे मिट्टी को बड़ी ही कोमलता से ढालकर ऐसी मूर्ति गढ़ते थे कि लगता था कि साक्षात् देव खड़े हों। उन्होने अपने शिष्यों को भी इसी कोमलता के साथ गढ़कर सामान्य पुरुष से महापुरुष के रूप में परिवर्तित कर दिया। इसीलिए शायद गुरु की तुलना कुम्हार से की गई है जो अपने कुंभ रूपी शिष्य को कोमलता के साथ पीट-पीटकर मनचाहे आकार में ढाल देता है। यही स्वामी रामकृष्ण ने भी किया। स्वामी जी का जीवन व्यवहारिकता का एक आदर्श उदाहरण है। वे हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि ज्ञान विकसित होकर विवेक में परवर्तित होना चाहिए, तभी उसके माध्यम से जीवन में आनंद की प्राप्ति संभव है।

Friday, September 16, 2016

विचारों का प्रभाव


     बहुत समय पूर्व एक गाँव में एक सीधी-सादी वृद्धा रहती थी। उसकी इकलौती बेटी का विवाह पास के ही एक गाँव में हुआ था। एक बार उसकी इच्छा अपनी बेटी से मिलने की हुई। उसने अपना सामान एक पोटली में बाँधा, जिसमें उसने बेटी के लिए अपने हाथ से बनाए पापड़, अचार आदि भी रख लिए और सिर पर रखकर बेटी से मिलने पैदल चल पड़ी।
     पोटली का बोझ और तपती धूप के कारण वह जल्दी ही थक गई। वह मन ही मन सोचने लगी-काश! उसकी सहायता के लिए कोई राहगीर मिल जाए। वह सोच ही रही थी कि उसे तेज़ी से आता हुआ एक घुड़सवार दिखाई दिया। उसे देखते ही वृद्धा हाथ हिलाते हुए पुकारने लगी-"अरे ओ बेटा! ओ घोड़े वाले। ज़रा सुन तो बेटा। इस वृद्धा की सहायता कर। उसकी आवाज़ सुनकर घोड़े वाला रुक गया। उसने पूछा-क्या है बुढ़िया। क्यों शोर मचा रही है? कौन सी आफत आ गई है तेरे ऊपर, जो सहायता के लिए मुझे पुकार रही है। उसकी बात सुनकर वह बोली-नाराज़ न हो बेटा। मैं पास वाले गाँव में जा रही हूँ। चलते-चलते और पोटली के वजन से थक गई हूँ। तू यदि उसी तरफ जा रहा हो तो मुझे भी अपने घोड़े पर बैठाकर ले चल। इस पर युवक बोला-अरे, मैं तुझे कहाँ बैठाऊँगा अपने घोड़े पर। जगह ही कहाँ है? देखती नहीं इस पर कितना समान लदा है। तब वह बोली-कोई बात नहीं बेटा, तो फिर तू मेरी पोटली ही अपने घोड़े पर रख ले जा। मैं पीछे-पीछे आ रही हूँ। वहाँ आकर इसे ले लूंगी।
     वृद्धा की बात सुनकर वह घुड़सवार बोला-क्या बात करती है बुढ़िया। तू पैदल है और मैं घोड़े पर। मैं तो वहाँ फटाफट पहुँच जाऊंगा और तू पीछे-पीछे न जाने कब पहुँचेगी मैं कब तक तेरा इंतज़ार करूँगा? ऐसा कहकर वह उसे झिड़कते हुए आगे बढ़ गया। वह कुछ ही दूर पर पहुँचा होगा कि उसके मन में विचार आया-कितना मूर्ख हूँ मैं। वह मुझे अपनी पोटली दे रही है और मैं उसे मना कर रहा हूँ। हो सकता है पोटली में कोई कीमती सामान हो। कहीं ऐसा न हो कि हाथ आई लक्ष्मी वापस चली जाए। ऐसा करता हूँ कि मैं जाकर उससे पोटली लेकर रफूचक्कर हो जाता हूँ। वह कौन-सी मुझे जानती है, जो बाद में ढूँढ लेगी। वैसे भी उसे गाँव तक पहुँचते-पहुँचते बहुत समय लग जाएगा। तब तक तो मैं न जाने कहाँ का कहाँ पहुँच जाऊँगा।
     ऐसा विचार आते ही वह घुड़सवार वापस आया और वृद्धा से बोला-अम्मा! लाओ, आप यह पोटली मुझे दे दो। मैं इसे ले जाकर गाँव की चौपाल पर बैठ जाता हूँ, आप वहाँ आकर मुझसे ले लेना। उसकी मीठी-मीठी बात सुनकर वृद्धा तुरंत बोली-न बेटा न। अब तो तू चला जा। यह पोटली अब मैं तुझे नहीं दूँगी। इस पर वह आश्चर्य से बोला-अरे, क्या हुआ अम्मा। अभी तो आप मुझे इसे ले जाने को कह रही थीं और जब मैं मान गया हूँ तो मना कर रही हो। क्या बात है। यह उलटी बात आपके मन में कैसे आई?
     वृद्धा मुस्कराकर बोली-वैसे ही बेटा जैसे तेरे मन में आई कि जाकर बुढ़िया से पोटली ले आ। अब जो तेरे भीतर है, वह मेरे भी भीतर है। तुझे उसने कहा, बुढ़िया से पोटली ले ले और भाग जा। वैसे ही मुझे उसने कहा-प्रेम से बोल रहा है, ज़रूर दगाबाज़ी करेगा। पोटली दे देगी तो भाग जाएगा। इसलिए अब तो यह पोटली मैं तुझे नहीं दूँगी। जा चला जा। इसके बाद वह घुड़सवार शर्मिंदा होकर वहाँ से चला गया।
     देखा आपने, एक व्यक्ति के  मन में उठा नकारात्मक विचार दूसरे व्यक्ति के विचारों को किस तरह प्रभावित करता है। उस घुड़सवार के मन में गलत बात आते ही जब वह वृद्धा के पास पहुँचा तो उसके भी मन में उलटे विचार ही उठे। यहाँ मुद्दा यह नहीं है कि उसके मन में जो विचार आया वो कितना सही या चतुराई भरा था। उसने सही सोचा ना। यानी हमारे सोचने के तरीके का प्रभाव हमारे आसपास के लोगों पर भी पड़ता है। इसलिए कह सकते हैं कि यदि हमारी सोच नेगेटिव है तो हमारे आसपास के लोगों की भी सोच नेगेटिव होने लगती है। भारतीय दर्शन में इसे समझाते हुए कहा गया है कि मन में नकारात्मक विचार उठने के साथ ही मस्तिष्क से ऋणात्मक धाराएँ बहने लगती हैं, जो आपके चारों ओर के वातावरण को नकारात्मक बनाती है। ये आपको तो प्रभावित करती ही है, साथ ही आपके संपर्क में आने वाले व्यक्ति को भी अपनी चपेट में ले लेती हैं। इन्हीं के प्रभाव से व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है।
     सोचिए कितनी खतरनाक हैं ये धाराएं। इसलिए हमें अपने मन में आने वाले नकारात्मक विचारों पर अंकुश लगाकर ऐसी धाराओं को बहने से रोकना होगा।

Monday, September 12, 2016

डोलते ही रहते हैं डाँवाडोल इंसान


     एक बार एक गुरु अपने शिष्यों के साथ जंगल में जड़ी-बूटियाँ खोज रहे थे। जब बहुत समय हो गया तो उन सभी को प्यास लगने लगी। वे जड़ी-बूटियों की खोज छोड़कर पानी की तलाश में लग गए। तलाशते-तलाशते वे जंगल के बाहर आ गए। वहाँ उन्हें एक खेत दिखाई दिया जिसमें कई गड्ढ़े थे। एक  शिष्य बोला-गुरु जी! उधर देखिए। उस खेत में कई कुएं हैं। उनमें अवश्य ही पानी होगा। चलिए, वहाँ चलकर अपनी प्यास बुझाएँ। वे सभी उस खेत की ओर चल पड़े।
     खेत के नज़दीक पहुँचकर उन्होने देखा कि वे कुएँ नहीं सिर्फ कुछ ही गहरे गड्ढ़े थे और उनमें पानी भी नहीं था। सभी उदास हो गए। तभी गुरुजी को एक बात सूझी। उन्होने अपने शिष्यों से पूछा-क्या आपमें से कोई इन गड्ढो का राज़ बता सकता है? क्यों एक ही खेत में कदम-कदम पर इतने सारे गड्ढे खोदे गए हैं। साथ ही इस खेत के मालिक का स्वभाव कैसा होगा? सभी शिष्य सोचने लगे। एक शिष्य बोला-गुरु जी! यह खेत नीश्चित ही किसी शिकारी का होगा। वह बहुत ही चतुर है। उसने यहाँ इतने सारे गड्ढे इसलिए किए हैं ताकि जब भी कोई जानवर इस तरफ आए तो वह किसी न किसी गड्ढे में गिर पड़े और वह उसे पकड़ ले। गुरु जी ने कहा-नहीं ऐसा नहीं है। कुछ और सोचो। इस पर एक और शिष्य बोला-गुरु जी मुझे लगता है कि खेत का मालिक बहुत ही समझदार है। उसने आगामी बारिश का पानी संचित करने के लिए ही ये गड्ढे खोदे होंगे, तकि इस पानी का उपयोग वह साल भर कर सके। इस पर गुरु जी बोले-नहीं, यह बात भी नहीं है। कोई और राज़ बताओ। सभी शिष्य सोचने लगे। जब कुछ समझ में नहीं आया तो उन्होने गुरु जी से ही इसका राज़ बताने का आग्रह किया। गुरु जी बोले-सामान्य-सी बात है। इस खेत का मालिक अस्थिर प्रकृति का इंसान है। जब उसे  पानी की आवश्यकता हुई तो उसने कुआँ खोदना शुरु कर दिया। दस-बारह हाथ खोदने के बाद जब वहाँ पानी नहीं निकलता तो वह धैर्य खो देता और दूसरा गड्ढा खोदने लगता । इस प्रकार उसने कदम-कदम पर गड्ढे खोद दिए और कहीं से भी पानी नहीं निकला। यदि वह अपने स्वभाव की अस्थिरता पर काबू रखकर एक ही गड्ढे को गहरा करता जाता तो उसे कम परिश्रम में ही पानी मिल जाता। इसलिए तुम सबको भी इस घटना से सीख लेनी चाहिए कि जब भी काम हाथ में लो, उसे पूरा करके ही दम लो। भले ही तुम्हें कितनी ही कठिनाइयों का सामना क्यों न करना पड़े। इसके बाद वे सभी पानी की खोज में आगे चल पड़े।
     वे तो आगे निकल गए लेकिन आज की कहानी से हम भी एक गुरु मंत्र खोजने में सफल हो गए कि दुविधाजनक स्थिति कभी भी सुविधाजनक नहीं हो सकती। यह पीड़ादायक होती है। यह व्यक्ति की राह का काँटा होती है जो उसे किसी एक निर्णय पर पहुँचने से रोकती है। अस्थिर मानसिकता का शिकार व्यक्ति जीवन में कभी तय ही नहीं कर पाता कि उसे करना क्या है। ऐसे लोेगों का कोई लक्ष्य नही होता। और लक्ष्यहीन व्यक्ति की संसार में क्या गति होती है, यह तो आप भी जानते हैं। यदि नहीं जानते तो जान लें, कि उसकी दुर्गति होती  है। ऐसे लोग हर काम को जल्दबाज़ी में करने के आदी होते हैं। यानी इन्हें किसी भी काम के परिणाम या रिजल्ट शीघ्र चाहिए। यदि देरी होती है तो ये उस काम को बंद कर दूसरा काम शुरु कर देते हें। लेकिन जो नया काम शुरु करते हैं, उसमें भी इनकी स्थिति डाँवाडोल ही रहती है कि इसमें भी सफलता मिलेगी या नहीं। और इस तरह वे डोलते ही रहते हैं यानी किस भी मुकाम तक नहीं पहुँच पाते।
     बार-बार व्यवसाय या नौकरी बदलने वाले लोगों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ये लोग यह नहीं समझ पाते कि किसी व्यवसाय को शुरु करने के बाद उसे स्थापित होने में समय लगता है। फिर बिना कठिनाइयों के सफलता कैसे संभव है। हाँ कठिनाइयाँ आर्इं, इनका अस्थिर दिमाग असफलता की आशंका से ग्रसित हो जाता है, जिसके फलस्वरूप ये परेशानियों का सामना करने के बजाय अपना रास्ता ही बदल देते हैं। यानी उस व्यवसाय को बंद कर दूसरा शुरु कर देते हैं। ऐसे लोग कैरियर में भी हर समय दुविधा में रहते हैं। क्या करें, क्या न करें, इस बारे में लोगों से रायशुमारी करते रहते हैं लेकिन कोई फैसला नहीं ले पाते। ऐसा होता क्यों है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अस्थिर प्रकृति के लोगों का अपने विचारो पर नियंत्रण नहीं होता। निरंतर बदलते विचार उन्हें किसी एक बात पर स्थिर नहीं रहने देते, जिससे वे अकसर परेशानी में पड़ जाते हैं। ऐसे लोगों को हम कहना चाहेंगे कि वे अपने विचारों में दृढ़ता लाएँ। वैसे भी अस्थिरता को हर तरह से बुरा माना गया है, फिर चाहे वह अस्थिर प्रकृति हो, स्मरण शक्ति हो, आचरण हो, मानसिकता हो या फिर अस्थिर उद्देश्य लक्ष्य ही क्यों न हो।
     इसलिए आज से ही कोशिश करें कि मनमें जब भी ऐसे विचार उठें जो आपके मन को विचलित कर रास्ता बदलने को प्रेरित करें तो दृढ़ता से उनका सामना करें। खुद रास्ता बदलने की जगह उनका रास्ता बदल दें यानी उनकी ओर ध्यान ही न दें। जब ऐसा करोगे तो वे कुछ समय बाद स्वतः ही पानी के बुलबुले की तरह समाप्त हो जाएँगे। अस्थिरता या दुविधा की स्थिति का सामना करने की यही सर्वश्रेष्ठ विद्या  है।

Friday, September 9, 2016

त्रिशंकु


वैदिक युग में एक प्रतापी राजा हुआ त्रिशंकु। उसकी सदाचारिता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। एक बार उसके मन में एक महत्वाकाँक्षा जागी कि मैं सशरीर स्वर्ग जाऊँ। इसके लिए वह अपने गुरु ब्राहृर्षि वशिष्ठ जी के पास पहुँचा। उसकी बात सुनकर वशिष्ठ बोले-राजन्! तुम्हारी यह कामना कभी पूरी नहीं हो सकती। त्रिशंकु ने उन्हें बहुत मनाया, लेकिन वे नहीं माने। त्रिशंकु ने भी जिद पकड़ ली थी। वह गुरु-पुत्रों के पास पहुँचा और उन्हें सारी बात बताने के बाद बोला-आप सभी से मेरी बिनती है कि गुरु बनकर मेरी इच्छा पूरी करें। उसकी बात सुनकर गुरु-पुत्र बोले-महाराज! जब हमारे पिता आपकी बात को अस्वीकार कर चुके हैं तो फिर आपको हमारे पास नहीं आना चाहिए था। अब हम कुछ नहीं कर सकते। जब गुरु-पुत्र नहीं माने तो त्रिशंकु बोला-फिर तो मुझे किसी और ऋषि की सहायता लेना होगी। उसकी बात सुनकर गुरु-पुत्रों को क्रोध आ गया और उन्होने उसे शाप देकर चांडाल बना दिया। चांडाल बनने के बाद भी उसकी जिद्द खत्म नहीं हुई। वह सहायता के लिए विश्वामित्र के पास पहुँचा और उन्हे सारी जानकारी देते हुए बोला- अब तो मैं आपकी शरण में हूँ ऋषिवर। वशिष्ठ जी के लिए भले ही ऐसा करना संभव न हो लेकिन आप निश्चित ही अपने तपोबल से मेरी इच्छा पूरी कर सकते हैं।
     दरअसल उसने विश्वामित्र की कमजोरी पकड़ ली थी, क्योंकि उस समय उनकी वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्विता थी। इसलिए जब भी कोई ऐसी बात होती, जिससे वे स्वयं को वशिष्ठ से श्रेष्ठ साबित कर सकें, वे ज़रूर करते थे। उन्होने त्रिशंकु से कहा कि हम तेरी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे। इसके लिए उन्होने एक यज्ञ किया। यज्ञ के अंत में उन्होने देवताओं का आह्वान किया कि वे त्रिशंकु को स्वर्ग में स्थान दें। जब देवता नहीं माने तो विश्वामित्र को क्रोध आ गया। उन्होने आकाश की ओर देखा और बोले-त्रिशंकु! तुम जिस दशा में हो, उसी में स्वर्ग जाओ। उनका वाक्य पूरा होते ही त्रिशंकु स्वर्ग की ओर जाने लगा। जैसे ही वह स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा, इंद्र ने उसे रोककर कहा-अधम राजा! गुरु पुत्रों से शापित होने के बाद तुझे स्वर्ग में स्थान नहीं मिल सकता। तू पाताल में जा। और त्रिशंकु नीचे गिरने लगा। उसने विश्वामित्र के पुकारा-मुझे बचाओ! विश्वामित्र भी हार मानने वाले नहीं थे। वे बोले-तू जहाँ है, वहीं ठहर जा। मैं तेरे लिए नए स्वर्ग की सृष्टि करता हूँ। उन्होंने नए ग्रह और नक्षत्र पैदा कर दिए। जब वे नए स्वर्ग की रचना कर रहे थे, तो सभी देवता उनके पास पहुँचे। इंद्र ने त्रिशंकु को स्वर्ग में प्रवेश न देने का कारण बताया। विश्वामित्र को बात समझ में आ गई। लेकिन उन्होने अपनी रचनाओं को बने रहने देने की बात कही। इस पर दवताओं ने "तथास्तु' कहा और ग्रह-नक्षत्रों से घिरा त्रिशंकु वहीं उलटा लटका रह गया।
     त्रिशंकु आज भी उलटा लटका हुआ है। ऐसा लगता है जैसे वह लोगों को सीख दे रहा हो कि अति महत्वाकांक्षी होने का परिणाम क्या होता है। एक सदाचारी राजा को उसकी एक महत्वाकाँक्षा ने कहाँ पहुँचा दिया। हम यह नहीं कहेंगे कि आप महत्वाकांक्षी न बनें क्योंकि महत्वाकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं। लेकिन यह सोच लें कि हम अपनी इच्छापूर्ति किसी की भावनाओं व मज़बूरियों का फायदा उठाकर या उन्हें दबाकर तो नहीं कर रहे। हमसे किसी का निरादर तो नहीं हो रहा। ऐसा होने पर हमारी गति भी त्रिशंकु की तरह ही होगी। महत्वाकांक्षी या यशस्वी होने की इच्छा होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन इसकी अति घातक है। अति सफलता के चक्कर में लोग हाथ आई छोटी छोटी सफलताओं को छोड़ देते हैं और फिर वे न घर के रहते हैं, न घाट के। वैसे भी त्रिशंकु जैसी कामनाएँ जीवन के सारे सुख-चैन खत्म कर देती हैं।
     यह कहानी हमें अपनी महत्वकांक्षा पूरी करने के लिए त्रिशंकु की तरह गलत तरीका न अपनाने की सीख भी देती है। जब गुरु नहीं माने तो गुरु पुत्र ही सही, गुरु-पुत्र नहीं माने तो उनके प्रतिद्वंद्वी ही सही। हमें तो अपना काम निकालना है। यह था त्रिशंकु का तरीका। वर्तमान में भी किसी आफिस में, जहां सत्ता के कई केन्द्र होते हैं, यह तरीका अपनाते हुए आपको कई "त्रिशंकु' मिल जाएँगे। हम उन्हें त्रिशंकु इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि वे भी अपना काम करवाने के लिए एक अधिकारी द्वारा मना करने पर दूसरे के पास फिर तीसरे के पास पहुँच जाते हैं। हो सकता है वे एकाध बार इसमें सफल हो जाएं। लेकिन अंततः नुकसान उन्ही का होता है। जैसे विश्वामित्र और इंद्र के एक होने पर त्रिशंकु आसमान में लटका रह गया। इसलिए ऐसी कोशिश न करें। दूसरी ओर विश्वामित्र की भूमिका में बैठे लोगों को गुरु-पुत्रों से सीख लेनी चाहिए कि यदि एक जगह से मना हो गई तो वह बात वहीं खत्म हो जाना चाहिए। यदि बात बहुत ज़रूरी है तो बिना कर्मचारी को बताए उस सहयोगी से अलग से बात कर लें, जो उसकी बात को अस्वीकार कर चुका है। इससे उस कर्मचारी की इधर-उधर भटकने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगेगी।

Saturday, September 3, 2016

छोटा न समझें किसी भी काम को


     एक बार भगवान अपने एक निर्धन भक्त से प्रसन्न होकर उसकी सहायता करने उसके घर साधु के वेश में पधारे। उनका यह भक्त जाति से चर्मकार था और निर्धन होने के बाद भी बहुत दयालु और दानी प्रवृत्ति का था। वह जब भी किसी साधु-संत को नंगे पाँव देखता तो अपने द्वारा गाँठी गई जूतियाँ या चप्पलें बिना दाम लिए उन्हें पहना देता। जब कभी भी वह किसी असहाय या भिखारी को देखता तो घर में जो कुछ मिलता, उसे दान कर देता। उसके इस आचरण की वजह से घर में अकसर फाका पड़ता था। उसकी इन्हीं आदतों से परेशान होकर उसके माँ-बाप ने उसकी शादी करके उसे अलग कर दिया, ताकि वह गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को समझे और अपनी आदतें सुधारे। लेकिन इसका उस पर कोई असर नहीं हुआ और वह पहले की ही तरह लोगों की सेवा करता रहा। भक्त की पत्नी भी उसे पूरा सहयोग देती थी।
     ऐसे भक्त से प्रसन्न होकर ही भगवान उसके घर आए थे, ताकि वे उसे कुछ देकर उसकी निर्धनता दूर कर दें तथा भक्त और अधिक ज़रूरतमंदों की सेवा कर सके। भक्त ने द्वार पर साधु को आया देख अपने सामथ्र्य के अनुसार उनका स्वागत सत्कार किया। वापस जाते समय साधू भक्त को  पारस पत्थर देते हुए बोले- इसकी सहायता से तुम्हें अथाह धन संपत्ति मिल जायेगी और तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे। तुम इसे सँभालकर रखना। इस पर भक्त बोला- फिर तो आप यह पत्थर मुझे न दें। यह मेरे किसी काम का नहीं। वैसे भी मुझे कोई कष्ट नहीं है। जूतियाँ गाँठकर मिलने वाले धन से मेरा काम चल जाता है। मेरे पास राम नाम की संपत्ति भी है, जिसके खोने का भी डर नहीं। यह सुनकर साधु वेशधारी भगवान लौट गए।
     इसके बाद भक्त की सहायता करने की कोई कोशिशों में असफल रहने पर भगवान एक दिन उसके सपने में आए और बोले-प्रिय भक्त! हमें पता है कि तुम लोभी नहीं हो। तुम कर्म में विश्वास करते हो। जब तुम अपना कर्म कर रहे हो तो हमें भी अपना कर्म करने दो। इसलिए जो कुछ हम दें, उसे सहर्ष स्वीकार करो। भक्त ने ईश्वर की बात मान ली और उनके द्वारा की गई सहायता और उनकी आज्ञा से एक मंदिर बनवाया और वहाँ भगवान की मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा करने लगा।
    एक चर्मकार द्वारा भगवान की पूजा किया जाना पंडितों को सहन नहीं हुआ। उन्होने राजा से इसकी शिकायत कर दी। राजा ने भक्त को बुलाकर जब उससे पूछा तो वह बोला-मुझे तो स्वयं भगवान ने ऐसा करने को कहा था। वैसे भी भगवान को भक्ति प्यारी होती है, जाति नहीं। उनकी नज़र में कोई छोटा-बड़ा नहीं, सब बराबर हैं।
     राजा बोला-क्या तुम यह साबित करके दिखा सकते हो? भक्त बोला-क्यों नहीं। मेरे मंदिर में विराजित भगवान की मूर्ति उठकर जिस किसी के भी समीप आ जाए, वही सच्चे अर्थों में उनकी पूजा का अधिकारी है। राजा तैयार हो गया। पहले पंडितों ने प्रयास किए लेकिन मूर्ति उनमें से किसी के पास नहीं आई। जब भक्त की बारी आई तो उसने एक पद पढ़ा-"देवाधिदेव आयो तुम शरना, कृपा कीजिए जान अपना जना।' इस पद के पूरा होते ही मूर्ति भक्त की गोद में आ गई। यह देख सभी को आश्चर्य हुआ। राजा और रानी ने उसे तुरंत अपना गुरु बना लिया।
     इस भक्त का नाम था रविदास। जी हाँ, वही जिन्हें हम संत रविदास जी या संत रैदास जी के नाम से भी जानते हैं। जिनकी महिमा सुनकर संत पीपा जी, श्री गुरुनानकदेव जी, श्री कबीर साहिब जी, और मीरांबाई जी भी उनसे मिलने गए थे। यहाँ तक कि दिल्ली का शासक सिकंदर लोदी भी उनसे मिलने आया था। उनके द्वारा रचित पदों में से 39 को "श्री गुरुग्रन्थ साहिब' में भी शामिल किया गया है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इन सबके बाद भी संत रविदास जीवन भर चमड़ा कमाने और जूते गाँठने का काम करते रहे, क्योंकि वे किसी भी काम को छोटा नहीं मानते थे। जिस काम से किसी के परिवार का भरण-पोषण होता हो, वह छोटा कैसे हो सकता है।