Saturday, December 31, 2016

सबसे बड़ा पुण्य

 

सबसे बड़ा पुण्य


🔴 एक राजा बहुत बड़ा प्रजापालक था, हमेशा प्रजा के हित में प्रयत्नशील रहता था. वह इतना कर्मठ था कि अपना सुख, ऐशो-आराम सब छोड़कर सारा समय जन-कल्याण में ही लगा देता था. यहाँ तक कि जो मोक्ष का साधन है अर्थात भगवत-भजन, उसके लिए भी वह समय नहीं निकाल पाता था।

🔵 एक सुबह राजा वन की तरफ भ्रमण करने के लिए जा रहा था कि उसे एक देव के दर्शन हुए. राजा ने देव को प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन किया और देव के हाथों में एक लम्बी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा-

🔴 “महाराज, आपके हाथ में यह क्या है?”

🔵 देव बोले- “राजन! यह हमारा बहीखाता है, जिसमे सभी भजन करने वालों के नाम हैं।”

🔴 राजा ने निराशायुक्त भाव से कहा- “कृपया देखिये तो इस किताब में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?”

🔵 देव महाराज किताब का एक-एक पृष्ठ उलटने लगे, परन्तु राजा का नाम कहीं भी नजर नहीं आया।

🔴 राजा ने देव को चिंतित देखकर कहा- “महाराज ! आप चिंतित ना हों , आपके ढूंढने में कोई भी कमी नहीं है. वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता, और इसीलिए मेरा नाम यहाँ नहीं है।”

🔵 उस दिन राजा के मन में आत्म-ग्लानि-सी उत्पन्न हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे नजर-अंदाज कर दिया और पुनः परोपकार की भावना लिए दूसरों की सेवा करने में लग गए।

🔴 कुछ दिन बाद राजा फिर सुबह वन की तरफ टहलने के लिए निकले तो उन्हें वही देव महाराज के दर्शन हुए, इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी. इस पुस्तक के रंग और आकार में बहुत भेद था, और यह पहली वाली से काफी छोटी भी थी।

🔵 राजा ने फिर उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा- “महाराज ! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है?”

🔴 देव ने कहा- “राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों का नाम लिखा है जो ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय हैं!”

🔵 राजा ने कहा- “कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग? निश्चित ही वे दिन रात भगवत-भजन में लीन रहते होंगे! क्या इस पुस्तक में कोई मेरे राज्य का भी नागरिक है?”

🔴 देव महाराज ने बहीखाता खोला, और ये क्या, पहले पन्ने पर पहला नाम राजा का ही था।

🔵 राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- “महाराज, मेरा नाम इसमें कैसे लिखा हुआ है, मैं तो मंदिर भी कभी-कभार ही जाता हूँ?

🔴 देव ने कहा- “राजन! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जो लोग निष्काम होकर संसार की सेवा करते हैं, जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं. जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानो की सेवा-सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है. ऐ राजन! तू मत पछता कि तू पूजा-पाठ नहीं करता, लोगों की सेवा कर तू असल में भगवान की ही पूजा करता है। परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना से बढ़कर हैं।

🔵 देव ने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा- “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छनं समाः एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कर्म लिप्यते नरे..”

🔴 अर्थात ‘कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की ईच्छा करो तो कर्मबंधन में लिप्त हो जाओगे.’ राजन! भगवान दीनदयालु हैं. उन्हें खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है.. सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो. दीन-दुखियों का हित-साधन करो. अनाथ, विधवा, किसान व निर्धन आज अत्याचारियों से सताए जाते हैं इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा करो और यही परम भक्ति है..”

🔵 राजा को आज देव के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान मिल चुका था और अब राजा भी समझ गया कि परोपकार से बड़ा कुछ भी नहीं और जो परोपकार करते हैं वही भगवान के सबसे प्रिय होते हैं।

🔴 मित्रों, जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने के लिए आगे आते हैं, परमात्मा हर समय उनके कल्याण के लिए यत्न करता है. हमारे पूर्वजों ने कहा भी है- “परोपकाराय पुण्याय भवति” अर्थात दूसरों के लिए जीना, दूसरों की सेवा को ही पूजा समझकर कर्म करना, परोपकार के लिए अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पुण्य है. और जब आप भी ऐसा करेंगे तो स्वतः ही आप वह ईश्वर के प्रिय भक्तों में शामिल हो जाएंगे।

Monday, December 5, 2016

खाने के लिए न जीएँ, जीने के लिए खाएँ


     आयुर्वेद के रचियता महर्षि चरक ने इस ग्रंथ में सभी रोगों की चिकित्सा विधियां, हर प्रकार की औषधियाँ, निरोगी रहने के उपाय आदि का वर्णन किया था। चिकित्सा से संबंधित यह पहला ग्रंथ था, इसलिए प्रचलित भी तेज़ी से हुआ। हर ओर आयुर्वेद के चर्चे हो गए। इसे पढ़-पढ़कर बहुत से लोग आयुर्वेदाचार्य बन गए। लेकिन तब चूंकि संचार के प्रयाप्त माध्यम नहीं थे, अतः चरक को इस बात का पूरी तरह अंदाज़ा नहीं लग पाया था कि लोग किस सीमा तक उनकी बताई पद्धतियों का उपयोग कर लोगों की सेवा कर रहे हैं, उन्हें रोग मुक्त कर रहे हैं।
     एक बार उन्होने सोचा कि यह देखा जाए कि मेरा परिश्रम कितना सार्थक और सफल रहा। इसके लिए उन्होने एक पक्षी का रूप धारण किया और वे उड़कर उस जगह पहुँचे, जहाँ एक साथ कई वैद्य रहते थे। एक वृक्ष पर बैठकर उन्होने पक्षी की आवाज़ में पूछा- "कौररूक?' यानी रोगी कौन नहीं है? एक वैद्य ने यह सुनकर पक्षी की ओर देखा और उसके कहने का आशय समझकर बोला-जो च्यवनप्राश खाता है। दूसरा वैद्य बोला-नहीं, आप गलत कह रहे हो। रोगी वह नहीं है जो चंद्रप्रभा वटी खाता है। तीसरा वैद्य उसे टोकते हुए बोला-नहीं, वही निरोगी और स्वस्थ रह सकता है जो रोज बंग-भस्म खाए। इस पर चौथा बोला-लगता है तुम सबने आयुर्वेद ठीक से नहीं पढ़ा। सारी बीमारियों की जड़ पेट है और जब तक लवण-भास्कर चूर्ण नहीं खाओगे, तब तक पेट ठीक नहीं होगा।
     चरक ने जब ये सब बातें सुनी तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे सोचने लगे कि क्या मैने इस शास्त्र को लोगों के पेट को औषधियों का गोदाम बनाने के लिए लिखा था। मेरा सारा परिश्रम निष्फल हो गया। ये सब मेरी लिखी हुई बातों के वास्तविक अर्थ को जान ही नहीं पाए और ऊपरी तौर पर पढ़कर दुकानदारी चलाने लगे। वे दुःखी होकर दूसरी जगह उड़ गए। इसके बाद वे कई स्थानों पर गए, लेकिन हर जगह अज्ञानता भरी बातों को सुनकर उनकी निराशा और बढ़ती गई। अंत में अत्यंत विषाद भरी अवस्था में वे एक सुनसान जगह पर सूखे वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए थे। वहाँ प्रसिद्ध वैद्य वाग्भट्ट का आश्रम था। पास ही बहती नदी में नहाकर जब वे बाहर आए तो चरक ने उन्हें पहचान कर अंतिम आशा के साथ कहा- "कोररूक?' वाग्भट्ट ने जब यह सुना तो तुरंत बोले- "हितभुक् मितभुक्, ऋत्भुक्।' यानी वह रोगी नहीं है जो ऐसी वस्तुएँ खाए, जो शरीर के लिए अच्छी हों। केवल खाने के लिए न जिए, जीने के लिए खाए। जीभ के स्वाद में फँसकर पेट में कचरा न भरता जाए। चरक यह सुनते ही पेड़ से नीचे उतर आए और अपने असली रूप में आकर वाग्भट्ट से बोले-वैद्यराज! तुम मेरे शास्त्र का सही अर्थ समझे हो।
     दोस्तो! आप भी समझ गए होंगे कि अच्छी सेहत के सही नुस्खे क्या हैं। कितनी सही बात है कि केवल खाने के लिए नहीं जिएँ, बल्कि जीने के लिए खाएँ। लेकिन हम क्या करते हैं। हम खाने के लिए ही जीते हैं। हमारा न तो अपनी जीभ पर वश चलता है, न ही अपने पेट पर। स्वाद के लोभ में फँसे हम अपने पेट में न जाने क्या-क्या भरते जाते हैं। हम सोचते ही नहीं कि क्या हमारे लिए अच्छा है और क्या नहीं। बस अपने पेट को डस्टबिन या कचरा पेटी समझकर भरे जाते हैं उलटा-सुलटा। अब उलटे-सुलटे का असर भी तो वैसा ही होगा। और इसका असर पड़ता है हमारे स्वास्थ्य पर। हमारी सेहत बिगड़ती है। हमें लगते हैं तरह-तरह के रोग। क्योंकि जो जगह आपके स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण है, उसे तो आपने कचरा पेटी ही बना दिया है। अब कचरा पेटी में पड़ा सामान तो सड़ता ही है। जब सड़ेगा तो इसकी सड़ांध तो फैलेगी ही। और वह फैलकर प्रभावित करती है आपके शरीर को जो उसका पूरा संतुलन ही बिगाड़ देती है। जब संतुलन बिगड़ता है तो आप डॉक्टरों के पास भागते हैं। अगर वाग्भट्ट जैसे डॉक्टर मिल गए, तब तो ठीक है वरना किसी दुकानदारी करते नीम हकीम के हत्थे चढ़ गए तो वह आपके पेट को ही औषधियों का गोदाम बना देगा और आपको अच्छा करना तोे दूर, उल्टे आपकी हालत और खराब कर देगा। वैसे अच्छे डॉक्टर भी कहाँ तक टेका लगा लेंगे। वे कचरे को साफ करने के लिए दवाएँ देते हैं। ये दवाएँ भी कहीं न कहीं शरीर पर विपरीत असर डालती हैं और इस तरह केवल जीभ पर नियंत्रण न रखने की वजह से आपकी चकरघिन्नी बन जाती है। इसलिए यदि आप इन परिस्थितियों से बचना चाहते हैं तो "फास्ट फूड' संस्कृति के बढ़ते दौर में आज "विश्व स्वास्थ्य दिवस' पर यह प्रण करें कि आप आज से ही अपनी जीभ पर नियंत्रण शुरु कर देंगे। आप जीने के लिए खाएँगे न कि खाने के लिए जिएँगे। सिर्फ वही चीज़ खाएँगे जो शरीर के लिए उपयोगी हो यानी किसी भी चीज़ को खाने से पहले यह सोचेंगे कि इससे हमारे शरीर को क्या लाभ होगा। यकीन मानिए, फास्ट फूट आपके शरीर के लिए किसी भी तरह से उपयोगी नहीं हो सकते। केवल संतुलित आहार ही आपकी सेहत को ठीक रख सकता है। जब आप संतुलित आहार लेंगे तो आपकी सेहत अच्छी बनी रहेगी। अच्छी सेहत आपके मन को भी अच्छा रखेगी, जिससे आपकी कार्यकुशलता प्रभावित नहीं होगी और तब आप अपने सारे सपने पूरे कर पाएँगे। क्योंकि सपने पूरे करने के लिए आपको स्वस्थ और प्रसन्न चित रहना ज़रूरी है।