Monday, November 28, 2016

हाथ फैलाएं नहीं बल्कि हाथ फहराएँ।


     एक बार मथुरा के गऊघाट पर सैंकड़ों भक्तों के सामने सूरदास अपने लिखे पदों का गायन कर रहे थे। उनकी आवाज़ की मिठास और पदों के शब्दों के जादू से पूरा वातावरण भक्तिमय हो गया था। कृष्णभक्त भक्ति रस में डूबकर आनंद ले रहे थे। उनके सैंकड़ों शिष्य थे जो उन्हें गायक महात्मा कहते थे। अनेक कठिनाइयाँ उठाकर सूरदास ने यह मुकाम हासिल किया था। अँधे होने की वजह से बचपन से ही उनके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जाता था। जब उन्होने पढ़ने की इच्छा व्यक्त की तो उनके पिता ने यह कह कर भगा दिया कि अंधे को क्या पढ़ाऊँगा। इससे वे बेहद निराश हो गए।
      एक बार गाँव से एक साधु मंडली भजन गाती-बजाती निकली। संगीत में उन्हें इतना आनंद आया कि वे बेसुध होकर उसके पीछे-पीछे चल दिए। इसके बाद वे घर नहीं लौटे। एक दिन जब सूरदास अपनी कुटिया में बैठे थे, तभी एक शिष्य ने आकर सूचना दी कि महाप्रभु बल्लभाचार्य वृंदावन जाने वाले हैं। उस समय के सब विद्वानों में महाप्रभु शीर्ष पर थे। इस पर उदास होकर सूरदास बोले कि काश, मेरी महाप्रभु से भेंट हो पाती। इस बीच एक और शिष्य आकर उनसे बोला-महाप्रभु आपसे भेंट करने कुटिया की ओर ही आ रहे हैं। सूरदास बोले-पागल हो गया है क्या? इतना बड़ा विद्वान मुझ जैसे तुच्छ प्राणी से मिलने क्यों आएगा? वे कहीं ओर जा रहे होंगे। तभी महाप्रभु वहाँ पहुंच गए। सूरदास को विश्वास ही नहीं हो रहा था। वे भाव-विभोर होकर गिरते-गिराते उनकी अगवानी के लिए बाहर आए और उनके पैरों में गिर पड़े। आचार्य ने उन्हें उठाकर प्यार से गले लगा लिया और बोले-तुम्हारे गायन की बड़ी प्रशंसा सुनी है। तुम्हारा गायन सुनने की इच्छा हुई तो चला आया।
     सूरदास बोले-क्यों अंधे का दिल रख रहे हो महाप्रभु! थोड़ा-बहुत ऐसे ही गा लेता हूँ। अपाहिज हूँ ना, इससे ज़्यादा और कुछ सीखा ही नहीं। महाप्रभु बोले-तुम अपने आपको असहाय मानना बंद करो। तुम्हें यह घिघियाने की आदत छोड़नी होगी। तुम किसी से कम नहीं हो। अपनी कमियों से ध्यान हटाकर अपने गुणों को पहचानो। तुम कृष्णभक्ति को नए आयाम देने के लिए पैदा हुए हो। महाप्रभु की बातों से सूरदास को तो जैसे रोशनी मिल गई। वे बोले-लेकिन मुझे कृष्ण की लीलाओं का ज्ञान नहीं। महाप्रभु ने कहा- वह मैं तम्हें बताऊँगा। इसके बात उन्होने गुरु-मंत्र देकर सूरदास को अपना शिष्य बना लिया। सूरदास ने इसके बाद कभी अपने आपको असहाय नहीं माना और मन की आँखों से देखकर कृष्ण लीलाओं का वर्णन किया।
     दोस्तो, आप कितने ही कमज़ोर क्यों न हों, अपने आपको कभी लाचार या असहाय न समझे। क्योंकि यदि आपके दिमाग में यह बात बैठ गई कि आप कमज़ोर हैं तो फिर आप कभी कुछ नहीं कर पाएँगे। आप एक लाचार की तरह व्यवहार करेंगे। यह एक ऐसा भाव है जो अच्छे-भले इंसान को भी अपाहिज बना देता है। इसलिए कहा भी गया है कि मन से अपाहिज होने से अच्छा है तन से अपाहिज होना। तन से अपाहिज होने के बाद भी लोग बड़ी-बड़ी सफलताएँ हासिल कर लेते हैं, जैसे कि संत सूरदास ने आँखें न होने के बाद भी कृष्ण लीलाओं का इतना सुंदर चित्रण करके प्राप्त की। लेकिन यदि आप मन से अपाहिज हो गए तो फिर कुछ भी करने के काबिल नहीं रहेंगे।
       इसलिए कभी विवशताओं को अपने ऊपर हावी मत होने दो और न ही उनसे भागो, क्योंकि आप उनसे भाग नहीं सकते। इसलिए बेहतर यह है कि उन पर विजय पाओ। यह बात उस स्थिति में भी लागू होती है, जब आप शारीरिक रूप से अपंग हों। यदि ऐसा है तो भी क्या हुआ। अपंगता नियति हो सकती है, लेकिन इति कभी नहीं।
     इसलिए ऐसी स्थिति में भी अपने आपको कमज़ोर न समझे। क्योंकि ईश्वर यदि आप में कोई कमी रखता है तो ऐसे गुण भी देता है, जो सामान्य लोगों में नहीं होते। ज़रूरत है अपने अंदर छुपे उन गुणों को पहचानने की। जब पहचान लेंगे तो कभी अपने आपको दीन, निर्बल, लाचार और असहाय नहीं समझेंगे। ऐसे अनेक लोग समाज में आपको मिल जाएंगे, जिन्होंने अपनी कमज़ोरी को ही अपना हथियार बनाया। आज वे दूसरों का सहारा लेने की जगह दूसरों के सहारे बने हुए हैं। आपको भी यही करना है। तब आप किसी के सामने हाथ फैलाएँगे नहीं, सफलता पाकर हाथ फहराएंगे।

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