Thursday, March 10, 2016

मन की मानो, मन से मत मनवाओ!


     एक गाँव में कालू नामक बढ़ई रहता था। एक दिन उसकी पत्नी बोली-सुनो जी, आज मैं टमाटर की लौंजी बनाना चाहती हूँ। इसलिए बाज़ार से जाकर टमाटर खरीद लाओ। कालू झोला लेकर बाज़ार की ओर चल दिया। रास्ते में उसकी नज़र टमाटर के एक खेत पर पड़ी। लाल-लाल टमाटरों को देखकर उसने सोचा कि क्यों न यहीं से टमाटर ले जाऊँ। खेत में जाकर जैसे ही उसने टमाटर तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया, उसके मन ने कहा कि यह तो चोरी है। चोरी करना पाप है। उसने तुरंत अपना हाथ पीछे खींच लिया। अब वह क्या करे। तभी उसे एक उपाय सूझा। वह बड़ी ही विनम्रता से खेत से बोला-खेत भैया, खेत भैया, मेरी पत्नी आज टमाटर की लौंजी बनाना चहती है। यदि आपकी इजाज़त हो तो मैं एक-दो टमाटर तोड़ लूँ। कुछ देर रुकने के बाद उसने खेत की ओर से खुद ही उत्तर दे दिया। हाँ-हाँ, कालू भाई, पूरा खेत ही आपका है। एक-दो क्यों झोला भरकर टमाटर ले जाओ। खेत से अनुमति मिलने पर बढ़ई ने तेज़ी से अच्छे-अच्छे टमाटर तोड़कर अपने झोले में भर लिए और घर चल दिया। कछ समय बाद उसकी पत्नी ने उसे फिर से टमाटर लाने को कहा। इस पर वह खुशी-खुशी दोबारा उस खेत में जा पहुँचा और वही कहानी दोहरा दी। और फिर तो यह कहानी गाहे-बगाहे दोहराई जाने लगी।
     उस खेत का मालिक किसना बहुत मेहनती किसान था। एक दिन खेत में घूमते समय उसे शक हुआ कि हो न हो कोई उसके खेत से टमाटर चुरा रहा है। इस पर उसने खेत की चौकसी बढ़ा दी। एक दिन उसने कालू को रंगेहाथों पकड़ लिया और उसका गिरेबान पकड़कर सीधे गाँव के तालाब पर ले गया। वहाँ किसना ने तालाब की ओर देखकर कहा-तालाब काका, तालाब काका, मैं इस चोर को आपके सहयोग से सजा देना चाहता हूँ। क्या मैं इसको एक-दो डुबकी लगवा दूँ। कुछ देर रुकने के बाद वह खुद बोला-क्यों नहीं किसना, इस बदमाश को एक-दो क्यों पूरी सौ-दो सौ डुबकी लगवाओ। तालाब की अनुमति मिलने के बाद उसने वैसा ही किया।
     दोस्तो, इसे कहते हैं जैसे को तैसा। निश्चित ही इसके बाद कालू को सबक मिल गया होगा कि इस तरह से मन को बहलाने से पाप पुण्य में नहीं बदलता। लेकिन कालू ने ही ऐसा किया हो, ऐसा नहीं है। हममें से भी बहुत से लोग अकसर इस तरह की हरकतें करते रहते हैं। यकीन नहीं हो रहा न। अरे भई, जब आप अपने मन की न मानकर उससे अपनी बात मनवाते हैं या यूँ कहें कि मन की न सुनकर उससे अपनी मनचाही कहलवाते हैं तो यह क्या हुआ? यह भी तो वही हुआ जो वह बढ़ई कर रहा था। ऐसे ही बहुत से लोग जो यह सोचते हैं कि उन्होने जो कुछ भी किया वह अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर किया, अपने मन की सुनकर किया। मन की सुनना कोई गलत बात नहीं है। ऐसा सोचने वाले तभी सही ठहराए जा सकते हैं जबकि वे वास्तव में वैसा ही करते जैसा कि उनका मन कह रहा था। उन्होंने मन की मानने की बजाय उसे तो डरा-धमकाकर, बहला-फुसलाकर या फिर उलटे-सीधे तर्क और दलीलें देकर चुप ही करा दिया था। और उसकी चुप्पी को अऩुमति मानकर चल पड़े गलत राह पर। यानी यहाँ मन का दोष नहीं, दोष है आपकी धौंस का, जिसके चलते मन ने कुछ भी कहने से मना कर दिया। इस तरह न जाने कितने लोग अपने अपराधों को, अपने पापों को या किसी गलत काम को उलटे-सीधे तर्क या दलीलें देकर ही जायज़ ठहराते रहते हैं या ठहराते आए हैं।
     यदि आप भी अपने गोरख-धंधों को इसी तरह जायज़ करार देते हैं और यह सब करके भी आपको लगता है कि आप सुखी रह पाएँगे तो यह आपकी गलतफहमी है। आज भले ही आपको इस बात का अहसास न हो लेकिन एक न एक दिन ज़रूर होगा कि आपकी लाख कोशिशों के बाद भी आपके मन ने आपकी किसी भी दलील को नहीं माना। तभी वह खामोश रहकर भी वक्त-बेवक्त आपके द्वारा किए गए गलत कामों के लिए आपको कचोटता रहता है। इसलिए बेहतर यही है कि मन की चुप्पी को उसकी मूक सहमति न मानें। यदि आप मन से मनमानी करेंगे तो अंदर ही अंदर वैसे ही घुटेंगे जैसे कि गलत राह पकड़ने वाले लोग घुटते हैं। यदि आप इस घुटन से बचना चाहते हैं तो यह बात घोंटकर पी लें कि मन की मानना अच्छा है, मन से मनवाना बुरा। ठीक है।


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