Friday, August 19, 2016

संस्था की छवि से है आपकी छवि


     स्वामी रामतीर्थ के जीवन का एक प्रसंग है। एक बार स्वामी जी जापान की यात्रा पर थे। वहाँ विभिन्न शहरों में उनके कई कार्यक्रम थे। एक बार वे किसी कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए ट्रेन में जा रहे थे। इस लंबी यात्रा के दौरान स्वामी जी की इच्छा फल खाने की हुई। जब गाड़ी अगले स्टेशन पर रूकी तो वहाँ अच्छे फल नहीं मिले। इस पर स्वामी जी ने स्वाभाविक-सी प्रतिक्रिया कर दी कि कि "लगता है कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।' उनकी यह बात एक सहयात्री जापानी युवक ने सुन ली, लेकिन उसने कहा कुछ नहीं। जब अगला स्टेशन आया तो वह फुर्ती से उतरा और कहीं से एक पैकेट में ताज़े-ताज़े मीठे फल ले आया।
     स्वामी जी ने उसे धन्यवाद दिया और कीमत लेने का आग्रह किया। लेकिन उस युवक ने मना कर दिया। जब स्वामी जी ने कीमत लेने पर ज्यादा ज़ोर दिया तो वह बोला कि मुझे कीमत नहीं चाहिए। यदि आप देना ही चाहते हैं तो बस कीमत के रूप में इतना आश्वासन दे दें, कि जब भी आप अपने देश जाएँ, तो वहां किसी से यह मत कहिएगा कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते। इससे हमारे देश की छवि खराब हो सकती है। उसकी भावना से स्वामी जी गद्गद् हो गए। बाद में स्वामी जी ने इस घटना का उल्लेख तो किया लेकिन दूसरे संदर्भों में।
     इसे कहते हैं अपने देश के प्रति सच्चा लगाव। यही लगाव है जिसकी बदौलत
आज जापान जैसा एक छोटा-सा देश आर्थिक क्षेत्र में विश्व की एक शक्ति है। हमारे यहाँ भी इस तरह की भावना के लोग हैं, लेकिन केवल मुट्ठी भर। सोचें कि यदि यह भावना अधिकतर लोगों में आ जाए तो यह देश कहाँ पहुंच सकता है।
     लेकिन अधिकतर हमारे यहाँ जापान से उल्टा होता है। जैसे कि यदि यही घटना किसी विदेशी संत के साथ भारत में घटी होती तो कोई युवक उन्हें अच्छे फल तो नहीं देता, बल्कि यहाँ और क्या क्या अच्छा नहीं मिलता है, इस बात की जानकारी ज़रूर दे देता। चलो, देश की बात छोड़ो। कितने ही लोग आपको ऐसे मिल जाएँगे जो आपके सामने अपनी कंपनी या संस्था की ही निंदा करने लगें जहाँ से उनका कैरियर जुड़ा हुआ है। निंदा करते समय उन्हें इतना भी ध्यान नहीं रहता है कि ऐसा करके वे न केवल अपनी संस्था की छवि को नुकसान पहुँचा रहे हैं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से वे अपनी छवि को भी बिगाड़ते हैं क्योंकि संस्था की छवि से आपकी छवि भी जुड़ी होती है। यानी वे इस लोकोक्ति को चरितार्थ कर रहे होते हैं कि "जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं।' यदि कोई कहता है कि "मेरी कंपनी बहुत ही घटिया है, वहां का प्रबंधन लोगों का बिल्कुल ध्यान नहीं रखता।' इस पर सुनने वाले के मन में पहला विचार यही आएगा यदि कंपनी घटिया है तो वह दूसरी कंपनी में क्यों नहीं चला जाता? कहीं न कहीं खुद में भी कोई कमी होगी तभी वहां टिका हुआ है।

No comments:

Post a Comment