Saturday, October 29, 2016

पहल करने वाले ही रचते हैं इतिहास


     सन् 1857 की सर्दियाँ। कलकत्ता के नज़दीक स्थित बैरकपुर अंग्रेजों की एक महत्वपूर्ण सैनिक छावनी था। 34 वीं इंफेंट्री रेजिमेंट के जवानों में आक्रोश चरम पर था। उन्हें पता चला था कि जिन कारतूसों का प्रयोग वे कर रहे हैं, उनमें चिकनाई के तौर पर गाय और सुअर की चरबी का इस्तेमाल किया जा रहा है। यदि ऐसा है तो यह धर्म भ्रष्ट करने वाली बात है। जवानों का मानना था कि आदमी अपने धर्म और ईमान को बेचकर नौकरी नहीं कर सकता। अंग्रेजों ने यह काम निश्चित ही हिंदू-मुसलमानों की धार्मिक आस्थाओं को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से किया होगा। और कोई भी जवान इस बात पर अंग्रेजों से समझौता करने को तैयार नहीं था।
     लेकिन अंग्रेज़ थे कि उनकी बातों को सुनने को तैयार ही नहीं थे। वे तो नए-नए तर्क देकर उनकी बातों को झुठलाने का प्रयास करते थे। जब जवानों ने कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया तो वहाँ के कमांडिंग ऑफिसर मिचेल ने उन्हें उद्दंडता बर्दाश्त न करने की धमकी दे दी। इससे माहौल ठंडा होने की जगह और बिगड़ गया। उधर निचेल ने अपनी घुड़सवार सेना और तोपखानों को पहले से ही सतर्क कर दिया ताकि किसी भी बगावत से निपटा जा सके। इस बात से जवानों का गुस्सा और बढ़ गया। एक दिन रात को घुड़सवार टुकड़ी व तोपों के पहियों की आवाज़ सुनकर वे जाग गए। सभी जवान घबराए हुए थे। वे शास्त्रागार की तरफ लपके और उन्होने बंदूकों और कारतूसों को अपने कब्ज़े में ले लिया। बाद में मिचेल वहाँ पहुँचा स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कुछ देशी अफसरों ने उसे सलाह दी कि आप फौज व तोपें वापस भेजकर इनका विश्वास जीतें व कल शांत भाव से इनसे बातें करें। सब ठीक हो जाएगा। उसे उपाय पसंद आया। सुबह जवानों को प्यार से समझाया गया कि कुछ लोग आपको गुमराह कर रहे हैं। यदि शक है तो आप कारतूसों को दाँत की बजाय हाथ से छील लें, वरना सभी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाएगा।
     ऑफिसर की बात पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। एक जवान बोला-अगर हमने इनकी बात नहीं मानी तो ये हमें नौकरी से निकाल देंगे। इस पर हमेशा चुप रहने वाला एक जवान मंगल पाँडे तपाक से बोला-यानी हमें कारतूसों का प्रयोग करना ही होगा? उसके प्रश्न को सुनकर सब आश्चर्य से चौंक पड़े। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि हमेशा चुप रहने वाला मंगलपांडे कभी ऐसा प्रश्न भी कर सकता है। कुछ समय बाद यह पता चलने पर कि अंग्रेज जवान उनकी रेजिमेंट में आ रहे हैं, जवानों के होश उड़ गए। उस दिन परेड मैदान पर मंगल पांडे से नहीं रुका गया। वह हाथ में बंदूक लिए बेखौफ आगे बढ़ा और चिल्लाया-मेरे डरपोक साथियों, तुम सिर्फ बातें ही कर सकते हो, करते कुछ नहीं। इसके पहले कि अंग्रेज अफसर हमारा धर्म भ्रष्ट करें, अपने हाथों में हथियार उठाकर हमें उनका प्रतिकार करना चाहिए। उसकी बातों से जवानों में उत्तेजना तो फैली, लेकिन कोई कदम आगे नहीं बढ़ा। वे अभी भी सिर्फ जबानी बातें ही कर रहे थे।
     इधर, मंगल पांडे उन्हें आगे बढ़ने के लिए ललकार रहा था। इतने में लेफ्टिनेंट बॉग वहाँ आया। मंगल पांडे बोला-आगे बढ़ो, मेरा साथ दो। कोई अपनी जगह से नहीं हिला। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और बॉग पर गोली चला दी। परंतु बॉग बच गया और तलवार लेकर उस पर लपका, लेकिन मंगलपांडे ने उसे धराशायी कर दिया। सिपाहियों में हर्ष ध्वनि फैल गई।
     दोस्तो, इसके बाद क्या हुआ, यह इतिहास की पुस्तकों में दर्ज़ है, लेकिन हमारे लिए यही वह हिस्सा है, आप जानते ही हैं कि मंगल पांडे का नाम इतिहास में क्यों दर्ज़ है। इसलिए नहीं कि वह सवतंत्रता संग्राम का बहुत बड़ा सेनानी था, बल्कि इसलिए कि उसकी बंदूक से निकली गोली ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की नीàव रखी। उसने हिम्मत करके पहला कदम बढ़ाया और अंग्रेज़ों का सामना किया। उसके बाद तो फिर सभी उसके पीछे खड़े थे।
     मंगल पांडे ने हमें सिखाया कि सिर्फ जबानी जमा-खर्च से काम नहीं चलता। हमें कुछ करके भी दिखाना चाहिए। बातें तो हम बड़ी-बड़ी कर सकते हैं। इतनी बड़ी कि जो भी उन्हें सुने तो उसे लगे कि यह आदमी इतिहास बदलने की क्षमता रखता है। लेकिन यदि इतिहास सिर्फ बातों से लिखा जा सकता तो कोई भी व्यक्ति रोज नया इतिहास लिख देता। इतिहास लिखा जाता है कर्मों से, साहस से, पहल से। यानि आप किसी भी चीज़ की योजनाएँ तो बहुत बड़ी-बड़ी बना लेते हैं, लेकिन यदि आप में पहल करने की, उस योजना के अनुरूप आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं है तो फिर योजनाएँ क्रियान्वित कैसे होंगी? यह उसी तरह है कि आपको कहीं जाना है और आप सोचें कि बिना कदम बढ़ाए वहाँ पहुँच जाएँगे, तो ऐसा नही होता। यह तो किस्से-कहानियों में ही होता है। हकीकत की दुनियाँ अलग है। यहाँ तो आपको अपना कदम बढ़ाना ही होगा, तभी तो सफलता के रास्ते का सफल आरंभ होगा। अन्यथा खड़े रहें, जहां खड़े हैं और ख्याली पुलाव पकाते रहें। इसलिए यदि आप चाहते हैं कि इतिहास रचें तो कठिनाइयों की न सोचकर कदम बढ़ाएँ, अगुआई करें। कौन जाने एक नया इतिहास आपके ही द्वारा लिखा जाने वाला है।

Tuesday, October 25, 2016

खाने के लिए न जीएँ, जीने के लिए खाएँ


     आयुर्वेद के रचियता महर्षि चरक ने इस ग्रंथ में सभी रोगों की चिकित्सा विधियां, हर प्रकार की औषधियाँ, निरोगी रहने के उपाय आदि का वर्णन किया था। चिकित्सा से संबंधित यह पहला ग्रंथ था, इसलिए प्रचलित भी तेज़ी से हुआ। हर ओर आयुर्वेद के चर्चे हो गए। इसे पढ़-पढ़कर बहुत से लोग आयुर्वेदाचार्य बन गए। लेकिन तब चूंकि संचार के प्रयाप्त माध्यम नहीं थे, अतः चरक को इस बात का पूरी तरह अंदाज़ा नहीं लग पाया था कि लोग किस सीमा तक उनकी बताई पद्धतियों का उपयोग कर लोगों की सेवा कर रहे हैं, उन्हें रोग मुक्त कर रहे हैं।
     एक बार उन्होने सोचा कि यह देखा जाए कि मेरा परिश्रम कितना सार्थक और सफल रहा। इसके लिए उन्होने एक पक्षी का रूप धारण किया और वे उड़कर उस जगह पहुँचे, जहाँ एक साथ कई वैद्य रहते थे। एक वृक्ष पर बैठकर उन्होने पक्षी की आवाज़ में पूछा- "कौररूक?' यानी रोगी कौन नहीं है? एक वैद्य ने यह सुनकर पक्षी की ओर देखा और उसके कहने का आशय समझकर बोला-जो च्यवनप्राश खाता है। दूसरा वैद्य बोला-नहीं, आप गलत कह रहे हो। रोगी वह नहीं है जो चंद्रप्रभा वटी खाता है। तीसरा वैद्य उसे टोकते हुए बोला-नहीं, वही निरोगी और स्वस्थ रह सकता है जो रोज बंग-भस्म खाए। इस पर चौथा बोला-लगता है तुम सबने आयुर्वेद ठीक से नहीं पढ़ा। सारी बीमारियों की जड़ पेट है और जब तक लवण-भास्कर चूर्ण नहीं खाओगे, तब तक पेट ठीक नहीं होगा।
     चरक ने जब ये सब बातें सुनी तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे सोचने लगे कि क्या मैने इस शास्त्र को लोगों के पेट को औषधियों का गोदाम बनाने के लिए लिखा था। मेरा सारा परिश्रम निष्फल हो गया। ये सब मेरी लिखी हुई बातों के वास्तविक अर्थ को जान ही नहीं पाए और ऊपरी तौर पर पढ़कर दुकानदारी चलाने लगे। वे दुःखी होकर दूसरी जगह उड़ गए। इसके बाद वे कई स्थानों पर गए, लेकिन हर जगह अज्ञानता भरी बातों को सुनकर उनकी निराशा और बढ़ती गई। अंत में अत्यंत विषाद भरी अवस्था में वे एक सुनसान जगह पर सूखे वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए थे। वहाँ प्रसिद्ध वैद्य वाग्भट्ट का आश्रम था। पास ही बहती नदी में नहाकर जब वे बाहर आए तो चरक ने उन्हें पहचान कर अंतिम आशा के साथ कहा- "कोररूक?' वाग्भट्ट ने जब यह सुना तो तुरंत बोले- "हितभुक् मितभुक्, ऋत्भुक्।' यानी वह रोगी नहीं है जो ऐसी वस्तुएँ खाए, जो शरीर के लिए अच्छी हों। केवल खाने के लिए न जिए, जीने के लिए खाए। जीभ के स्वाद में फँसकर पेट में कचरा न भरता जाए। चरक यह सुनते ही पेड़ से नीचे उतर आए और अपने असली रूप में आकर वाग्भट्ट से बोले-वैद्यराज! तुम मेरे शास्त्र का सही अर्थ समझे हो।
     दोस्तो! आप भी समझ गए होंगे कि अच्छी सेहत के सही नुस्खे क्या हैं। कितनी सही बात है कि केवल खाने के लिए नहीं जिएँ, बल्कि जीने के लिए खाएँ। लेकिन हम क्या करते हैं। हम खाने के लिए ही जीते हैं। हमारा न तो अपनी जीभ पर वश चलता है, न ही अपने पेट पर। स्वाद के लोभ में फँसे हम अपने पेट में न जाने क्या-क्या भरते जाते हैं। हम सोचते ही नहीं कि क्या हमारे लिए अच्छा है और क्या नहीं। बस अपने पेट को डस्टबिन या कचरा पेटी समझकर भरे जाते हैं उलटा-सुलटा। अब उलटे-सुलटे का असर भी तो वैसा ही होगा। और इसका असर पड़ता है हमारे स्वास्थ्य पर। हमारी सेहत बिगड़ती है। हमें लगते हैं तरह-तरह के रोग। क्योंकि जो जगह आपके स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण है, उसे तो आपने कचरा पेटी ही बना दिया है। अब कचरा पेटी में पड़ा सामान तो सड़ता ही है। जब सड़ेगा तो इसकी सड़ांध तो फैलेगी ही। और वह फैलकर प्रभावित करती है आपके शरीर को जो उसका पूरा संतुलन ही बिगाड़ देती है। जब संतुलन बिगड़ता है तो आप डॉक्टरों के पास भागते हैं। अगर वाग्भट्ट जैसे डॉक्टर मिल गए, तब तो ठीक है वरना किसी दुकानदारी करते नीम हकीम के हत्थे चढ़ गए तो वह आपके पेट को ही औषधियों का गोदाम बना देगा और आपको अच्छा करना तोे दूर, उल्टे आपकी हालत और खराब कर देगा। वैसे अच्छे डॉक्टर भी कहाँ तक टेका लगा लेंगे। वे कचरे को साफ करने के लिए दवाएँ देते हैं। ये दवाएँ भी कहीं न कहीं शरीर पर विपरीत असर डालती हैं और इस तरह केवल जीभ पर नियंत्रण न रखने की वजह से आपकी चकरघिन्नी बन जाती है। इसलिए यदि आप इन परिस्थितियों से बचना चाहते हैं तो "फास्ट फूड' संस्कृति के बढ़ते दौर में आज "विश्व स्वास्थ्य दिवस' पर यह प्रण करें कि आप आज से ही अपनी जीभ पर नियंत्रण शुरु कर देंगे। आप जीने के लिए खाएँगे न कि खाने के लिए जिएँगे। सिर्फ वही चीज़ खाएँगे जो शरीर के लिए उपयोगी हो यानी किसी भी चीज़ को खाने से पहले यह सोचेंगे कि इससे हमारे शरीर को क्या लाभ होगा। यकीन मानिए, फास्ट फूट आपके शरीर के लिए किसी भी तरह से उपयोगी नहीं हो सकते। केवल संतुलित आहार ही आपकी सेहत को ठीक रख सकता है। जब आप संतुलित आहार लेंगे तो आपकी सेहत अच्छी बनी रहेगी। अच्छी सेहत आपके मन को भी अच्छा रखेगी, जिससे आपकी कार्यकुशलता प्रभावित नहीं होगी और तब आप अपने सारे सपने पूरे कर पाएँगे। क्योंकि सपने पूरे करने के लिए आपको स्वस्थ और प्रसन्न चित रहना ज़रूरी है।

Thursday, October 20, 2016

लेन-देन ठीक हो तो लेने के देने न पड़ें


     नेपोलियन बहुत ही कर्मठ सम्राट था। वह खुद भी जमकर मेहनत करता था और दूसरों से भी करवाता था। एक रात सारे काम निपटाने के बाद जब वह खिड़की पर आकर खड़ा हुआ तो उसकी नज़र अपने दफ्तर के कमरे से आ रही रोशनी पर पड़ी। उसने सोचा-कौन इतनी देर तक काम कर रहा है? पता लगाना चाहिए। वह तुरंत दफ्तर पहुँचा। वहाँ जाकर उसने देखा कि उसका एक बड़ा अफसर वहाँ मौज़ूद था। सम्राट को देखकर वह खड़ा हो गया। सम्राट ने पूछा-तुम इतनी देर तक यहाँ क्या कर रहे हो? अफसर बोला-बहुत दिनों से रात में नींद नहीं आ रही थी। इसलिए सोचा कि बेकार में करवटें बदलने से अच्छा है दफ्तर में रुककर काम ही किया जाए। सम्राट बोला-नींद क्यों नहीं आती तुम्हें? क्या परेशानी है? अफसर पहले तो झिझका, लेकिन जोर देने पर बोला-सम्राट! मुझ पर भारी कर्ज़ हो गया है। समय पर चुका न पाने के कारण अब लेनदार परेशान कर रहे है। जिसकी वजह से ही मेरा दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई है। उसकी बात सुनकर नेपोलियन बोला- लेकिन तुम्हारा वेतन तो अच्छा-खासा है, फिर भी कर्ज़दार हो? निश्चित ही तुम फिजूलखर्च होंगे। मैं ऐसे आदमी को नौकरी पर नहीं रख सकता, जो पैसों का सही ढंग से उपयोग करना ही नहीं जानता हो। हो सकता है तुम अपना कर्ज़ चुकाने के लिए राजकीय कोष में भी हेराफेरी कर दो। मैं तुम्हें तत्काल प्रभाव से नौकरी से बर्खास्त करता हूँ।
     यह सुनकर अफसर को तो जैसे साँप सूँघ गया। वह चुपचाप दफ्तर से बाहर निकल गया। उसने बड़ी मुश्किल से रात गुज़ारी। सुबह-सुबह उसके दरवाज़े पर किसी ने आकर दस्तक दी। उसने सोचा कि कोई कर्ज़दार होगा। उसने दरवाज़ा खोला तो सम्राट का एक संदेशवाहक उसके हाथ में एक लिफाफा थमाकर चला गया। बर्खास्तगी का आदेश समझकर उसने लिफाफा खोला, लेकिन उसमें से धनराशि और एक पत्र निकला। पत्र में लिखा था-मैने रात भर तुम्हारे बारे में सोचा और पाया कि तुम्हारी बर्खास्तगी ठीक कदम नहीं, क्योंकि जब तुम मेरे यहाँ नौकरी कर रहे हो तो तुम्हारे परिवार की चिंता करना मेरा कर्तव्य है। इसलिए यह राशि भेज रहा हूँ। इससे अपना कर्ज़ चुका देना और आगे से उतना ही खर्च करना, जितनी तुम्हारी क्षमता है। और हां, दफतर ज़रूर आ जाना।
     कहना न होगा कि इस घटना के बाद वह अफसर हमेशा के लिए अपने सम्राट का मुरीद हो गया, क्योंंकि सम्राट ने अपना कर्तव्य सही तरीके से जो निभाया था। एक मालिक का अपने कर्मचारियों के प्रति वह दृष्टिकोण होना चाहिए, जो नेपोलियन का अपने अफसर के प्रति था। क्योंकि कोई भी व्यक्ति जब पूरी वफादारी, लगन और अपने पन की भावना के साथ किसी संस्था के लिए दिन-रात काम करता है तो उसे भी संस्था से कुछ अपेक्षा रहती है कि वह संस्था भी उसके सुख-दुःख में उसके साथ खड़ी रहे। जब संस्था ऐसा करती है तो कर्मचारी के अंदर भी संस्था के प्रति समर्पण की भावना और अधिक मजबूत होती है। इसका सीधा लाभ संस्था को होता है। इसलिए यदि आप व्यवसायी हैं तो समय-समय पर अपना कर्मचारियों के लिए कुछ-न-कुछ अच्छा करने की सोचें। हम यह नहीं कह रहे कि सहयोग धन से ही करें, प्यार के दो मीठे बोल भी काफी होते हैं, बशर्ते ये बोल दिल से बोले जाएँ। ये तो लेन-देन की बात है। जैसा आप दूसरों को देंगे, वैसा ही आपको भी मिलेगा। इसलिए यदि आपका अपने कर्मचारियों के साथ व्यवहार ठीक है तो फिर निश्चित ही आपको अपने व्यवसाय में कभी तकलीफ नहीं आएगी।

Monday, October 17, 2016

बोलोे मगर बोलने से पहले तोलो


     एक बार शेखचिल्ली की तबीअत खराब हो गई। वह हकीम के पास गया। हकीम ने उसे दवाई देते हुए कहा कि अगले कुछ दिन वह सिर्फ खिचड़ी ही खाए। शेखचिल्ली के लिए यह नया शब्द था। उसने पहले कभी खिचड़ी के बारे में नहीं सुना था। उसने सोचा-कहीं रास्ते में यह शब्द भूल न जाऊँ। इसलिए बेहतर यही है कि रास्ते भर "खिचड़ी' का नाम रटते हुए जाऊँ। ऐसा सोचकर उसने हकीम से बिदा ली और जोर-जोर से "खिचड़ी-खिचड़ी' कहता हुआ चल दिया। रास्ते में काफिले को देखने के चक्र में वह रटना भूल गया। दिमाग पर बुहत जोर डालने के बाद उसे "खाचिड़ी' शब्द याद आया। अब वह "खाचिड़ी-खाचिड़ी' रटता हुआ आगेे बढ़ता गया। थोड़ी ही दूर पर एक किसान अपने खेत में बनी मचान पर बैठा चिड़ियों को उड़ा रहा था। शेखचिल्ली की आवाज़ को सुनकर उसने सोचा कि मैं सवेरे से चिड़ियों को भगा रहा हूँ और यह है कि उन्हे मेरा खेत खाने के लिए कह रहा है। वह गुस्से में मचान से उतरा और उसकी धुनाई करने लगा। शेखचिल्ली ने किसान से नाराज़गी का राज़ पूछा। किसान उसे कारण बताते हुए बोला-यदि तूने अब "खाचिड़ी' की जगह "उड़ चिड़ी' रटना शुरु नहीं किया तो मार-मारकर तेरे अंदर भूसा भर दूँगा। शेखचिल्ली ने डरकर उसकी बात मान ली और "उड़ चिड़ी' रटता हुआ आगे बढ़ गया। आगे एक शिकारी जाल बिछाए बैठा था। "उड़ चिड़ी' कहते सुन उसे लगा कि यह चिड़ियों को चेता रहा है। वह चिढ़कर उसे पीटने लगा। शेखचिल्ली बोला-अरे भाई! मुझे पीट क्यों रहे हो? शिकारी बोला-मैं तुझे नहीं पीटूँगा, यदि तू "उड़ चिड़ी' की जगह "फँस चिड़ी' कहना शुरु कर दे। मरता क्या न करता। वह तैयार हो गया और "फँस चिड़ी' कहता हुआ आगे चल दिया। आगे कुछ चोर चोरी करके आ रहे थे। उन्होने शेखचिल्ली की आवाज़ सुनकर सोचा कि यह ज़रूर कोई जासूस होगा, जो हमें पकड़वाना चाहता है। इससे पहले कि यह हमारा नुकसान करे, हम इसे ही सबक सिखा देते हैं। उन्होने उसे पकड़कर पेड़ से उलटा लटका दिया और डंडों से मारने लगे। जल्दी ही वह बेहोश हो गया। चोर मरा समझकर उसे वहीं छोड़कर भाग गए।
     यह है शब्द की महिमा। मुँह से निकला एक-एक शब्द क्या गुल खिला सकता है यह आपने देख ही लिया। तभी तो कहते हैं कि जो भी बोलो सोच-समझकर बोलो। क्योंकि आपके बोले हुए एक-एक शब्द की कीमत बहुत अधिक होती है। लेकिन अधिकतर लोग इस बात को समझते नहीं। उन्हें तो लगता है कि बोलने में क्या जाता है। कौन-सा अपनी जेब से कुछ देना पड़ेगा, इसलिए जो मन में आए बोल दो। यदि आप ऐसा सोचते हैं तो गलत हैं। क्योंंकि सारा खेल बोलने पर ही टिका है, तभी तो ज़बान से निकला एक शब्द भी भारी नुकसान का कारण बन जाता है। क्योंंकि एक बार मुँह से निकला शब्द फिर कभी वापस नहीं आ सकता। फिर भले ही बाद में आप कितनी ही सफाई क्यों न देते फिरें।
     ज़बान पर काबू न रखने वालों के कॅरियर में कई ऐसे क्षण आते हैं जब वे अपने बॉस के सामने खड़े हुए कह रहे होते हैं कि सर, मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। तब बॉस हो सकता है कि आपको नासमझ मानकर माफ कर दे, लेकिन उसके दिमाग में तो वह बात बैठ ही चुकी होगी। और गाहे-बगाहे वह आपको इसका अहसास भी कराता रहेगा। इसलिए कभी भी ऐसी बात मत कहो जिसके लिए बाद में आपको सफाई देनी पड़ जाए।
     दूसरी ओर आपके द्वारा बोली गई बातों से भी आपकी छवि का निर्माण होता है, आपके चरित्र का पता चलता है। इसलिए अपनी कही बात से मुकरना कोई अच्छी बात नहीं। एक-दो बार चलता है, लेकिन यदि आप वाचाल हैं तो फिर अकसर यही गलती करेंगे और मुकरेंगे। इससे आपके चरित्र पर उलटा असर पड़ता है। वैसे भी हम कोई नेता तो हैं नहीं, जो सुबह कही गई बात से शाम को बड़ी ही बेशर्मी से यह कहकर मुकर जाएँ कि मेरी बात को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। हालाँकि राजनीति में भी ऐसे कई नेता आपको मिल जाएँगे, जो एक बार अपनी ज़बान फिसलने के कारण हाशिए पर डाल दिए गए।
     यहाँ गौर करने लायक एक बात और है कि आप जो बोल रहे हैं और जिस रूप में बोल रहे हैं, ज़रूरी नहीं है कि लोग उस बात को उसी रूप में ग्रहण कर रहे हो। देखो न, शेषचिल्ली को खिचड़ी बोलना था और उसे एक शब्द ने अपने रूप बदल-बदल कर उसकी ही खिचड़ी बनवा दी। यानी कहा जा सकता है कि शब्द के बारे में शब्द से ज़्यादा यह महत्वपूर्ण है कि उसे किस रूप में समझा गया है। आप कह कुछ रहे हों, लोग समझ कुछ रहे हों। और हो कुछ का कुछ रहा हो। तो फिर तो गड़बड़ होनी ही है। इसलिए हम तो कहेंगे कि किसी की कही गई कोई बात यदि आपको समझ में नहीं आ रही है तो आगे रहकर एक बार फिर से पूछ लो। पूछने में किस बात की शर्म। क्र्योंकि न पूछकर बाद में जो स्थिति बनेगी वह ज़्यादा शर्मनाक होगी। साथ ही यदि आप कुछ कह रहे हो तो जिसे कह रह हो इससे भी एक बार पूछ लो कि उसने क्या समझा। इससे अर्थ का अनर्थ नहीं होगा। पूछ लोगे तो आपको भी संतुष्टि रहेगी और काम भी वैसा ही होगा जैसा आप चाहते हैं। इसलिए यदि आप बोलने से पहले शब्दों को तोल लोगे तो उन अनजानी विपरीत परिस्थितियों से बच जाओगे जो कि आपके द्वारा कहे गए शब्दों के माध्यम से उत्पन्न हो सकती हैं।

Thursday, October 13, 2016

कान के कच्चे बनो पर दोनों कानों के!


     बहुत समय पहले दंतिल नाम का एक व्यापारी था। उसकी राजा से घनिष्ठ मित्रता थी। जब दंतिल की कन्या का विवाह हुआ तो उसमें राजा सहित राज्य के सभी गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया गया। राजा अपनी रानी के साथ विवाह स्थल पर पहुँचा। दंतिल ने पूरे सम्मान के साथ उनका स्वागत-सत्कार किया और उन्हें ले जाकर नियत स्थान पर बिठा दिया। राजा के साथ गोरंभ नामक एक मुंहलगा सेवक भी आया था। वह राजा से निकटता के चलते खुद को विशिष्ट अतिथि मान रहा था। वह बिना किसी से पूछे विशिष्ट लोगों के लिए तय जगह पर जाकर बैठ गया। दंतिल की नज़र जब उस पर पड़ी तो वह सकते में आ गया, क्योंकि उसकी इस धृष्टता से अन्य अतिथि नाराज़ हो सकते थे। दंतिल ने उसे समझाया। जब वह नहीं माना तो उसने उसे अपने सेवकों की सहायता से बलपूर्वक वहाँ से उठवा दिया।
     गोरंभ यह अपमान सह नहीं पाया, लेकिन वह कुछ कर भी नहीं सकता था, क्योंकि दंतिल राजा का बहुत ही भरोसेमंद मित्र जो था। वह उससे अपने अपमान का बदला लेने का उपाय सोचने लगा। अगले दिन सुबह वह राजा के शयन कक्ष में झाड़ू लगा रहा था। जब उसे लगा कि राजा अभी उनींदे हैं तो वह बड़बड़ाने लगा कि किसी पर भी अंधविश्वास करना अच्छा नहीं होता। महाराज तो भोले हैं। उन्हें पता ही नहीं कि उन्होने जिस दंतिल पर भरोसा, करके उसे निर्बाध अंतःपुर में आने-जाने की छूट दे रखी है, वही कृतघ्न उनकी रानी के साथ क्या रासलीला रचाता है। इसके आगे कि वह कुछ कहता, राजा हड़बड़ा कर उठ बैठा। वह चिल्लाते हुए बोला-क्या बकता है? जो तू कह रहा है, क्या वह सत्य है? गोरंभ बनावटी चेहरा बनाकर बोला-जी, क्या मैने कुछ कहा। क्षमा चाहूँगा महाराज! कल रातभर मैं जुआ खेलता रहा। अब मुझे नींद के झोंके आ रहे हैं। इसी में कुछ बड़बड़ा रहा होऊँगा। ऐसा कहकर वह तो चला गया, लेकिन राजा के मन में शक का बीज बो गया। राजा सोचने लगा कि सोता आदमी वही बड़बड़ाता है, जो मन में हो। निश्चित ही उसने यह सब देखा होगा, तभी कह रहा है। राजा को उसकी बातों पर इतना विश्वास हो गया कि उसे अपना दोस्त दगाबाज़ लगने लगा। उसने दंतिल से उसका पक्ष जाने बिना ही महल में उसके आने-जाने पर प्रतिबंध लगा दिया।
     दंतिल को जब इस बात का पता चला तो उसे आश्चर्य हुआ। उसे अपने मित्र के बदले हुए व्यवहार का कारण समझ में नहीं आया। उसने सोचा ज़रूर कोई गलतफहमी है, जाकर दूर करना चाहिए। वह राजमहल पहुँचा। वहां द्वारपालों ने उसे रोक दिया। गोरंभ वहीं झाड़ू लगा रहा था। दंतिल को देखकर वह बोला-द्वारपालों यह तुम क्या कर रहे हो। ये राजा के अभिन्न मित्र हैं। ये तो किसी का भी मानमर्दन कर सकते हैं। तुम इन्हें रोको मत। उसकी बात से दंतिल को समझ में आ गया कि वह उससे अपने अपमान का बदला ले रहा है। वह घर पहुँचा और शाम को उसने गोरंभ को बुलाकर पूरे सम्मान के साथ भोजन कराया और अनेक उपहार दिए, साथ ही अपने व्यवहार के लिए खेद प्रकट किया। इससे गोरंभ की सारी नाराज़ी दूर हो गई। वह बोला-श्रेष्ठि! मैं आपको दिखाता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ। अगले दिन सुबह राजा के कक्ष में झाड़ू लगाते समय वह फिर बड़बड़ाने लगा- हमारा राजा भी कैसा मूर्ख है। शौचालय में ककड़ी खाता है। कोई देख ले तो क्या सोचे। उसकी बात सुनकर राजा तुरंत उठ बैठा। वह चिल्लाया-क्या बकता है! ये सरासर झूठ है। इस पर गोरंभ पहले की तरह बहाना बनाकर चला गया। राजा सोचने लगा कि मैने इस मूर्ख की बे-सिर-पैर की बातों में आकर बेकार ही अपने मित्र पर अविश्वास किया। उसने तुरंत दंतिल को बुलाकर अपने आचरण के लिए दुःख प्रकट किया।
     दोस्तों, इसीलिए कहते हैं कि अपने सच्चे मित्र पर अविश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह दोस्ती के लिए ज़हर की तरह होता है। यदि शक है तो सामने वाले से पूछ लो। हो सकता है वह बेबुनियाद हो। यदि राजा पहले ही दंतिल से पूछ लेता तो बात वहीं खत्म हो जाती। लेकिन वह तो कान का कच्चा था। ऐसा कैसे करता? कान के कच्चे लोग अकसर किसी की भी ऊलजुलूल बात पर विश्वास करके फैसले ले लेते हैं और फिर परेशानी में फँस जाते हैं। बाद में ये बातें बहुधा गलत ही साबित होती हैं, क्योंकि हो सकता है किसी ने आपके कान भरे हों। इसलिए कहा गया है कि व्यक्ति को कान का कच्चा नहीं होना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं कि आप कोई बात ही न सुनें। सब सुनें, लेकिन फैसला लेने से पहले सिक्के के दूसरे पहलू को भी तो देख लें। इससे केवल एक पक्ष की बात पर यकीन करके आप गलत निर्णय लेने से बच जाते हैं। यह बात किसी संस्था में निर्णायक पदों पर बैठे लोगों को विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि कई बार वे इसी कारण से गलत फैसले ले लेते हैं।
     दूसरी ओर यदि आपको कान के कच्चे बने रहने में ही फायदा नज़र आता है तो बने रहो कान के कच्चे, लेकिन दोनों कानों के, एक कान के नहीं। यानी घुमा-फिराकर बात वही कि दोनों कानों से दोनों पक्षों की सुनो, तभी आप सही फैसले ले पाएँगे। एक बात और एक विश्वासपात्र सेवक क्या गुल खिला सकता है, यह तो आपने देख ही लिया। अतः सभी को यथोचित सम्मान दो, चाहे वह मालिक हो या सेवक। तभी कोई भी आपकी प्रगति में बाधक नहीं बनेगा।

Sunday, October 9, 2016

उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई?


  1.      विश्व प्रसिद्ध "मोनालिसा' को चित्रित करने वाले इटली के विख्यात चित्रकार लियोनार्दो द विंची को कौन नहीं जानता। एक बार वे अपनी एक और चर्चित पेंटिंग "द लास्ट सपर' या "अंतिम भोज' की तैयारी में लगे थे। इस पेंटिंग में उन्हें ईसा मसीह के जीवन का वह दृश्य चित्रित करना था जिसमें कि वे अपने 12 शिष्यों के साथ अपना अंतिम भोज करते हुए दिखाई दें। इस पेंटिंग के लिए उन्हें ऐसे चेहरों की तलाश थी जिन्हें देखकर लगे कि वे सभी ऐसे ही रहे होंगे।
         उन्होने तलाश शुरु की। सबसे पहले उन्होने यीशु के लिए सैंकड़ों मॉडल का साक्षात्कार लिया। इसके लिए उन्हें ऐसे चेहरे की तलाश थी, जो देखने पर मन में साक्षात ईश्वरत्व का भाव पैदा करता हो, जो बेदाग व अत्यंत मनमोहक हो। बहुत परिश्रम के बाद वे अंततः ऐसा चेहरा ढूँढने में कामयाब हो ही गए। उन्हें 19 वर्षीय पियोत्रा के चेहरे में यीशु-नज़र आए और उन्होने उसे सामने बैठाकर पेंटिंग बनानी शुरु कर दी। इस महत्वपूर्ण पात्र को चित्रित करने में विंची को छह माह लगे। इसके बाद उन्होने मेहनताना देकर उसे विदा कर दिया। अब वे यीशु के शिष्यों को चित्रित करने लगे।
         एक शिष्य को छोड़कर बाकी 11शिष्यों को चित्रित करने में उन्हें छह वर्ष लग गए। अंत में बारी थी "जूडस' की। यानी वो शख्स जिसकी धोखेबाजी से यीशु को सूली पर चढ़ना पड़ा। इस पात्र के लिए विंची को एक क्रूर, निर्दयी, अपराधी, विश्वासघाती, दुष्ट व्यक्ति के चेहरे की तलाश थी। इसके लिए वे जगह-जगह भटके। अंत में रोम की एक जेल में मृत्युदंड की सजा पा चुके एक अपराधी का चेहरा विंची को जूडस को उपयुक्त लगा। उन्होने रोम के सम्राट से उसकी सजा कुछ समय आगे बढ़ाने का निवेदन किया ताकि वे अपनी पेंटिंग पूरी कर सकें। उनके जैसे कलाकार की बात सम्राट टाल न पाए और उन्हें अनुमति मिल गई।
         विंची उस अपराधी को रोज़ घंटों सामने बैठाकर अपनी पेंटिंग पूरी करने लगे। महीनों बाद पेंटिंग पूरी होने पर उन्होने अपराधी की चौकसी में लगे सिपाहियों से कहा-मेरा काम खत्म  हुआ। अब तुम इसे वापस ले जा सकते हो। इस पर जैसे ही सिपाही अपराधी की ओर बढ़े, वह तेज़ी से उठा और विंची के पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगा-"ओ विंची! मुझे इन लोगोंं से बचाओ। पहचानों, मैं कौन हूँ। कहते हैं कलाकार तो एक झलक में आदमी को पहचान लेता है, फिर तुम धोखा कैसे खा सकते हो? उसकी बातें विंची को समझ में नहीं आई। वे उसे झिड़कते हुए बोले- दूर रह, तुम खूनी हो। मैं तुम्हें कैसे जान सकता हूँ। इस पर अपराधी बोला-हे भगवान क्या मेरे कर्मों के साथ मेरा चेहरा भी बदल गया है? ध्यान से देखो विंची, तुम मुझे ज़रूर पहचान लोगे। इसके बाद भी जब विंची उसे नहीं पहचान पाए तो वह बोला- विंची, मैं वही मॉडल हूँ जिसके साथ छह साल पहले तुमने यीशु का चित्र बनाया था। विंची ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। वह फिर बोला- हाँ, मैं वहीं हूँ।
         साथियो, यह एक सत्य घटना है। यह घटना हमें बताती है कि मनुष्य के कर्म ही उसके व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। जब कर्म श्रेष्ठ हों और व्यक्ति सद्गुणों की खान हो तो उसका चेहरा भी दमकता है। लोग ऐसे चेहरों की ओर खिंचे चले आते हैं। लेकिन जब वही सद्कर्म दुष्कर्म में बदलते हैं तो सद्गुणों की जगह अवगुण ले लेते हैं। तब व्यक्ति के व्यक्तित्व व चरित्र में आए बदलाव का असर उसके चेहरे पर भी पड़ता है और वह कांतिहीन नज़र आने लगता है, क्योंकि उसके चेहरे का पानी उतर गया होता है। ऐसे चेहरे को लोग दूर से ही सलाम करते हैं।
         लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसा संभव है कि एक ही व्यक्ति के चेहरे में इतना अंतर आ जाए कि विंची जैसा कलाकार भी उसे न पहचान पाए। और यदि वह संभव है तो कैसे? तो हम कहेंगे कि हाँ, यह बिलकुल संभव है। बड़ी ही सामान्य-सी बात  है कि व्यक्ति के चेहरे पर आभा के होने या न होने का संबंध उस पर चढ़े लज्जा के आवरण से है। जब व्यक्ति अपने चेहरे पर लज्जा का आवरण ओढ़े रहता है तो उसका चेहरा दमकता है और जब यह आवरण उतर जाता है यानी जब व्यक्ति लज्जा खो देता है तो उसका चेहरा निश्चित ही बदल जाता है। कहते भी हैं कि जब मनुष्य लज्जा त्याग देता है तो वह अपनी सुंदरता का सबसे बड़ा आक्रषण खो देता है। इसके बाद व्यक्ति बेशर्म हो जाता है क्योंकि जब शर्म ही चली जाएगी तो फिर शेष क्या रह जाता है। इसके बाद तो फिर व्यक्ति अपने कर्मों से निरंतर पतन की गर्त में गिरता चला जाता है। फिर न तो उसे अपनी परवाह होती है और न समाज की। ऐसे निर्लज्ज लोगों का कोई कुछ नहीं कर पाता। कहते हैं न कि उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई?
         इसलिये यदि हम चाहते हैं कि हमारा भी चेहरा हमेशा कांतिवान व आकर्षक बना रहे तो हमें अपने चेहरे व व्यक्तित्व दोनों से ही लज्जा का आवरण नहीं उतरने देना चाहिए। यही हमारे चेहरे का वास्तविक एवं सर्वोत्तम आभूषण होता है। जब आपके चेहरे पर यह आभूषण होगा तो लोग आपकी ओर खिंचे चले आएंगे यानी आप लोगों के प्रिय बने रहेंगे। जब लोगों के प्रिय रहेगें तो फिर सफल भी बनेगे ही।

Tuesday, October 4, 2016

हार मत मानो, निरंतर प्रयास करते रहो


     एक बार दो राजाओं में युद्ध छिड़ गया। आक्रमणकारी राजा की सेना का मुकाबला दूसरे राजा ने पूरे साहस के साथ किया, लेकिन दुश्मन की बड़ी सेना के सामने उसकी सेना के पाँव जल्दी उखड़ गए। पराजित राजा जैसे-तैसे अपनी जान बचाकर जंगल में भाग गया। चलते-चलते जब वह थककर चूर हो गया तो एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। निराशा ने उसे इस कदर घेर रखा था कि उम्मीद की कोई भी किरण दिखाई नहीं देती थी।
     वह सोच रहा था कि इतनी बड़ी सेना का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार उसके मन में तरह-तरह के नकारात्मक विचार उठ रहे थे कि अचानक उसकी नज़र सामने के टीले पर पड़ी। उसने देखा कि एक छोटी-सी चींटी अपने से कई गुना बड़े आकार का दाना लेकर टीले पर चढ़ने का प्रयास कर रही है और असफल होकर हर बार नीचे गिर रही है। उसने देखा कि लगातार प्रयास करते-करते चींटी अंततः टीले पर चढ़ने में सफल हो ही गई और उसने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया। चींटी के इस आचरण से राजा को आत्मग्लानि हुई। वह सोचने लगा कि मुझसे तो यह चींटी ही श्रेष्ठ है जिसने लगातार प्रयास कर अंततः सफलता हासिल कर ही ली। मुझे भी हिम्मत न हारते हुए ऐसा ही करना चाहिए। चींटी की सीख ने राजा में नई स्फूर्ति भर दी। उसने गुपचुप तरीके से राज्य के देशभक्त शूरवीरों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने बहुत बड़ी सेना तैयार कर ली। राजा ने अपनी सेना के प्रशिक्षण के लिए उन सैनिकों को चुना जो दुश्मन की सेना का मुकाबला कर चुके थे। राजा का मानना था कि उसके ये सैनिक भले ही पराजित हो गए हों, लेकिन इस दौरान वे दुश्मन की युद्धकलाओं से परिचित हो चुके थे। इसलिए वे दुश्मन का सामना करने के तरीके नए सैनिकों को सिखा सकते थे।
     इसके बाद एक दिन उचित समय देखकर राजा ने दुश्मन पर हमला कर दिया। विपक्षी सेना के सारे दाँव खाली जाने लगे, क्योंकि राजा की सेना पहले से ही प्रशिक्षित थी। शीघ्र ही विरोधी सेना भाग खड़ी हुई और राजा ने अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। इसके बाद राजा जब अपने सिंहासन पर बैठा होगा ते उसे उस चींटी की याद ज़रूर आई होगी जो उसके लिए किसी गुरु से कम न थी जिसके दिए "गुरुमंत्र' के सहारे ही वह पुनः अपना राज्य प्राप्त कर पाया।
     वैसे इस तरह की घटनाओं का सामना जीवन में किसी न किसी रूप में हर व्यक्ति को करना होता है। अकसर हम अपने प्रतिद्वंदी के "आकार' को देखकर ही हिम्मत खो देते हैं यानी बिना प्रयास किए ही मन ही मन हार मान लेते हैं। जबकि हमें हर स्थिति का डटकर मुकाबला करना चाहिए। यदि प्रतिद्वंद्विता में हम एक बार असफल हो ही जाएँ तो भी निराश होने की ज़रूरत नहीं। सिर्फ उस चींटी को याद कर लें जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्न करती रहती है। आप चाहें तो उसे अपने आसपास ही कहीं देख सकते हैं। निरंतर प्रयास का यह जज़्बा हम सभी में होना ही चाहिए। तो किसी भी स्थिति में हार मत मानों, निरंतर प्रयास करते रहो। एक दिन जीत आपकी ही होगी।

Saturday, October 1, 2016

सफलता के लिए ज़रूरी है संघर्ष


     व्यावहारिक ज्ञान की कक्षा में एक शिक्षक अपने छात्रों को समझा रहे थे कि जीवन में संघर्ष करना बहुत ज़रूरी है क्योंकि बिना संघर्ष के सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। इसलिए हमें कभी संघर्ष करने से पीछे नहीं हटना चाहिए। साथ ही यह प्रयास करें कि संघर्ष के दौरान किसी की मदद न लेनी पड़े। क्योंकि मदद लेने वाला हमेशा दूसरों पर आश्रित हो जाता है। और आश्रित व्यक्ति का अपना कोई वजूद नहीं होता। अतः हम अपने प्रयत्नों से ही सफलता हासिल करना सीखें। इस पर एक छात्र बोला-सर, आप कह रहे हैं कि सफलता के लिए किसी का सहारा मत लो। लेकिन इसमें मुझे तो कोई बुराई नज़र नहीं आती। आखिर सफलता तो सफलता है। शिक्षक बोले-नहीं, ऐसा नहीं है। संघर्ष क्यों ज़रूरी है, यह मैं तुम्हें कल समझाऊँगा।
     अगले दिन शिक्षक अपने साथ तितली के दो कोकून लेकर आए। वे बोले-बच्चों, कुछ समय बाद इन दोनों कोकून में से तितलियाँ बाहर निकलेंगी। तब हम जानेंगे कि जीवन में संघर्ष का कितना महत्व है। छात्र उत्सुकता से कोकूनों पर नज़र गड़ाकर बैठ गए। कुछ समय बाद एक कोकून में हलचल शुरू हुई। तितली उसमें से निकलने के लिए छटपटाने लगी। वह पूरी शक्ति कोकून को तोड़ने का प्रयास कर रही थी। इतने में शिक्षक ने प्रश्न करने वाले छात्र से कहा कि तुम इसकी बाहर निकलने में सहायता नहीं करोगे? छात्र तो यही सोच रहा था, उसने तुरंत कोकून को हलके से तोड़ दिया। तितली बिना किसी संघर्ष के बाहर आ गई। और उड़ने की कोशिश करने लगी। लेकिन उसके पंख उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। अंततः अनेक प्रयत्नों के बाद भी वह उड़ नहीं पाई। इस बीच दूसरे कोकून में भी हलचल शुरू हो चुकी थी। छात्र ने जैसे ही उसे तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो शिक्षक ने उसे रोक दया। और तितली ने बाहर आने के लिए काफी संघर्ष किया और वह सफल हो गई। उसके बाद उसने अपने पँख फड़फड़ाए और तुरंत ही खिड़की से बाहर निकलकर एक फूल पर जा बैठी।
     यही है जीवन में संघर्ष करने का फायदा। प्रकृति का नियम है कि कोकून से बाहर आने के दौरान किए गए संघर्ष से ही तितली के पँखों को मजबूती मिलती है और वह उड़ने के काबिल हो पाती है। यदि आप यह संघर्ष उससे छीन लोगे तो उसे एक तरह से अपाहिज ही बना दोगे। फिर वह फूल तक नहीं जा पाएगी। यानी एक बार संघर्ष के दौरान सहायता लेने की आदत पड़ गई तो फिर आप कुछ कर ही नहीं सकते और हमेशा आपको सहारे की ज़रूरत पड़ती रहेगी, अन्यथा आप कुछ नहीं कर पाएँगे और खत्म हो जाएँगे। यही उस तितली के साथ हुआ। शायद इसीलिए कहते हैं कि संघर्षों के बाद मिली सफलता ही अधिक टिकाऊ होती है। इसलिए आगे से संघर्ष के दौरान अपनों की सहायता करने से पहले सोच लें कि कहीं ऐसा कर आप उसे अपाहिज तो नहीं बना रहे हैं।
     प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जब एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ मची हो तो यह बात और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। फिर हम आपकी बात करें या आपकी संस्था की। दोनों ही स्थितियों में संघर्ष ज़रूरी है। देखा गया है कि वे ही लोग जीवन में अधिक सफल होते हैं, जो संघर्षों के दौर से गुज़रे होते हैं। क्योंकि संघर्षों के दौरान उन्होने जीवन के हर रंग को देखा होता है, भोगा होता है। संघर्ष उन्हें न केवल कठिनाइयों से पार पाने में सहायता करता है बल्कि उन्हें ज़मीन से भी जोड़े रखने में सहायता करता है।
     यानी जिसने जगह-जगह की खाक छानी हो, जी-तोड़ मेहनत की हो, उसे सफल होने में कोई नहीं रोक सकता। क्योंकि उसने संघर्ष के दौरान अपने काम में आने वाली कठिनाइयों से निपटने में निपुणता जो हासलि कर ली होती है।