Monday, November 28, 2016

हाथ फैलाएं नहीं बल्कि हाथ फहराएँ।


     एक बार मथुरा के गऊघाट पर सैंकड़ों भक्तों के सामने सूरदास अपने लिखे पदों का गायन कर रहे थे। उनकी आवाज़ की मिठास और पदों के शब्दों के जादू से पूरा वातावरण भक्तिमय हो गया था। कृष्णभक्त भक्ति रस में डूबकर आनंद ले रहे थे। उनके सैंकड़ों शिष्य थे जो उन्हें गायक महात्मा कहते थे। अनेक कठिनाइयाँ उठाकर सूरदास ने यह मुकाम हासिल किया था। अँधे होने की वजह से बचपन से ही उनके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जाता था। जब उन्होने पढ़ने की इच्छा व्यक्त की तो उनके पिता ने यह कह कर भगा दिया कि अंधे को क्या पढ़ाऊँगा। इससे वे बेहद निराश हो गए।
      एक बार गाँव से एक साधु मंडली भजन गाती-बजाती निकली। संगीत में उन्हें इतना आनंद आया कि वे बेसुध होकर उसके पीछे-पीछे चल दिए। इसके बाद वे घर नहीं लौटे। एक दिन जब सूरदास अपनी कुटिया में बैठे थे, तभी एक शिष्य ने आकर सूचना दी कि महाप्रभु बल्लभाचार्य वृंदावन जाने वाले हैं। उस समय के सब विद्वानों में महाप्रभु शीर्ष पर थे। इस पर उदास होकर सूरदास बोले कि काश, मेरी महाप्रभु से भेंट हो पाती। इस बीच एक और शिष्य आकर उनसे बोला-महाप्रभु आपसे भेंट करने कुटिया की ओर ही आ रहे हैं। सूरदास बोले-पागल हो गया है क्या? इतना बड़ा विद्वान मुझ जैसे तुच्छ प्राणी से मिलने क्यों आएगा? वे कहीं ओर जा रहे होंगे। तभी महाप्रभु वहाँ पहुंच गए। सूरदास को विश्वास ही नहीं हो रहा था। वे भाव-विभोर होकर गिरते-गिराते उनकी अगवानी के लिए बाहर आए और उनके पैरों में गिर पड़े। आचार्य ने उन्हें उठाकर प्यार से गले लगा लिया और बोले-तुम्हारे गायन की बड़ी प्रशंसा सुनी है। तुम्हारा गायन सुनने की इच्छा हुई तो चला आया।
     सूरदास बोले-क्यों अंधे का दिल रख रहे हो महाप्रभु! थोड़ा-बहुत ऐसे ही गा लेता हूँ। अपाहिज हूँ ना, इससे ज़्यादा और कुछ सीखा ही नहीं। महाप्रभु बोले-तुम अपने आपको असहाय मानना बंद करो। तुम्हें यह घिघियाने की आदत छोड़नी होगी। तुम किसी से कम नहीं हो। अपनी कमियों से ध्यान हटाकर अपने गुणों को पहचानो। तुम कृष्णभक्ति को नए आयाम देने के लिए पैदा हुए हो। महाप्रभु की बातों से सूरदास को तो जैसे रोशनी मिल गई। वे बोले-लेकिन मुझे कृष्ण की लीलाओं का ज्ञान नहीं। महाप्रभु ने कहा- वह मैं तम्हें बताऊँगा। इसके बात उन्होने गुरु-मंत्र देकर सूरदास को अपना शिष्य बना लिया। सूरदास ने इसके बाद कभी अपने आपको असहाय नहीं माना और मन की आँखों से देखकर कृष्ण लीलाओं का वर्णन किया।
     दोस्तो, आप कितने ही कमज़ोर क्यों न हों, अपने आपको कभी लाचार या असहाय न समझे। क्योंकि यदि आपके दिमाग में यह बात बैठ गई कि आप कमज़ोर हैं तो फिर आप कभी कुछ नहीं कर पाएँगे। आप एक लाचार की तरह व्यवहार करेंगे। यह एक ऐसा भाव है जो अच्छे-भले इंसान को भी अपाहिज बना देता है। इसलिए कहा भी गया है कि मन से अपाहिज होने से अच्छा है तन से अपाहिज होना। तन से अपाहिज होने के बाद भी लोग बड़ी-बड़ी सफलताएँ हासिल कर लेते हैं, जैसे कि संत सूरदास ने आँखें न होने के बाद भी कृष्ण लीलाओं का इतना सुंदर चित्रण करके प्राप्त की। लेकिन यदि आप मन से अपाहिज हो गए तो फिर कुछ भी करने के काबिल नहीं रहेंगे।
       इसलिए कभी विवशताओं को अपने ऊपर हावी मत होने दो और न ही उनसे भागो, क्योंकि आप उनसे भाग नहीं सकते। इसलिए बेहतर यह है कि उन पर विजय पाओ। यह बात उस स्थिति में भी लागू होती है, जब आप शारीरिक रूप से अपंग हों। यदि ऐसा है तो भी क्या हुआ। अपंगता नियति हो सकती है, लेकिन इति कभी नहीं।
     इसलिए ऐसी स्थिति में भी अपने आपको कमज़ोर न समझे। क्योंकि ईश्वर यदि आप में कोई कमी रखता है तो ऐसे गुण भी देता है, जो सामान्य लोगों में नहीं होते। ज़रूरत है अपने अंदर छुपे उन गुणों को पहचानने की। जब पहचान लेंगे तो कभी अपने आपको दीन, निर्बल, लाचार और असहाय नहीं समझेंगे। ऐसे अनेक लोग समाज में आपको मिल जाएंगे, जिन्होंने अपनी कमज़ोरी को ही अपना हथियार बनाया। आज वे दूसरों का सहारा लेने की जगह दूसरों के सहारे बने हुए हैं। आपको भी यही करना है। तब आप किसी के सामने हाथ फैलाएँगे नहीं, सफलता पाकर हाथ फहराएंगे।

Thursday, November 17, 2016

आपके डूबने से जग नहीं डूब जाता


    नदी के किनारे एक गाँव था। वहाँ लोग त्योहारों पर आकर स्नान ध्यान करते थे। एक बार सोमवती अमावस्या के दिन वहाँ स्नान करने के लिए काफी भीड़ इकट्ठा हुई। उस दिन नदी का बहाव बहुत तेज था, इसलिए लोग किनारे पर ही स्नान कर रहें थे। इस बीच पास के ही एक गाँव से आया एक युवक नदी में गहराई के ओर जाने लगा। उसे तैरना नहीं आता था। उसे ऐसा करते देख लोगों ने समझाया कि बहाव तेज है, कहीं संतुलन बिगड़ गया तो लेने के देने पड़ सकते हैं। लेकिन वह युवक उत्साही था, उसने किसी की नहीं सुनी और आगे बढ़ता गया। पानी उसके कमर के ऊपर आ चुका था। इस बीच उसने एक कदम और बढ़ाया। वहाँ एक गड्ढा था, जिससे उसका संतुलन बिगड़ गया। उसने सँभलने की कोशिश की, लेकिन उसके पैर ज़मीन पर नहीं टिक पा रहें थे। अपने आप को बचाने के लिए वह हाथ-पैर मारने लगा। जब उसकी हिम्मत जवाब देने लगी, तो वह चिल्लाने लगा- बचाओ! बचाओ! उसकी आवाज सुनकर लोगों ने देखा। इतने में वह फिर चिल्लाया- खड़े- खड़े क्या देख रहें हो। मुझे डूबने से बचाओ, वरना मैं डूबा तो जग डूबा। उसकी बात सुनकर कुछ तैराक नदी में कूदे और उसे सही-सलामत किनारे पर ले  आए।
     तब तक उसके पेट में बहुत पानी भर चुका था। उसे उलटा लिटाकर उसके पेट का पानी निकाला गया। जब वह सामान्य हो गया तो एक आदमी बोला- भाई मेरे, प्रभु की कृपा से तू बच गया, लकिन हमें यह तो बता, कि डूबते समय तू जो कह रहा था कि मै डूबा तो जग डूबा,इसका क्या मतलब है? तेरे डूबने से जग के डूबने का क्या संबंध है? युवक बोला-भैया, बड़ी सामान्य सी बात है यह तो। खुदा न ख्वास्ता, यदि मै डूब जाता तो फिर इस जग का होना न होना मेरे लिए मायने नहीं रखता। मेरे लिए जग होना तभी तक सार्थक है, जब तक मै जिंन्दा हूँ। बाद में हुआ करें जग, मेरी बला से। इसलिए ही मै कह रहा था कि मै डूबा तो जग डूबा। वाह! भई वाह!! यह सोच भी खूब है। उस युवक के नज़रिये से यदि सोचें तो उसकी बात में दम है। जब आप ही नहीं रहें तो फिर जग का रहना आपके लिए किस काम का? आपके लिए तो आपके साथ ही आपकी दुनिया भी खत्म। लेकिन हमारी दृष्टि से यह सोच गलत है। क्योंकि इस सोच में कहीं न कहीं स्वार्थ झलकता है। यानी आपको बाकी लोगों से, बाकी दुनिया से कोई लेना देना नहीं। आपको तो सिर्फ अपने से मतलब है। जब तक जिससे आपका काम चल रहा है, तब तक ही वह आपका है। काम निकल जाने के बाद उससे आपका कोई लेना-देना नहीं।
     इस प्रवृत्ति के लोग आपको बहुत मिल जाएँगे। यही प्रवृत्ति उन लोगों में अधिक जाग्रत रूप नज़र आती है जो किसी विवाद या अन्य कारण से एक संस्था को छोड़कर दूसरी संस्था में चले जाते हैं और मौका मिलने पर अपनी पूर्व संस्था की बुराई करते नहीं चूकते। क्योंकि उनकी दृष्टि में अब उस संस्था से उनका कोई लेना देना नहीं है। वह डूबती है तो डूब जाए। वे सोचते है कि उनकी बातों से उस संस्था को नुकसान होगा। लेकिन वे गलत सोचते हैं, क्योंकि ऐसी बातों से संस्था का तो कुछ नहीं बिगड़ता, बल्कि उनकी छवि जरूर बिगड़ जाती है या यूँ कहें कि डूब जाती है। उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेता। हर कोई यही सोचता है कि खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे।
     यदि आपकी भी सोच ऐसी है तो बेहतर है कि आप इस तरह डूबने से बचें। हम यह नहीं कहते कि आप अपनी पूर्व संस्था के प्रति कोई जवाबदेही रखें, क्योंकि ऐसा संभव नहीं। लेकिन ऐसा भी न करें कि जिस संस्था का उल्लेख आपने अपने बायोडाटा में किया है, उसके बारे में अनर्गल बोलें। दूसरी ओर, कई लोग इस गलतफहमी में जीते हैं कि संस्था उनसे चल रहीं है। वे नहीं रहेंगे तो संस्था भी नहीं रहेगी। यानी वहीं "हम डूबे तो जग डूबा' वाली प्रवृत्ति। ऐसे लोगों को हम कहना चाहेंगे कि संस्था से व्यक्ति होते है, व्यक्ति से संस्था नहीं। ऊँचे से ऊँचा और महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण व्यक्ति भी यदि संस्था छोड़कर चला जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता। हो सकता है इसका कुछ तात्कालिक प्रभाव नजर आए, लेकिन अंतत: कोई दूसरा उसकी जगह ले लेता है और संस्था चलती रहती है। इसलिए आपने ऐसी कोई गलतफहमी पाल रखी है तो उसे दूर कर दें, वरना यह आपको डुबो देगी।

Saturday, November 12, 2016

भगवान भरोसे


     एक बार एक भक्त के सपने में भगवान प्रकट हुए। भगवान ने उसे कहा कि तू सत्य के रास्ते पर चलने वाला है। मैं तेरे आचरण से खुश हूँ और तुझे एक वर देना चाहता हूँ। जो मन में आए, माँग ले। भक्त बड़ा ही सज्जन था। उसने सोचा कि भगवान से धन-दौलत माँगने का क्या लाभ? इसलिए कुछ ऐसा माँगना चाहिए जिससे हमेंशा के लिए ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त हो जाए। ऐसा सोचकर उसने भगवान से कहा-मुझे और कुछ नहीं चाहिए प्रभु! बस जीवन के हर सुख-दुःख में और परीक्षाओं की घड़ी में आप मेरे साथ चलते रहें। इस पर ईश्वर "तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गए।
     इसके बाद उस भक्त की आँख खुल गई। वह सपने की बात भूलकर अपने दैनंदिन कार्यों में लग गया। इस तरह कई वर्ष बीत गए। इस बीच हर व्यक्ति की तरह उसके जीवन में भी अनेक विपरीत परिस्थितियां आई और उसने उनका सामना हिम्मत और पुरुषार्थ से किया।
     एक बार वह बहुत बीमार हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां जब वह अर्धचेतन अवस्था में पड़ा था तो उसके सामने भगवान फिर प्रकट हुए। भगवान को देखते ही उसे वरदान वाली बात याद आ गई और उसने उनसे पूछा, "प्रभु! आप तो मुझे वरदान देकर गायब ही हो गए। मुझे ज़िंदगी में न जाने कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन सभी का सामना मैने अकेले ही किया। आपने मेरा कहीं भी साथ नहीं दिया।
     भक्त की बात सुनकर भगवान मुस्कराए और बोले-नहीं वत्स! मैं अपने कहे अनुसार जीवन के हर कदम पर तुम्हारे साथ था। इसका क्या प्रमाण है? भक्त ने भगवान से पूछा। इस पर भगवान ने उससे कहा-सामने की दीवार पर देखो। तुम्हारे जीवन की सारी कहानी तस्वीरों में दिखाई देगी। भक्त को सामने की दीवार पर दो व्यक्तियों के पदचिन्हों के रूप में अपने जीवन की सारी घटनाएँ दिखार्इं देने लगीं। भगवान ने कहा-पुत्र! इनमें से एक पदचिन्ह तुम्हारे हैं और दूसरे मेरे। देखो, मैं हर समय तुम्हारे साथ ही चल रहा था। उसने देखा कि बीच-बीच में केवल एक ही व्यक्ति के पदचिन्ह दिखाई दे रहे हैं। उसे याद आया कि ये पदचिन्ह उन समयों के हैं, जब वह कठिन दौर से गुज़र रहा था। उसने भगवान से कहा-प्रभु! इन पदचिन्हों को देखिए। जब जब मुझे आपकी सबसे ज़्यादा आवश्यकता थी, तब तब आप मेरे साथ नहीं थे। भक्त की बात सुनकर भगवान बोले-पुत्र! तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो। मैने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा। परीक्षाओं की घड़ियों में तुम्हें जो पदचिन्ह दिखाई दे रहे हैं, वे मेरे हैं। उस समय मैने तुम्हें अपनी गोद में उठाया हुआ था। इस कारण तुम्हारे पैरों के निशान वहाँ नहीं बन पाए। चूँकि तुम उस समय अपने कर्म में इतने डूब गए थे कि तुम्हें यह भान ही नहीं हुआ कि मैने तुम्हें अपनी गोद में उठा रखा है। कर्म तो तुम्हें ही करना था। इसलिए गोद में रहकर भी तुम कर्म करते रहे और तुम्हारे निष्काम कर्मों का फल मैं तुम्हें तुम्हारी सफलता के रूप में देता रहा।
     भगवान भरोसे रहने वालों के लिए यह अच्छी कहानी है। ईश्वर अपने उन्हीं भक्तों का साथ देता है जो खुद का साथ देते हैं यानी अपने कर्म करते हैं। जो कर्म नहीं करते, उनका भगवान भी साथ नहीं दे सकता। यह मानी हुई बात है। यहाँ एक सवाल यह भी उठ सकता है कि भगवान ने भक्त को जब सदा साथ चलने का वर दे दिया था तो फिर वे अपनी बात से कैसे पलट सकते थे? फिर वह भक्त चाहे कर्म करे या न करे। इसका उत्तर यह है कि भगवान ने उसे हमेशा साथ चलने का वर दिया था, साथ देने का नहीं। यदि भक्त कर्म नहीं करता तो वे उसे गोद में नहीं उठाते, सिर्फ उसके साथ चलते, फिर भले ही वह जीवन के संग्राम में असफल ही क्यों न हो जाता।
     इसलिए आप यदि चाहते हैं कि आपको जीवन में सफलता मिले, तो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरी मेहनत और जोश के साथ निष्काम प्रयत्न करें। क्योंकि आपका अधिकार सिर्फ प्रयत्न करने तक ही सीमित है और फल देने का अधिकार उसका है। इसलिए आप सिर्फ अपने अधिकार का प्रयोग करें, ईश्वर भी अपने अधिकार का उपयोग करेगा यानी आपको फल देगा।

Tuesday, November 8, 2016

अनमने मन में नहीं रह सकता अमन


     सम्राट बिंदुसार के निधन के बाद सुसीम सहित अपने अनेक भाइयों का वध कर गद्दी पर बैठे अशोक ने अपने साम्राज्य का विस्तार जारी रखा। उसका साम्राज्य लगभग संपूर्ण भारत और पश्चिमोत्तर में हिन्दुकुश एवं ईरान की सीमा तक पहुँच चुका था। इसके बाद भी उसके मन को शांति नहीं मिली थी, क्योंकि अजेय कलिंग ने उसका आधिपत्य स्वीकार नहीं किया था। अतः उसने कलिंग पर चढ़ाई कर दी। कलिंग के वीर सैनिकों ने बहादुरी से अशोक की सेना का सामना किया, लेकिन विजय अशोक की ही हुई।
     अशोक कलिंग पर विजय पताका लहराने के लिए रवाना हुआ तो मार्ग में वीभत्स दृश्य देख उस मन उद्वेलित हो उठा। युद्ध में भारी जनसंहार हुआ था। वह जिधर भी जाता, उसे चारों ओर लाशों के ढेर दिखाई देते। हर तरफ चीत्कार मची  हुई थी। लाखों निरपराध लोग काल के गाल में समा जाने के कारण गाँव के गाँव खाली हो गए थे। यह सब अशोक से देखा नहीं गया। उसे बेचैनी होने लगी और वहीं से लौट गया। उसने युद्ध मन की शांति के लिए किया था, लेकिन इससे उसका मन और भी अशांत हो गया था। इस बीच उसकी पत्नी विदिशा हिंसा के विरोध में भिक्षुणी भी बन गई। इससे अशोक को और भी झटका लगा।
     एक दिन उसने महल के झरोखे से एक किशोर भिक्षु को जाते देखा। उसने उसे अपने पास बुलाया तो उसे पता चला कि यह तो उसका भतीजा न्याग्रोध कुमार था, जिसके पिता का वह वध कर चुका था। अशोक ने उससे पूछा- "क्या तुम मुझसे घृणा नहीं करते?' भिक्षु बोला- "नहीं, क्या मैं तुमसे इसलिए घृणा करूँ कि तुमने मेरे पिता को मार डाला। इससे क्या होगा? घृणा से किसी का हित नहीं होता। उसे प्रेम से जीतना चाहिए।' अशोक- "इतनी छोटी उम्र में तुमने यह सब कहां से सीखा?' भिक्षु- "भगवान बुद्ध के उपदेशों से। इससे अशांत मन को शांति मिलती है।' इन सब घटनाओं से उसका ह्मदय परिवर्तित हो गया और वह भी शांति के लिए बुद्ध की शरण में चला गया।
     दोस्तोे न्याग्रोध ने अशोक को शांति का सही रास्ता दिखाया। और कलिंग को जीतकर भी हार चुके, मन की शांति खो चुके अशोक को शांति का सही मार्ग मिल गया, जिसे अपनाकर ही अशोक "अशोक महान' बना। यानी अशोक इसलिए महान नहीं कहलाया कि उसने अजेय कलिंग सहित संपूर्ण भारत पर आधिपत्य स्थापित किया था। वह महान तब बना, जब उसने अपनी गलती से सबक लेकर उसे न दोहराने का प्रण किया। उसके मन की यह भ्रांति दूर हो चुकी थी कि शांति स्थापित करने के लिए युद्ध ज़रूरी है, भय का वातावरण ज़रूरी है। वह समझ चुका था कि शांति तो प्रेम और समझदारी से ही स्थापित की जा सकती है। और प्रेम से वही शांति स्थापित कर सकता है जो अपनी इच्छाओं को जीतकर मन में शांति स्थापित कर चुका हो।
      हम सभी को भी यह बात समझ में आनी चाहिए कि यदि हमारे भीतर अशांति है तो उसे बाहर ढूँढना बेकार है। शांति की शुरुआत खुद से होती है। इसलिए यदि आप चाहते हैं कि आपके आसपास शांति हो, आप शांति से रह सकें तो सबसे पहले अपने आपको शांतचित्त बनाना होगा तभी आप दूसरों को भी शांत रहना सिखा सकेंगे। बहुत से लोगों की आदत होती है कि वे शांति की बात तो बहुत करते हैं, दूसरों को शांत रहने की शिक्षा भी देते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा अशांति भी वही फैलाते हैं। ऐसे लोगोंें से हम कहना चाहेंगे कि सिर्फ शांति की बातें करने से काम नहीं चलता। आपको शांति में विश्वास भी होना चाहिए। और सिर्फ शांति में विश्वास होने से भी काम नहीं चलता, आपको इसके लिए प्रयत्न भी करने होंगे। यानी शांति चाहते हो तो खुद को शांत रखना सीखो। दूसरों को अशांत रखकर शांति की कामना करोगे तो इससे और भी ज्यादा अशांति फैलेगी। कहते हैं कि अमन के लिए ज़रूरी है कि आपका मन अनमना न रहे। और अपने मन को आप ही मना सकते हैं कोई दूसरा नहीं।
     इसलिए आज कमर कस लें कि आप अपने आपसे, अपनी अशांति से युद्ध कर उसे जीतेंगे। यकीन मानिए, यदि आप इस युद्ध में जीतकर तनावों से मुक्त हो गए तो फिर आप भी अशोक बन जाएँगे यानी आपके मन में कोई शोक न होगा। और तब आपको भी महान या सफल बनने से कोई रोक नहीं पाएगा।
     अब बस! हमें भी मन की शांति के लिए ध्यान में बैठना है। चलिए, आप भी ध्यान कीजिए। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।

Thursday, November 3, 2016

अपनों के साथ होती हैं खुशियाँ दोगुनी


     देवर्षि नारद जी के मुख से यह सुनने के बाद कि आपकी पुत्री के भाग्य में तो भगवान शिव से विवाह का योग है। पर्वतराज हिमवंत अपनी पुत्री पार्वती को लेकर शिव के पास गए और आग्रह किया कि वे उसे अपनी सेवा का अवसर दें। शिव ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। और पार्वती उनकी सेवा में जुट गर्इं। इस प्रकार बहुत दिन बीत गए।
     एक दिन पार्वती की सेवा से प्रसन्न होकर शिव बोले-तुम्हें मनचाहा पति मिले। ऐसा पति जो तुमसे ही प्रेम करने वाला हो। वे खुश हो गई। इस बीच कामदेव ने मौका देखकर शिव पर तीर छोड़ दिया, जिससे उनके मन में प्रेम का भाव पैदा हो सके। परन्तु हुआ उलटा और शिव ने क्रोधित होकर कामदेव को भस्म कर दिया। इसके बाद वे किसी अज्ञात स्थान पर चले गए। इससे पार्वती शोक में डूब गई। वे मन ही मन उन्हें अपना पति स्वीकार कर चुकी थीं। उन्होने निश्चय किया कि वे कठोर तपस्या से शिव को पाकर ही रहेंगी। सबसे पहले उन्होने अपने माता-पिता को समझा-बुझाकर इस बात के लिए राजी किया। इसके बाद वे तपस्या करने निकल पड़ीं। उन्होने तपस्विनी का वेश धारण कर लिया और हिमालय के एक शिखर पर जाकर तपस्या आरम्भ कर दी। उनका सुकोमल शरीर तप के योग्य नहीं था, लेकिन शिव प्राप्ति के लक्ष्य के आगे यह सब बातें गौण थीं। एक कन्या को यह सब करते देखकर ऋषि-मुनि आश्चर्य में पड़ जाते। धीरे धीरे उन्होने भोजन का त्याग कर दिया और बर्फ जैसे जलकुंड में बैठकर शिव का ध्यान करने लगीं। इस तरह कई वर्ष बीत गए। लेकिन पार्वती की हिम्मत नहीं टूटी।
     एक दिन जब पार्वती पूजा-अर्चना की तैयारी कर रही थीं कि एक ब्राहृचारी वहाँ आया। पार्वती ने उसका सत्कार किया। ब्राहृचारी बोला-देवी, मुझे तुम्हारे कठोर तप के बारे में पता चला। नारी होकर तुमने संसार के लिए उदाहरण प्रस्तुत किया है। लेकिन तुमने इतना कठोर तप किया क्यों? इस पर पार्वती ने इशारे से अपनी सखी से उत्तर देने को कहा। सखी ने तप का कारण बताया। इस पर ब्राहृचारी हँस पड़ा और शिव के रहन-सहन वेशभूषा आदि के बारे में ऊटपटाँग बोलने लगा। शिव की निन्दा सुनकर पार्वती को क्रोध आ गया। वे बोली-तुम निश्चित ही मूर्ख हो, जो महादेव को नहीं पहचान पाए। वे न दिखावा करते हैं और न ही दिखावे से प्रभावित होते हैं। वे भोले हैं। और सबसे बड़ी बात वे जैसे भी हैं, मैं उनसे प्रेम करती हूँ। इसलिए आप उनके बारे में अब एक भी अनुचित शब्द नहीं कहेंगे। इसके बाद वे सहेली से बोलीं- बुरी बात कहना तो पाप है ही, उसे सुनना भी महापाप है। उसके बाद पार्वती ने जैसे ही जाने के लिए कदम बढ़ाया तो ब्राहृचारी ने आगे बढ़कर उनका रास्ता रोक लिया। पार्वती ने जैसे ही गुस्से में उसकी ओर देखा तो पाया कि वहां तो स्वयं शिव खड़े थे, जो ब्राहृचारी के वेश में पार्वती की परीक्षा लेने आए थे। वे बोले-सुकुमारी, तुम्हारी तपस्या और भक्ति ने मुझे जीत लिया। आज मैं तुम्हारा सेवक हूँ। मुझसे विवाह करोगी। यह सुनकर पार्वती लजा गर्इं। वे अपनी सखी से बोलीं- इनसे कहो कि ये मेरे माता-पिता के सामने विवाह का प्रस्ताव रखें। वे ही इस बात का निर्णय कर सकते हैं। शिव बोले-प्रिये, मैं इसमें तनिकभी देरी नहीं लगाऊँगा। इसके बाद उन्होने हिमवंत के पास विवाह प्रस्ताव भिजवाया। हिमवंत भी यही चाहते थे। वे तुरंत तैयार हो गए। सभी ओर प्रसन्नता छा गई। उचित समय पर विधिपूर्वक शिव-पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ, जिसमें स्वजनों के अलावा तीनों लोकों के अतिथि शामिल हुए।
     दोस्तो, यही है खुशियां मनाने का सही तरीका। आप खुशियां तब तक पूरी तरह नहीं मना सकते जब तक कि उनमें आपके अपने प्रियजन व मित्र सम्मिलित न हों। पार्वती ने अपने मनचाहे वर को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की, लेकिन जब तपस्या सफल हो गई तो अपनी खुशियों में उन्होने अपने माता-पिता को शामिल कर उन्हें अपेक्षित सम्मान दिया। हालांकि वे पहले से यही चाहते थे, लेकिन बेटी द्वारा अपनी भावनाओं का ख्याल रखे जाने से उन्हें अधिक खुशी हुई होगी। यदि हर बच्चा यही आचरण अपनाए तो शायद ही किसी माता-पिता को उनकी खुशियों में शामिल होने में परेशानी हो। हम बात कर रहे हैं उन बच्चों की, जो अपनी मर्ज़ी से जीवन साथी का तो चयन करते हैं लेकिन प्रियजनों की भावनाओं का ख्याल नहीं रखते। इसका परिणाम भविष्य में उन्हें नकारात्मक ही मिलता है। इसलिए हमें हमेशा अपने परिजनों की भावनाओं और सम्मान का ध्यान रखना चाहिए। ये छोटी-छोटी बातें हैं लेकिन इन बातों का ध्यान रखने से हम कई बड़े तनावों से बच जाते हैं।