Tuesday, January 3, 2017

👉 बाँस का पेड़

👉 बाँस का पेड़


🔵 एक संत अपने शिष्य के साथ जंगल में जा रहे थे। ढलान पर से गुजरते अचानक शिष्य का पैर फिसला और वह तेजी से नीचे की ओर लुढ़कने लगा। वह खाई में गिरने ही वाला था कि तभी उसके हाथ में बांस का एक पौधा आ गया। उसने बांस के पौधे को मजबूती से पकड़ लिया और वह खाई में गिरने से बच गया।

🔴 बांस धनुष की तरह मुड़ गया लेकिन न तो वह जमीन से उखड़ा और न ही टूटा. वह बांस को मजबूती से पकड़कर लटका रहा। थोड़ी देर बाद उसके गुरू पहुंचे।उन्होंने हाथ का सहारा देकर शिष्य को ऊपर खींच लिया। दोनों अपने रास्ते पर आगे बढ़ चले।

🔵 राह में संत ने शिष्य से कहा- जान बचाने वाले बांस ने तुमसे कुछ कहा, तुमने सुना क्या?

🔴 शिष्य ने कहा- नहीं गुरुजी, शायद प्राण संकट में थे इसलिए मैंने ध्यान नहीं दिया और मुझे तो पेड-पौधों की भाषा भी नहीं आती. आप ही बता दीजिए उसका संदेश।

🔵 गुरु मुस्कुराए- खाई में गिरते समय तुमने जिस बांस को पकड़ लिया था, वह पूरी तरह मुड़ गया था।फिर भी उसने तुम्हें सहारा दिया और जान बची ली।

🔴 संत ने बात आगे बढ़ाई- बांस ने तुम्हारे लिए जो संदेश दिया वह मैं तुम्हें दिखाता हूं।

🔵 गुरू ने रास्ते में खड़े बांस के एक पौधे को खींचा औऱ फिर छोड़ दिया। बांस लचककर अपनी जगह पर वापस लौट गया।

🔴 हमें बांस की इसी लचीलेपन की खूबी को अपनाना चाहिए। तेज हवाएं बांसों के झुरमुट को झकझोर कर उखाड़ने की कोशिश करती हैं लेकिन वह आगे-पीछे डोलता मजबूती से धरती में जमा रहता है।

🔵 बांस ने तुम्हारे लिए यही संदेश भेजा है कि जीवन में जब भी मुश्किल दौर आए तो थोड़ा झुककर विनम्र बन जाना लेकिन टूटना नहीं क्योंकि बुरा दौर निकलते ही पुन: अपनी स्थिति में दोबारा पहुंच सकते हो।

🔴 शिष्य बड़े गौर से सुनता रहा। गुरु ने आगे कहा- बांस न केवल हर तनाव को झेल जाता है बल्कि यह उस तनाव को अपनी शक्ति बना लेता है और दुगनी गति से ऊपर उठता है। बांस ने कहा कि तुम अपने जीवन में इसी तरह लचीले बने रहना। 

गुरू ने शिष्य को कहा- पुत्र पेड़-पौधों की भाषा मुझे भी नहीं आती।

🔵 बेजुबान प्राणी हमें अपने आचरण से बहुत कुछ सिखाते हैं। जरा सोचिए कितनी बड़ी बात है। हमें सीखने के सबसे ज्यादा अवसर उनसे मिलते हैं जो अपने प्रवचन से नहीं बल्कि कर्म से हमें लाख टके की बात सिखाते हैं।


👉 हम नहीं पहचान पाते, तो यह कमी हमारी है।

Saturday, December 31, 2016

सबसे बड़ा पुण्य

 

सबसे बड़ा पुण्य


🔴 एक राजा बहुत बड़ा प्रजापालक था, हमेशा प्रजा के हित में प्रयत्नशील रहता था. वह इतना कर्मठ था कि अपना सुख, ऐशो-आराम सब छोड़कर सारा समय जन-कल्याण में ही लगा देता था. यहाँ तक कि जो मोक्ष का साधन है अर्थात भगवत-भजन, उसके लिए भी वह समय नहीं निकाल पाता था।

🔵 एक सुबह राजा वन की तरफ भ्रमण करने के लिए जा रहा था कि उसे एक देव के दर्शन हुए. राजा ने देव को प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन किया और देव के हाथों में एक लम्बी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा-

🔴 “महाराज, आपके हाथ में यह क्या है?”

🔵 देव बोले- “राजन! यह हमारा बहीखाता है, जिसमे सभी भजन करने वालों के नाम हैं।”

🔴 राजा ने निराशायुक्त भाव से कहा- “कृपया देखिये तो इस किताब में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?”

🔵 देव महाराज किताब का एक-एक पृष्ठ उलटने लगे, परन्तु राजा का नाम कहीं भी नजर नहीं आया।

🔴 राजा ने देव को चिंतित देखकर कहा- “महाराज ! आप चिंतित ना हों , आपके ढूंढने में कोई भी कमी नहीं है. वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता, और इसीलिए मेरा नाम यहाँ नहीं है।”

🔵 उस दिन राजा के मन में आत्म-ग्लानि-सी उत्पन्न हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे नजर-अंदाज कर दिया और पुनः परोपकार की भावना लिए दूसरों की सेवा करने में लग गए।

🔴 कुछ दिन बाद राजा फिर सुबह वन की तरफ टहलने के लिए निकले तो उन्हें वही देव महाराज के दर्शन हुए, इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी. इस पुस्तक के रंग और आकार में बहुत भेद था, और यह पहली वाली से काफी छोटी भी थी।

🔵 राजा ने फिर उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा- “महाराज ! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है?”

🔴 देव ने कहा- “राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों का नाम लिखा है जो ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय हैं!”

🔵 राजा ने कहा- “कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग? निश्चित ही वे दिन रात भगवत-भजन में लीन रहते होंगे! क्या इस पुस्तक में कोई मेरे राज्य का भी नागरिक है?”

🔴 देव महाराज ने बहीखाता खोला, और ये क्या, पहले पन्ने पर पहला नाम राजा का ही था।

🔵 राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- “महाराज, मेरा नाम इसमें कैसे लिखा हुआ है, मैं तो मंदिर भी कभी-कभार ही जाता हूँ?

🔴 देव ने कहा- “राजन! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जो लोग निष्काम होकर संसार की सेवा करते हैं, जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं. जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानो की सेवा-सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है. ऐ राजन! तू मत पछता कि तू पूजा-पाठ नहीं करता, लोगों की सेवा कर तू असल में भगवान की ही पूजा करता है। परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना से बढ़कर हैं।

🔵 देव ने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा- “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छनं समाः एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कर्म लिप्यते नरे..”

🔴 अर्थात ‘कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की ईच्छा करो तो कर्मबंधन में लिप्त हो जाओगे.’ राजन! भगवान दीनदयालु हैं. उन्हें खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है.. सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो. दीन-दुखियों का हित-साधन करो. अनाथ, विधवा, किसान व निर्धन आज अत्याचारियों से सताए जाते हैं इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा करो और यही परम भक्ति है..”

🔵 राजा को आज देव के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान मिल चुका था और अब राजा भी समझ गया कि परोपकार से बड़ा कुछ भी नहीं और जो परोपकार करते हैं वही भगवान के सबसे प्रिय होते हैं।

🔴 मित्रों, जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने के लिए आगे आते हैं, परमात्मा हर समय उनके कल्याण के लिए यत्न करता है. हमारे पूर्वजों ने कहा भी है- “परोपकाराय पुण्याय भवति” अर्थात दूसरों के लिए जीना, दूसरों की सेवा को ही पूजा समझकर कर्म करना, परोपकार के लिए अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पुण्य है. और जब आप भी ऐसा करेंगे तो स्वतः ही आप वह ईश्वर के प्रिय भक्तों में शामिल हो जाएंगे।

Monday, December 5, 2016

खाने के लिए न जीएँ, जीने के लिए खाएँ


     आयुर्वेद के रचियता महर्षि चरक ने इस ग्रंथ में सभी रोगों की चिकित्सा विधियां, हर प्रकार की औषधियाँ, निरोगी रहने के उपाय आदि का वर्णन किया था। चिकित्सा से संबंधित यह पहला ग्रंथ था, इसलिए प्रचलित भी तेज़ी से हुआ। हर ओर आयुर्वेद के चर्चे हो गए। इसे पढ़-पढ़कर बहुत से लोग आयुर्वेदाचार्य बन गए। लेकिन तब चूंकि संचार के प्रयाप्त माध्यम नहीं थे, अतः चरक को इस बात का पूरी तरह अंदाज़ा नहीं लग पाया था कि लोग किस सीमा तक उनकी बताई पद्धतियों का उपयोग कर लोगों की सेवा कर रहे हैं, उन्हें रोग मुक्त कर रहे हैं।
     एक बार उन्होने सोचा कि यह देखा जाए कि मेरा परिश्रम कितना सार्थक और सफल रहा। इसके लिए उन्होने एक पक्षी का रूप धारण किया और वे उड़कर उस जगह पहुँचे, जहाँ एक साथ कई वैद्य रहते थे। एक वृक्ष पर बैठकर उन्होने पक्षी की आवाज़ में पूछा- "कौररूक?' यानी रोगी कौन नहीं है? एक वैद्य ने यह सुनकर पक्षी की ओर देखा और उसके कहने का आशय समझकर बोला-जो च्यवनप्राश खाता है। दूसरा वैद्य बोला-नहीं, आप गलत कह रहे हो। रोगी वह नहीं है जो चंद्रप्रभा वटी खाता है। तीसरा वैद्य उसे टोकते हुए बोला-नहीं, वही निरोगी और स्वस्थ रह सकता है जो रोज बंग-भस्म खाए। इस पर चौथा बोला-लगता है तुम सबने आयुर्वेद ठीक से नहीं पढ़ा। सारी बीमारियों की जड़ पेट है और जब तक लवण-भास्कर चूर्ण नहीं खाओगे, तब तक पेट ठीक नहीं होगा।
     चरक ने जब ये सब बातें सुनी तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे सोचने लगे कि क्या मैने इस शास्त्र को लोगों के पेट को औषधियों का गोदाम बनाने के लिए लिखा था। मेरा सारा परिश्रम निष्फल हो गया। ये सब मेरी लिखी हुई बातों के वास्तविक अर्थ को जान ही नहीं पाए और ऊपरी तौर पर पढ़कर दुकानदारी चलाने लगे। वे दुःखी होकर दूसरी जगह उड़ गए। इसके बाद वे कई स्थानों पर गए, लेकिन हर जगह अज्ञानता भरी बातों को सुनकर उनकी निराशा और बढ़ती गई। अंत में अत्यंत विषाद भरी अवस्था में वे एक सुनसान जगह पर सूखे वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए थे। वहाँ प्रसिद्ध वैद्य वाग्भट्ट का आश्रम था। पास ही बहती नदी में नहाकर जब वे बाहर आए तो चरक ने उन्हें पहचान कर अंतिम आशा के साथ कहा- "कोररूक?' वाग्भट्ट ने जब यह सुना तो तुरंत बोले- "हितभुक् मितभुक्, ऋत्भुक्।' यानी वह रोगी नहीं है जो ऐसी वस्तुएँ खाए, जो शरीर के लिए अच्छी हों। केवल खाने के लिए न जिए, जीने के लिए खाए। जीभ के स्वाद में फँसकर पेट में कचरा न भरता जाए। चरक यह सुनते ही पेड़ से नीचे उतर आए और अपने असली रूप में आकर वाग्भट्ट से बोले-वैद्यराज! तुम मेरे शास्त्र का सही अर्थ समझे हो।
     दोस्तो! आप भी समझ गए होंगे कि अच्छी सेहत के सही नुस्खे क्या हैं। कितनी सही बात है कि केवल खाने के लिए नहीं जिएँ, बल्कि जीने के लिए खाएँ। लेकिन हम क्या करते हैं। हम खाने के लिए ही जीते हैं। हमारा न तो अपनी जीभ पर वश चलता है, न ही अपने पेट पर। स्वाद के लोभ में फँसे हम अपने पेट में न जाने क्या-क्या भरते जाते हैं। हम सोचते ही नहीं कि क्या हमारे लिए अच्छा है और क्या नहीं। बस अपने पेट को डस्टबिन या कचरा पेटी समझकर भरे जाते हैं उलटा-सुलटा। अब उलटे-सुलटे का असर भी तो वैसा ही होगा। और इसका असर पड़ता है हमारे स्वास्थ्य पर। हमारी सेहत बिगड़ती है। हमें लगते हैं तरह-तरह के रोग। क्योंकि जो जगह आपके स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण है, उसे तो आपने कचरा पेटी ही बना दिया है। अब कचरा पेटी में पड़ा सामान तो सड़ता ही है। जब सड़ेगा तो इसकी सड़ांध तो फैलेगी ही। और वह फैलकर प्रभावित करती है आपके शरीर को जो उसका पूरा संतुलन ही बिगाड़ देती है। जब संतुलन बिगड़ता है तो आप डॉक्टरों के पास भागते हैं। अगर वाग्भट्ट जैसे डॉक्टर मिल गए, तब तो ठीक है वरना किसी दुकानदारी करते नीम हकीम के हत्थे चढ़ गए तो वह आपके पेट को ही औषधियों का गोदाम बना देगा और आपको अच्छा करना तोे दूर, उल्टे आपकी हालत और खराब कर देगा। वैसे अच्छे डॉक्टर भी कहाँ तक टेका लगा लेंगे। वे कचरे को साफ करने के लिए दवाएँ देते हैं। ये दवाएँ भी कहीं न कहीं शरीर पर विपरीत असर डालती हैं और इस तरह केवल जीभ पर नियंत्रण न रखने की वजह से आपकी चकरघिन्नी बन जाती है। इसलिए यदि आप इन परिस्थितियों से बचना चाहते हैं तो "फास्ट फूड' संस्कृति के बढ़ते दौर में आज "विश्व स्वास्थ्य दिवस' पर यह प्रण करें कि आप आज से ही अपनी जीभ पर नियंत्रण शुरु कर देंगे। आप जीने के लिए खाएँगे न कि खाने के लिए जिएँगे। सिर्फ वही चीज़ खाएँगे जो शरीर के लिए उपयोगी हो यानी किसी भी चीज़ को खाने से पहले यह सोचेंगे कि इससे हमारे शरीर को क्या लाभ होगा। यकीन मानिए, फास्ट फूट आपके शरीर के लिए किसी भी तरह से उपयोगी नहीं हो सकते। केवल संतुलित आहार ही आपकी सेहत को ठीक रख सकता है। जब आप संतुलित आहार लेंगे तो आपकी सेहत अच्छी बनी रहेगी। अच्छी सेहत आपके मन को भी अच्छा रखेगी, जिससे आपकी कार्यकुशलता प्रभावित नहीं होगी और तब आप अपने सारे सपने पूरे कर पाएँगे। क्योंकि सपने पूरे करने के लिए आपको स्वस्थ और प्रसन्न चित रहना ज़रूरी है।

Monday, November 28, 2016

हाथ फैलाएं नहीं बल्कि हाथ फहराएँ।


     एक बार मथुरा के गऊघाट पर सैंकड़ों भक्तों के सामने सूरदास अपने लिखे पदों का गायन कर रहे थे। उनकी आवाज़ की मिठास और पदों के शब्दों के जादू से पूरा वातावरण भक्तिमय हो गया था। कृष्णभक्त भक्ति रस में डूबकर आनंद ले रहे थे। उनके सैंकड़ों शिष्य थे जो उन्हें गायक महात्मा कहते थे। अनेक कठिनाइयाँ उठाकर सूरदास ने यह मुकाम हासिल किया था। अँधे होने की वजह से बचपन से ही उनके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जाता था। जब उन्होने पढ़ने की इच्छा व्यक्त की तो उनके पिता ने यह कह कर भगा दिया कि अंधे को क्या पढ़ाऊँगा। इससे वे बेहद निराश हो गए।
      एक बार गाँव से एक साधु मंडली भजन गाती-बजाती निकली। संगीत में उन्हें इतना आनंद आया कि वे बेसुध होकर उसके पीछे-पीछे चल दिए। इसके बाद वे घर नहीं लौटे। एक दिन जब सूरदास अपनी कुटिया में बैठे थे, तभी एक शिष्य ने आकर सूचना दी कि महाप्रभु बल्लभाचार्य वृंदावन जाने वाले हैं। उस समय के सब विद्वानों में महाप्रभु शीर्ष पर थे। इस पर उदास होकर सूरदास बोले कि काश, मेरी महाप्रभु से भेंट हो पाती। इस बीच एक और शिष्य आकर उनसे बोला-महाप्रभु आपसे भेंट करने कुटिया की ओर ही आ रहे हैं। सूरदास बोले-पागल हो गया है क्या? इतना बड़ा विद्वान मुझ जैसे तुच्छ प्राणी से मिलने क्यों आएगा? वे कहीं ओर जा रहे होंगे। तभी महाप्रभु वहाँ पहुंच गए। सूरदास को विश्वास ही नहीं हो रहा था। वे भाव-विभोर होकर गिरते-गिराते उनकी अगवानी के लिए बाहर आए और उनके पैरों में गिर पड़े। आचार्य ने उन्हें उठाकर प्यार से गले लगा लिया और बोले-तुम्हारे गायन की बड़ी प्रशंसा सुनी है। तुम्हारा गायन सुनने की इच्छा हुई तो चला आया।
     सूरदास बोले-क्यों अंधे का दिल रख रहे हो महाप्रभु! थोड़ा-बहुत ऐसे ही गा लेता हूँ। अपाहिज हूँ ना, इससे ज़्यादा और कुछ सीखा ही नहीं। महाप्रभु बोले-तुम अपने आपको असहाय मानना बंद करो। तुम्हें यह घिघियाने की आदत छोड़नी होगी। तुम किसी से कम नहीं हो। अपनी कमियों से ध्यान हटाकर अपने गुणों को पहचानो। तुम कृष्णभक्ति को नए आयाम देने के लिए पैदा हुए हो। महाप्रभु की बातों से सूरदास को तो जैसे रोशनी मिल गई। वे बोले-लेकिन मुझे कृष्ण की लीलाओं का ज्ञान नहीं। महाप्रभु ने कहा- वह मैं तम्हें बताऊँगा। इसके बात उन्होने गुरु-मंत्र देकर सूरदास को अपना शिष्य बना लिया। सूरदास ने इसके बाद कभी अपने आपको असहाय नहीं माना और मन की आँखों से देखकर कृष्ण लीलाओं का वर्णन किया।
     दोस्तो, आप कितने ही कमज़ोर क्यों न हों, अपने आपको कभी लाचार या असहाय न समझे। क्योंकि यदि आपके दिमाग में यह बात बैठ गई कि आप कमज़ोर हैं तो फिर आप कभी कुछ नहीं कर पाएँगे। आप एक लाचार की तरह व्यवहार करेंगे। यह एक ऐसा भाव है जो अच्छे-भले इंसान को भी अपाहिज बना देता है। इसलिए कहा भी गया है कि मन से अपाहिज होने से अच्छा है तन से अपाहिज होना। तन से अपाहिज होने के बाद भी लोग बड़ी-बड़ी सफलताएँ हासिल कर लेते हैं, जैसे कि संत सूरदास ने आँखें न होने के बाद भी कृष्ण लीलाओं का इतना सुंदर चित्रण करके प्राप्त की। लेकिन यदि आप मन से अपाहिज हो गए तो फिर कुछ भी करने के काबिल नहीं रहेंगे।
       इसलिए कभी विवशताओं को अपने ऊपर हावी मत होने दो और न ही उनसे भागो, क्योंकि आप उनसे भाग नहीं सकते। इसलिए बेहतर यह है कि उन पर विजय पाओ। यह बात उस स्थिति में भी लागू होती है, जब आप शारीरिक रूप से अपंग हों। यदि ऐसा है तो भी क्या हुआ। अपंगता नियति हो सकती है, लेकिन इति कभी नहीं।
     इसलिए ऐसी स्थिति में भी अपने आपको कमज़ोर न समझे। क्योंकि ईश्वर यदि आप में कोई कमी रखता है तो ऐसे गुण भी देता है, जो सामान्य लोगों में नहीं होते। ज़रूरत है अपने अंदर छुपे उन गुणों को पहचानने की। जब पहचान लेंगे तो कभी अपने आपको दीन, निर्बल, लाचार और असहाय नहीं समझेंगे। ऐसे अनेक लोग समाज में आपको मिल जाएंगे, जिन्होंने अपनी कमज़ोरी को ही अपना हथियार बनाया। आज वे दूसरों का सहारा लेने की जगह दूसरों के सहारे बने हुए हैं। आपको भी यही करना है। तब आप किसी के सामने हाथ फैलाएँगे नहीं, सफलता पाकर हाथ फहराएंगे।

Thursday, November 17, 2016

आपके डूबने से जग नहीं डूब जाता


    नदी के किनारे एक गाँव था। वहाँ लोग त्योहारों पर आकर स्नान ध्यान करते थे। एक बार सोमवती अमावस्या के दिन वहाँ स्नान करने के लिए काफी भीड़ इकट्ठा हुई। उस दिन नदी का बहाव बहुत तेज था, इसलिए लोग किनारे पर ही स्नान कर रहें थे। इस बीच पास के ही एक गाँव से आया एक युवक नदी में गहराई के ओर जाने लगा। उसे तैरना नहीं आता था। उसे ऐसा करते देख लोगों ने समझाया कि बहाव तेज है, कहीं संतुलन बिगड़ गया तो लेने के देने पड़ सकते हैं। लेकिन वह युवक उत्साही था, उसने किसी की नहीं सुनी और आगे बढ़ता गया। पानी उसके कमर के ऊपर आ चुका था। इस बीच उसने एक कदम और बढ़ाया। वहाँ एक गड्ढा था, जिससे उसका संतुलन बिगड़ गया। उसने सँभलने की कोशिश की, लेकिन उसके पैर ज़मीन पर नहीं टिक पा रहें थे। अपने आप को बचाने के लिए वह हाथ-पैर मारने लगा। जब उसकी हिम्मत जवाब देने लगी, तो वह चिल्लाने लगा- बचाओ! बचाओ! उसकी आवाज सुनकर लोगों ने देखा। इतने में वह फिर चिल्लाया- खड़े- खड़े क्या देख रहें हो। मुझे डूबने से बचाओ, वरना मैं डूबा तो जग डूबा। उसकी बात सुनकर कुछ तैराक नदी में कूदे और उसे सही-सलामत किनारे पर ले  आए।
     तब तक उसके पेट में बहुत पानी भर चुका था। उसे उलटा लिटाकर उसके पेट का पानी निकाला गया। जब वह सामान्य हो गया तो एक आदमी बोला- भाई मेरे, प्रभु की कृपा से तू बच गया, लकिन हमें यह तो बता, कि डूबते समय तू जो कह रहा था कि मै डूबा तो जग डूबा,इसका क्या मतलब है? तेरे डूबने से जग के डूबने का क्या संबंध है? युवक बोला-भैया, बड़ी सामान्य सी बात है यह तो। खुदा न ख्वास्ता, यदि मै डूब जाता तो फिर इस जग का होना न होना मेरे लिए मायने नहीं रखता। मेरे लिए जग होना तभी तक सार्थक है, जब तक मै जिंन्दा हूँ। बाद में हुआ करें जग, मेरी बला से। इसलिए ही मै कह रहा था कि मै डूबा तो जग डूबा। वाह! भई वाह!! यह सोच भी खूब है। उस युवक के नज़रिये से यदि सोचें तो उसकी बात में दम है। जब आप ही नहीं रहें तो फिर जग का रहना आपके लिए किस काम का? आपके लिए तो आपके साथ ही आपकी दुनिया भी खत्म। लेकिन हमारी दृष्टि से यह सोच गलत है। क्योंकि इस सोच में कहीं न कहीं स्वार्थ झलकता है। यानी आपको बाकी लोगों से, बाकी दुनिया से कोई लेना देना नहीं। आपको तो सिर्फ अपने से मतलब है। जब तक जिससे आपका काम चल रहा है, तब तक ही वह आपका है। काम निकल जाने के बाद उससे आपका कोई लेना-देना नहीं।
     इस प्रवृत्ति के लोग आपको बहुत मिल जाएँगे। यही प्रवृत्ति उन लोगों में अधिक जाग्रत रूप नज़र आती है जो किसी विवाद या अन्य कारण से एक संस्था को छोड़कर दूसरी संस्था में चले जाते हैं और मौका मिलने पर अपनी पूर्व संस्था की बुराई करते नहीं चूकते। क्योंकि उनकी दृष्टि में अब उस संस्था से उनका कोई लेना देना नहीं है। वह डूबती है तो डूब जाए। वे सोचते है कि उनकी बातों से उस संस्था को नुकसान होगा। लेकिन वे गलत सोचते हैं, क्योंकि ऐसी बातों से संस्था का तो कुछ नहीं बिगड़ता, बल्कि उनकी छवि जरूर बिगड़ जाती है या यूँ कहें कि डूब जाती है। उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेता। हर कोई यही सोचता है कि खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे।
     यदि आपकी भी सोच ऐसी है तो बेहतर है कि आप इस तरह डूबने से बचें। हम यह नहीं कहते कि आप अपनी पूर्व संस्था के प्रति कोई जवाबदेही रखें, क्योंकि ऐसा संभव नहीं। लेकिन ऐसा भी न करें कि जिस संस्था का उल्लेख आपने अपने बायोडाटा में किया है, उसके बारे में अनर्गल बोलें। दूसरी ओर, कई लोग इस गलतफहमी में जीते हैं कि संस्था उनसे चल रहीं है। वे नहीं रहेंगे तो संस्था भी नहीं रहेगी। यानी वहीं "हम डूबे तो जग डूबा' वाली प्रवृत्ति। ऐसे लोगों को हम कहना चाहेंगे कि संस्था से व्यक्ति होते है, व्यक्ति से संस्था नहीं। ऊँचे से ऊँचा और महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण व्यक्ति भी यदि संस्था छोड़कर चला जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता। हो सकता है इसका कुछ तात्कालिक प्रभाव नजर आए, लेकिन अंतत: कोई दूसरा उसकी जगह ले लेता है और संस्था चलती रहती है। इसलिए आपने ऐसी कोई गलतफहमी पाल रखी है तो उसे दूर कर दें, वरना यह आपको डुबो देगी।

Saturday, November 12, 2016

भगवान भरोसे


     एक बार एक भक्त के सपने में भगवान प्रकट हुए। भगवान ने उसे कहा कि तू सत्य के रास्ते पर चलने वाला है। मैं तेरे आचरण से खुश हूँ और तुझे एक वर देना चाहता हूँ। जो मन में आए, माँग ले। भक्त बड़ा ही सज्जन था। उसने सोचा कि भगवान से धन-दौलत माँगने का क्या लाभ? इसलिए कुछ ऐसा माँगना चाहिए जिससे हमेंशा के लिए ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त हो जाए। ऐसा सोचकर उसने भगवान से कहा-मुझे और कुछ नहीं चाहिए प्रभु! बस जीवन के हर सुख-दुःख में और परीक्षाओं की घड़ी में आप मेरे साथ चलते रहें। इस पर ईश्वर "तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गए।
     इसके बाद उस भक्त की आँख खुल गई। वह सपने की बात भूलकर अपने दैनंदिन कार्यों में लग गया। इस तरह कई वर्ष बीत गए। इस बीच हर व्यक्ति की तरह उसके जीवन में भी अनेक विपरीत परिस्थितियां आई और उसने उनका सामना हिम्मत और पुरुषार्थ से किया।
     एक बार वह बहुत बीमार हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां जब वह अर्धचेतन अवस्था में पड़ा था तो उसके सामने भगवान फिर प्रकट हुए। भगवान को देखते ही उसे वरदान वाली बात याद आ गई और उसने उनसे पूछा, "प्रभु! आप तो मुझे वरदान देकर गायब ही हो गए। मुझे ज़िंदगी में न जाने कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन सभी का सामना मैने अकेले ही किया। आपने मेरा कहीं भी साथ नहीं दिया।
     भक्त की बात सुनकर भगवान मुस्कराए और बोले-नहीं वत्स! मैं अपने कहे अनुसार जीवन के हर कदम पर तुम्हारे साथ था। इसका क्या प्रमाण है? भक्त ने भगवान से पूछा। इस पर भगवान ने उससे कहा-सामने की दीवार पर देखो। तुम्हारे जीवन की सारी कहानी तस्वीरों में दिखाई देगी। भक्त को सामने की दीवार पर दो व्यक्तियों के पदचिन्हों के रूप में अपने जीवन की सारी घटनाएँ दिखार्इं देने लगीं। भगवान ने कहा-पुत्र! इनमें से एक पदचिन्ह तुम्हारे हैं और दूसरे मेरे। देखो, मैं हर समय तुम्हारे साथ ही चल रहा था। उसने देखा कि बीच-बीच में केवल एक ही व्यक्ति के पदचिन्ह दिखाई दे रहे हैं। उसे याद आया कि ये पदचिन्ह उन समयों के हैं, जब वह कठिन दौर से गुज़र रहा था। उसने भगवान से कहा-प्रभु! इन पदचिन्हों को देखिए। जब जब मुझे आपकी सबसे ज़्यादा आवश्यकता थी, तब तब आप मेरे साथ नहीं थे। भक्त की बात सुनकर भगवान बोले-पुत्र! तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो। मैने तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा। परीक्षाओं की घड़ियों में तुम्हें जो पदचिन्ह दिखाई दे रहे हैं, वे मेरे हैं। उस समय मैने तुम्हें अपनी गोद में उठाया हुआ था। इस कारण तुम्हारे पैरों के निशान वहाँ नहीं बन पाए। चूँकि तुम उस समय अपने कर्म में इतने डूब गए थे कि तुम्हें यह भान ही नहीं हुआ कि मैने तुम्हें अपनी गोद में उठा रखा है। कर्म तो तुम्हें ही करना था। इसलिए गोद में रहकर भी तुम कर्म करते रहे और तुम्हारे निष्काम कर्मों का फल मैं तुम्हें तुम्हारी सफलता के रूप में देता रहा।
     भगवान भरोसे रहने वालों के लिए यह अच्छी कहानी है। ईश्वर अपने उन्हीं भक्तों का साथ देता है जो खुद का साथ देते हैं यानी अपने कर्म करते हैं। जो कर्म नहीं करते, उनका भगवान भी साथ नहीं दे सकता। यह मानी हुई बात है। यहाँ एक सवाल यह भी उठ सकता है कि भगवान ने भक्त को जब सदा साथ चलने का वर दे दिया था तो फिर वे अपनी बात से कैसे पलट सकते थे? फिर वह भक्त चाहे कर्म करे या न करे। इसका उत्तर यह है कि भगवान ने उसे हमेशा साथ चलने का वर दिया था, साथ देने का नहीं। यदि भक्त कर्म नहीं करता तो वे उसे गोद में नहीं उठाते, सिर्फ उसके साथ चलते, फिर भले ही वह जीवन के संग्राम में असफल ही क्यों न हो जाता।
     इसलिए आप यदि चाहते हैं कि आपको जीवन में सफलता मिले, तो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरी मेहनत और जोश के साथ निष्काम प्रयत्न करें। क्योंकि आपका अधिकार सिर्फ प्रयत्न करने तक ही सीमित है और फल देने का अधिकार उसका है। इसलिए आप सिर्फ अपने अधिकार का प्रयोग करें, ईश्वर भी अपने अधिकार का उपयोग करेगा यानी आपको फल देगा।

Tuesday, November 8, 2016

अनमने मन में नहीं रह सकता अमन


     सम्राट बिंदुसार के निधन के बाद सुसीम सहित अपने अनेक भाइयों का वध कर गद्दी पर बैठे अशोक ने अपने साम्राज्य का विस्तार जारी रखा। उसका साम्राज्य लगभग संपूर्ण भारत और पश्चिमोत्तर में हिन्दुकुश एवं ईरान की सीमा तक पहुँच चुका था। इसके बाद भी उसके मन को शांति नहीं मिली थी, क्योंकि अजेय कलिंग ने उसका आधिपत्य स्वीकार नहीं किया था। अतः उसने कलिंग पर चढ़ाई कर दी। कलिंग के वीर सैनिकों ने बहादुरी से अशोक की सेना का सामना किया, लेकिन विजय अशोक की ही हुई।
     अशोक कलिंग पर विजय पताका लहराने के लिए रवाना हुआ तो मार्ग में वीभत्स दृश्य देख उस मन उद्वेलित हो उठा। युद्ध में भारी जनसंहार हुआ था। वह जिधर भी जाता, उसे चारों ओर लाशों के ढेर दिखाई देते। हर तरफ चीत्कार मची  हुई थी। लाखों निरपराध लोग काल के गाल में समा जाने के कारण गाँव के गाँव खाली हो गए थे। यह सब अशोक से देखा नहीं गया। उसे बेचैनी होने लगी और वहीं से लौट गया। उसने युद्ध मन की शांति के लिए किया था, लेकिन इससे उसका मन और भी अशांत हो गया था। इस बीच उसकी पत्नी विदिशा हिंसा के विरोध में भिक्षुणी भी बन गई। इससे अशोक को और भी झटका लगा।
     एक दिन उसने महल के झरोखे से एक किशोर भिक्षु को जाते देखा। उसने उसे अपने पास बुलाया तो उसे पता चला कि यह तो उसका भतीजा न्याग्रोध कुमार था, जिसके पिता का वह वध कर चुका था। अशोक ने उससे पूछा- "क्या तुम मुझसे घृणा नहीं करते?' भिक्षु बोला- "नहीं, क्या मैं तुमसे इसलिए घृणा करूँ कि तुमने मेरे पिता को मार डाला। इससे क्या होगा? घृणा से किसी का हित नहीं होता। उसे प्रेम से जीतना चाहिए।' अशोक- "इतनी छोटी उम्र में तुमने यह सब कहां से सीखा?' भिक्षु- "भगवान बुद्ध के उपदेशों से। इससे अशांत मन को शांति मिलती है।' इन सब घटनाओं से उसका ह्मदय परिवर्तित हो गया और वह भी शांति के लिए बुद्ध की शरण में चला गया।
     दोस्तोे न्याग्रोध ने अशोक को शांति का सही रास्ता दिखाया। और कलिंग को जीतकर भी हार चुके, मन की शांति खो चुके अशोक को शांति का सही मार्ग मिल गया, जिसे अपनाकर ही अशोक "अशोक महान' बना। यानी अशोक इसलिए महान नहीं कहलाया कि उसने अजेय कलिंग सहित संपूर्ण भारत पर आधिपत्य स्थापित किया था। वह महान तब बना, जब उसने अपनी गलती से सबक लेकर उसे न दोहराने का प्रण किया। उसके मन की यह भ्रांति दूर हो चुकी थी कि शांति स्थापित करने के लिए युद्ध ज़रूरी है, भय का वातावरण ज़रूरी है। वह समझ चुका था कि शांति तो प्रेम और समझदारी से ही स्थापित की जा सकती है। और प्रेम से वही शांति स्थापित कर सकता है जो अपनी इच्छाओं को जीतकर मन में शांति स्थापित कर चुका हो।
      हम सभी को भी यह बात समझ में आनी चाहिए कि यदि हमारे भीतर अशांति है तो उसे बाहर ढूँढना बेकार है। शांति की शुरुआत खुद से होती है। इसलिए यदि आप चाहते हैं कि आपके आसपास शांति हो, आप शांति से रह सकें तो सबसे पहले अपने आपको शांतचित्त बनाना होगा तभी आप दूसरों को भी शांत रहना सिखा सकेंगे। बहुत से लोगों की आदत होती है कि वे शांति की बात तो बहुत करते हैं, दूसरों को शांत रहने की शिक्षा भी देते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा अशांति भी वही फैलाते हैं। ऐसे लोगोंें से हम कहना चाहेंगे कि सिर्फ शांति की बातें करने से काम नहीं चलता। आपको शांति में विश्वास भी होना चाहिए। और सिर्फ शांति में विश्वास होने से भी काम नहीं चलता, आपको इसके लिए प्रयत्न भी करने होंगे। यानी शांति चाहते हो तो खुद को शांत रखना सीखो। दूसरों को अशांत रखकर शांति की कामना करोगे तो इससे और भी ज्यादा अशांति फैलेगी। कहते हैं कि अमन के लिए ज़रूरी है कि आपका मन अनमना न रहे। और अपने मन को आप ही मना सकते हैं कोई दूसरा नहीं।
     इसलिए आज कमर कस लें कि आप अपने आपसे, अपनी अशांति से युद्ध कर उसे जीतेंगे। यकीन मानिए, यदि आप इस युद्ध में जीतकर तनावों से मुक्त हो गए तो फिर आप भी अशोक बन जाएँगे यानी आपके मन में कोई शोक न होगा। और तब आपको भी महान या सफल बनने से कोई रोक नहीं पाएगा।
     अब बस! हमें भी मन की शांति के लिए ध्यान में बैठना है। चलिए, आप भी ध्यान कीजिए। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।